तुम्हें पता होना चाहिए कि समस्त मानवजाति आज के दिन तक कैसे विकसित हुई
6000 वर्षों के दौरान कार्य की समग्रता समय के साथ धीरे-धीरे बदल गई है। इस कार्य में बदलाव समस्त संसार की परिस्थितियों के अनुसार हुए हैं। परमेश्वर का प्रबंधन का कार्य केवल मानवजाति के पूर्णरूपेण विकास की प्रवृत्ति के अनुसार धीरे-धीरे रूपान्तरित हुआ है; सृष्टि के आरंभ में इसकी पहले से योजना नहीं बनाई गई थी। संसार का सृजन करने से पहले, या इसके सृजन के ठीक बाद, यहोवा ने अभी तक कार्य के प्रथम चरण, व्यवस्था की; कार्य के दूसरे चरण—अनुग्रह की; और कार्य के तीसरे चरण—जीतने की योजना नहीं बनायी थी, जिनमें वह सबसे पहले लोगों के एक समूह—मोआब के कुछ वंशजों के बीच कार्य करता, और इससे वह समस्त ब्रह्माण्ड को जीतता। उसने संसार का सृजन करने के बाद ये वचन नहीं कहे; उसने ये वचन मोआब के बाद नहीं कहे, लूत से पहले की तो बात ही छोड़ो। उसका समस्त कार्य अनायास ही किया गया था। ठीक इसी तरह से उसका छह-हजार-वर्षों का प्रबंधन कार्य विकसित हुआ है; संसार का सृजन करने से पहले उसने किसी भी तरीके से मानवजाति के विकास के लिए सारांश संचित्र के जैसी कोई योजना नहीं लिखी। परमेश्वर के कार्य में वह प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करता है कि वह क्या है; वह किसी योजना को बनाने पर अत्यधिक विचार नहीं करता है। वास्तव में, बहुत से भविष्यद्वक्ताओं ने बहुत सी भविष्यवाणियाँ की हैं, परंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य सदैव ही एक सटीक योजना-बनाना रहा है; भविष्यवाणियाँ परमेश्वर के वास्तविक कार्य के अनुसार की गई थीं। उसका समस्त कार्य सर्वाधिक वास्तविक कार्य है। वह समयों के विकास के अनुसार अपने कार्य को सम्पन्न करता है, और वह अपना सबसे अधिक वास्तविक कार्य चीज़ों के परिवर्तनों के अनुसार करता है। उसके लिए, कार्य को सम्पन्न करना किसी बीमारी के लिए दवा देने के सदृश है; वह अपना कार्य करते समय अवलोकन करता है; और अपने अवलोकनों के अनुसार कार्य करता है। अपने कार्य के प्रत्येक चरण में, वह अपनी विशाल बुद्धि को व्यक्त करने और अपनी विशाल योग्यता को व्यक्त करने में सक्षम है; वह उस युग विशेष के कार्य के अनुसार अपनी विशाल बुद्धि और विशाल अधिकार को प्रकट करता है, और उन युगों के दौरान उसके द्वारा वापस लाए गए लोगों में से किसी को भी अपना समस्त स्वभाव देखने देता है। वह लोगों की आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है और उस कार्य को करता है जो प्रत्येक युग में अवश्य किए जाने वाले कार्य के अनुसार उसे करना चाहिए; वह लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति उस हद तक करता है जिस तक शैतान ने उन्हें भ्रष्ट कर दिया है। यह इस तरह था जब उन्हें पृथ्वी पर परमेश्वर को अभिव्यक्त करने और सृजन के बीच परमेश्वर की गवाही देने की अनुमति देने के लिए यहोवा ने आरंभ में आदम और हव्वा का सृजन किया, किन्तु सर्प द्वारा प्रलोभन दिए जाने के बाद हव्वा ने पाप किया; आदम ने भी वही किया, और उन्होंने बगीचे में एक साथ अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाया। और इस प्रकार, यहोवा के पास उनके बीच क्रियान्वित करने के लिए अतिरिक्त कार्य था। उसने उनकी नग्नता देखी और पशुओं की खालों के वस्त्रों से उनके शरीर को ढक दिया। इसके बाद उसने आदम से कहा, "तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना, उसको तूने खाया है इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है … अंत में मिट्टी में मिल जाएगा, क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है; तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा।" स्त्री से उसने कहा, "मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दुःख को बहुत बढ़ाऊँगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्न करेगी; और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।" उसके बाद से उसने उन्हें अदन की वाटिका से निर्वासित कर दिया, और उन्हें वाटिका से बाहर रहने दिया, जैसे कि अब आधुनिक मानव पृथ्वी पर रहता है। जब परमेश्वर ने आरंभ में मनुष्य का सृजन किया, तब उसने मनुष्य का सृजन करने के बाद उसे साँप द्वारा प्रलोभित होने देने और फिर मनुष्य और साँप को शाप देने की योजना नहीं बनाई थी। उसकी वास्तव में इस प्रकार की कोई योजना नहीं थी; यह केवल चीज़ों का विकास था जिसने उसे अपनी सृष्टि के बीच नया कार्य दिया। यहोवा के पृथ्वी पर आदम और हव्वा के बीच इस कार्य को सम्पन्न करने के बाद, मानवजाति कई हजार वर्षों तक तब तक विकसित होती रही जब, "यहोवा ने देखा कि मनुष्यों की बुराई पृथ्वी पर बढ़ गई है, और उनके मन के विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है वह निरन्तर बुरा ही होता है। और यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने से पछताया, और वह मन में अति खेदित हुआ। ... परंतु यहोवा की अनुग्रह की दृष्टि नूह पर बनी रही।" इस समय यहोवा के पास और नये कार्य थे, क्योंकि जिस मानवजाति का उसने सृजन किया था वह सर्प के द्वारा प्रलोभित किए जाने के बाद बहुत अधिक पापमय हो चुकी थी। इन परिस्थितियों को देखते हुए, यहोवा ने इस लोगों में से नूह के परिवार का चयन किया और उन्हें बचाया, और संसार को जलप्रलय के द्वारा नष्ट करने का अपना कार्य सम्पन्न किया। मानवजाति आज के दिन भी तक इसी तरीके से विकसित होती जा रही है, उत्तरोत्तर भ्रष्ट हो रही है, और जब मानवजाति का विकास अपने शिखर पर पहुँच जाएगा, तब यह मानवजाति का अंत भी होगा। संसार के बिल्कुल आरंभ से लेकर अंत तक परमेश्वर के कार्य का भीतरी सत्य सदैव ऐसा ही रहा है। यह वैसा ही है जैसे कि मनुष्यों को कैसे उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा। हर एक व्यक्ति को उस श्रेणी में पूर्वनियत किए जाने से दूर जिसमें वे बिल्कुल आरंभ से संबंधित हैं, लोगों को केवल विकास की एक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही धीरे—धीरे श्रेणीबद्ध किया जाता है। अंत में, जिस किसी को भी पूरी तरह से बचाया नहीं जा सकता है उसे उसके पुरखों के पास लौटा दिया जाएगा। मानवजाति के बीच परमेश्वर का कोई भी कार्य संसार के सृजन के समय पहले से तैयार नहीं किया गया था; बल्कि, यह चीज़ों का विकास था जिसने परमेश्वर को मानवजाति के बीच अधिक वास्तविक एवं व्यवहारिक रूप से कदम-दर-कदम अपना कार्य करने दिया। यह ठीक वैसे ही है जैसे कि यहोवा परमेश्वर ने स्त्री को प्रलोभित करने के लिए साँप का सृजन नहीं किया था। यह उसकी विशिष्ट योजना नहीं थी, न ही यह कुछ ऐसा था जिसे उसने जानबूझ कर पूर्वनियत किया था; कोई कह सकता है कि यह अनपेक्षित था। इस प्रकार यह इसलिए था क्योंकि यहोवा ने आदम और हव्वा को अदन की वाटिका से निष्कासित किया और फिर कभी मनुष्य का पुनः सृजन नहीं करने की शपथ ली। परंतु परमेश्वर की बुद्धि के बारे में लोगों को केवल इसी आधार पर पता चलता है, ठीक उसी बिंदु की तरह जो मैंने पहले उल्लेख किया: "मेरी बुद्धि शैतान के षडयंत्रों के आधार पर प्रयोग में लायी जाती है।" इससे फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति कितनी भी भ्रष्ट हुई या साँप ने उन्हें कैसे प्रलोभित किया, यहोवा के पास तब भी अपनी बुद्धि थी; इसलिए, जबसे उसने संसार का सृजन किया है, वह नये-नये कार्य में व्यस्त रहा है और उसके कार्य का कोई भी कदम कभी भी दोहराया नहीं गया है। शैतान ने लगातार षडयंत्र किये हैं; मानवजाति लगातार शैतान के द्वारा भ्रष्ट की गई है, यहोवा परमेश्वर ने भी अपने बुद्धिमान कार्य को लगातार सम्पन्न किया है। वह कभी भी असफल नहीं हुआ है, और संसार के सृजन से अब तक उसने कार्य को कभी नहीं रोका है। शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने के बाद, परमेश्वर ने अपने उस शत्रु को परास्त करने के लिए जो मानवजाति को भ्रष्ट करता है, लोगों के बीच लगातार कार्य किया। यह लड़ाई संसार के आरंभ से अंत तक चलती रहेगी। यह सब कार्य करते हुए, उसने न केवल शैतान के द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी मनुष्य जाति को उसके द्वारा महान उद्धार को प्राप्त करने की अनुमति दी है, बल्कि अपनी बुद्धि सर्वशक्तिमत्ता और अधिकार को देखने की उन्हें अनुमति भी दी है, और अंत में वह मानवजाति को अपना धार्मिक स्वभाव देखने देगा—दुष्टों को दण्ड देगा, और अच्छों को पुरस्कार देगा। उसने आज के दिन तक शैतान के साथ युद्ध किया है और कभी भी पराजित नहीं हुआ है। क्योंकि वह एक बुद्धिमान परमेश्वर है, और उसकी बुद्धि शैतान के षडयंत्रों के आधार पर प्रयोग की जाती है। और इसलिए वह न केवल स्वर्ग की सब चीज़ों को अपने अधिकार के सामने समर्पित करवाता है; बल्कि वह पृथ्वी की सभी चीज़ों को अपने पाँव रखने की चौकी के नीचे रखवाता है, और यही अंतिम बात नहीं है, वह उन बुरे कार्य करने वालों को, जो मानवजाति पर आक्रमण करते हैं और उसे सताते हैं, अपनी ताड़ना के अधीन करता है। कार्य के सभी परिणाम उसकी बुद्धि के कारण उत्पन्न होते हैं। उसने मानवजाति के अस्तित्व से पहले कभी भी अपनी बुद्धि को प्रकट नहीं किया था, क्योंकि स्वर्ग में, और पृथ्वी पर, और समस्त ब्रह्माण्ड में उसके कोई शत्रु नहीं थे, और कोई अंधकार की शक्तियाँ नहीं थीं जो प्रकृति में से किसी भी चीज़ पर आक्रमण करती थी। प्रधान स्वर्गदूत द्वारा उसके साथ विश्वासघात करने के बाद, उसने पृथ्वी पर मानवजाति का सृजन किया, और यह मानवजाति के कारण ही था कि उसने औपचारिक रूप से प्रधान स्वर्गदूत, शैतान के साथ अपना सहस्राब्दि-लंबा युद्ध आरंभ किया, ऐसा युद्ध जो प्रत्येक बाद के चरण के साथ और अधिक घमासान होता गया। इनमें से प्रत्येक चरण में उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि उपस्थित रहती है। केवल इस समय ही स्वर्ग और पृथ्वी में हर चीज़ परमेश्वर की बुद्धि, सर्वशक्तिमत्ता, और विशेषकर परमेश्वर की यथार्थता को देख सकती है। वह आज भी अपने कार्य को उसी यथार्थ तरीके से सम्पन्न करता है; इसके अतिरिक्त, जब वह अपने कार्य को करता है, तो वह अपनी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता को भी प्रकट करता है; वह तुम लोगों को प्रत्येक चरण के भीतरी सत्य को देखने की अनुमति देता है, यह देखने की अनुमति देता है कि परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को कैसे यथार्थतः समझाया जाए, और विशेष रूप से परमेश्वर की वास्तविकता को कैसे समझाया जाए।
क्या लोग यह विश्वास नहीं करते हैं कि सृजन से पहले ही यह दैवनिर्दिष्ट था कि यहूदा यीशु को बेचेगा? वास्तव में, पवित्र आत्मा ने उस समय की वास्तविकता के आधार पर यह योजना बनाई थी। यह सिर्फ ऐसे घटित हुआ कि यहूदा नामका कोई व्यक्ति था, जो सदैव पैसों का गबन किया करता था। इसलिए वह इस भूमिका को निभाने और इस तरह से सेवा में होने के लिए चुना गया। यह स्थानीय संसाधनों को उपयोग में लाने का एक अच्छा उदाहरण है। पहले तो यीशु इस बात से अनभिज्ञ था; उसे केवल तभी पता चला जब एक बार बाद में यहूदा के बारे में बताया गया था। यदि कोई अन्य व्यक्ति इस भूमिका को निभाने में समर्थ होता, तो यहूदा के बजाय किसी और ने इसे किया होता। वह जो पूर्वनियत था वह वास्तव में पवित्र आत्मा के द्वारा उसी समय में किया गया था। पवित्र आत्मा का कार्य सदैव अनायास किया जाता है; किसी भी समय जब वह अपने कार्य की योजना बनाएगा, तो पवित्र आत्मा उसे सम्पन्न करेगा। मैं क्यों सदैव कहता हूँ कि पवित्र आत्मा का कार्य यथार्थवादी होता है? कि वह सदैव नया होता है, कभी पुराना नहीं होता है, और सदैव सबसे अधिक ताजा होता है? जब संसार का सृजन किया गया था तब परमेश्वर के कार्य की योजना पहले से नहीं बनायी गई थी; ऐसा बिलकुल भी नहीं हुआ था! कार्य का हर कदम अपने सही समय पर समुचित प्रभाव प्राप्त करता है, और वे एक दूसरे में हस्तक्षेप नहीं करते हैं। ऐसे बहुत से अवसर हैं, जब तुम्हारे मन की योजनाएँ पवित्र आत्मा के नवीनतम कार्य के साथ बस मिलान नहीं खातीं हैं। उसका कार्य लोगों के तर्क-वितर्क के जैसा आसान नहीं है, न ही वह लोगों की कल्पनाओं जैसा जटिल है; इसमें किसी भी समय, किसी भी स्थान पर, लोगों को उनकी वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार आपूर्ति करना शामिल है। जहाँ तक लोगों के सार की बात है कोई भी उतना स्पष्ट नहीं है जितना वह है, और यह निश्चित रूप से इसी कारण से है कि कोई भी चीज़ लोगों की यथार्थवादी आवश्यकताओं के उतना अनुकूल होने में समर्थ नहीं है जितने अच्छे तरीके से उसका कार्य है। इसलिए, मनुष्य के दृष्टिकोण से, उसका कार्य कई सहस्राब्दि पूर्व अग्रिम में योजनाबद्ध कर दिया गया था। जब वह तुम लोगों के बीच, तुम लोगों की परिस्थिति के अनुसार कार्य करता है, तो वह कार्य भी करता है और किसी भी समय और किसी भी स्थान में बोलता भी है। जब लोग एक निश्चित परिस्थिति होते हैं, तो वह उन वचनों को कहता है जो हूबहू वे होते हैं उनकी उन्हें भीतर आवश्यकता है। यह ताड़ना के समय के उसके कार्य के पहले कदम के समान है। ताड़ना के समय के बाद, लोगों ने एक निश्चित व्यवहार प्रदर्शित किया, उन्होंने निश्चित तरीकों से विद्रोहपूर्ण ढंग से कार्य किया, कुछ सकारात्मक परिस्थितियाँ उभरीं, कुछ नकारात्मक परिस्थितियाँ भी उभरीं, और इस नकारात्मकता की ऊपरी सीमा एक निश्चित स्तर तक पहुँची। परमेश्वर ने इन सब बातों के आधार पर अपना कार्य किया, और इस प्रकार अपने कार्य हेतु अधिक बेहतर प्रभाव प्राप्त करने के लिए इन पर कब्जा कर लिया। वह केवल लोगों के बीच उनकी वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार आपूर्ति करने का कार्य कर रहा है। वह अपने कार्य का हर कदम लोगों की वास्तविक परिस्थितियों के अनुसार सम्पन्न करता है। समस्त सृष्टि उसके हाथों में है, क्या वह उन्हें नहीं जान सकता था? लोगों की परिस्थितियों के आलोक में, परमेश्वर, किसी भी समय और स्थान पर, कार्य के उस अगले कदम को करता है जो किया जाना चाहिए। यह कार्य किसी भी तरह से हजारों वर्ष पहले से योजनाबद्ध नहीं किया गया था; यह एक मानवीय धारणा है! जब वह अपने कार्य के प्रभावों को देखता है तो वह कार्य करता है, और उसका कार्य लगातार अधिक गहरा और विकसित होता जाता है; जब वह अपने कार्य के परिणामों का अवलोकन करता है, तो वह अपने कार्य के अगले कदम को सम्पन्न करता है। वह धीरे-धीरे अवस्थांतरण के लिए व समय के साथ लोगों को अपना नया कार्य दृष्टिगोचर कराने हेतु कई चीजों का उपयोग करता है। इस प्रकार का कार्य लोगों की आवश्यकताओं की आपूर्ति करने में समर्थ होता है, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों को बहुत अच्छी तरह से जानता है। वह अपने कार्य को इसी तरह से स्वर्ग से सम्पन्न करता है। इसी प्रकार, देहधारी परमेश्वर भी, वास्तविकता के अनुसार योजना बनाकर और मनुष्यों के बीच कार्य करके, अपने कार्य को इसी प्रकार से सम्पन्न करता है। उसके किसी भी कार्य की संसार के सृजन से पहले योजना नहीं बनायी गई थी, और न ही इसकी पहले से ध्यानपूर्वक योजना बनायी गई थी। संसार के सृजन के 2000 वर्षों के बाद, यहोवा ने देखा कि मानवजाति इतनी भ्रष्ट हो गई है कि उसने भविष्यवाणी करने के लिए भविष्यद्वक्ता यशायाह के मुँह का उपयोग किया कि व्यवस्था के युग का अंत होने के बाद, वह अनुग्रह के युग में मानवजाति को छुटकारा दिलाने के कार्य को करेगा। निस्संदेह, यह यहोवा की योजना थी, किन्तु यह योजना भी उन परिस्थितियों के अनुसार थी जो उसने उस समय अवलोकन की; उसने निश्चित रूप से आदम का सृजन करने के तुरंत बाद इस बारे में नहीं सोचा। यशायाह ने केवल भविष्यवाणी की, किन्तु यहोवा ने व्यवस्था के युग के दौरान इसके लिए तुरंत तैयारियाँ नहीं की; बल्कि, उसने अनुग्रह के युग के आरंभ में इस कार्य की शुरूआत की, जब संदेशवाहक यूसुफ के स्वप्न में दिखाई दिया और उसने उसे प्रबुद्ध किया, और उसे बताया कि परमेश्वर देहधारी बनेगा, और इस प्रकार उसका देहधारण का कार्य आरंभ हुआ। परमेश्वर ने, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं, संसार के सृजन के बाद अपने देहधारण के कार्य के लिए तैयारी नहीं की; यह केवल मनुष्यजाति के विकास के स्तर और शैतान के साथ उसके युद्ध की स्थिति के अनुसार निर्णय लिया गया था।
जब परमेश्वर देह में आता है, तो उसका आत्मा किसी मनुष्य पर उतरता है; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का देह को पहन लेता है। वह अपना कार्य पृथ्वी पर करता है, और अपने साथ विभिन्न प्रतिबंधित कदमों को लाने की बजाय, यह कार्य सर्वथा असीमित होता है। पवित्र आत्मा शरीर में रह कर जो कार्य करता है वह तब भी उसके कार्य के प्रभावों के अनुसार निर्धारित होता है और वह इन चीज़ों का उपयोग उस समयावधि का निर्धारण करने के लिए करता है जब तक वह शरीर में रहते हुए कार्य को करेगा। पवित्र आत्मा अपने कार्य के प्रत्येक चरण को प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करता है; जब वह कार्य में आगे बढ़ता है तो वह अपने कार्य का परीक्षण करता है; इसमें इतना कुछ अलौकिक नहीं है जो मानवीय कल्पना की सीमाओं को विस्तार दे। यह यहोवा के द्वारा आकाश और पृथ्वी और अन्य सब वस्तुओं से सृजन के कार्य के समान है; उसने साथ-साथ योजना बनाई और कार्य किया। उसने ज्योति को अंधकार से अलग किया, और सुबह और शाम अस्तित्व में आए—इसमें एक दिन लगा। दूसरे दिन उसने आकाश का सृजन किया, उसमें भी एक दिन लगा, और फिर उसने पृथ्वी, समुद्र और उन सब चीज़ों को बनाया जिन्होंने उन्हें आबाद किया, इसमें भी एक दिन और लगा। और यह पूरे छठे दिन से, जब परमेश्वर ने मनुष्य का सृजन किया और उसे पृथ्वी पर सभी चीज़ों का प्रबंधन करने दिया, सातवें दिन तक चला, जब उसने सभी चीज़ों का सृजन करना समाप्त कर दिया था, और विश्राम किया था। परमेश्वर ने सातवें दिन को आशीष दी और उसे पवित्र दिन के रूप में निर्दिष्ट किया। उसने सभी चीज़ों का सृजन करने के बाद, इसे पवित्र दिन ठहराया, उनका सृजन करने से पहले नहीं। यह कार्य भी अनायास ढंग से किया गया था; सभी चीज़ों का सृजन करने से पहले, उसने छः दिनों में संसार का सृजन करना और सातवें दिन विश्राम करना तय नहीं किया था; तथ्य बिलकुल भी इसके समान नहीं हैं। उसने ऐसा नहीं कहा, न ही इसकी योजना बनाई। उसने किसी भी तरह से यह नहीं कहा कि सभी चीज़ों का सृजन छः दिनों में पूरा किया जाएगा और कि वह सातवें दिन विश्राम करेगा; बल्कि उसे जो अच्छा लगा उसके अनुसार उसने सृजन किया। एक बार जब उसने सभी चीज़ों का सृजन समाप्त कर लिया, तो पहले ही छठा दिन हो चुका था। यदि यह पाँचवाँ दिन रहा होता जब उसने सभी चीज़ों का सृजन करना समाप्त किया था, तो वह इस प्रकार छठे दिन को पवित्र के रूप में निर्दिष्ट करता; हालाँकि उसने सभी चीज़ों का सृजन करना छः दिनों में समाप्त किया, और इसलिए सातवाँ दिन पवित्र दिन बन गया, जिसे आज के दिन भी प्रख्यापित किया गया है। इसलिए, उसका वर्तमान कार्य उसी तरीके से सम्पन्न किया जाता है। वह तुम लोगों की परिस्थितियों के अनुसार तुम लोगों की आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है। अर्थात्, पवित्रात्मा लोगों की परिस्थितियों के अनुसार बोलता और कार्य करता है। पवित्रात्मा सब पर निगरानी रखता है और किसी भी समय, किसी भी स्थान में कार्य करता है। जो कुछ मैं करता हूँ, कहता हूँ, तुम लोगों पर रखता हूँ और तुम लोगों को प्रदान करता हूँ, अपवाद के बिना, यह वह है जिसकी तुम लोगों को आवश्यकता है। इसीलिए मैं यह कहता हूँ कि मेरा कोई भी कार्य वास्तविकता से अलग नहीं है; वह सब वास्तविक हैं, क्योंकि तुम सब लोगों को पता है कि "परमेश्वर का आत्मा सब पर निगरानी रखता है।" यदि यह सब समय से पहले तय किया गया होता, तो क्या यह बहुत अधिक स्पष्ट और निश्चित नहीं होता? तुम सोचते हो कि परमेश्वर ने पूरे छः सहस्राब्दि तक कार्य किया और तब मानवजाति को विद्रोही, प्रतिरोधी, धूर्त और चालाक, देह वाला, शैतानी स्वभाव, आँखों की वासना और अपने स्वयं के भोग-विलास वाला होने के रूप में पूर्वनियत किया। नहीं, यह पूर्वनियत नहीं था, बल्कि शैतान की भ्रष्टता के कारण था। कुछ लोग कहेंगे, "क्या शैतान भी परमेश्वर की पकड़ में नहीं था? परमेश्वर ने पूर्वनियत किया था कि शैतान मनुष्य को इस तरह से भ्रष्ट करेगा, और उसके बाद उसने मनुष्यों के बीच अपना कार्य सम्पन्न किया।" क्या परमेश्वर वास्तव में मानवजाति को भ्रष्ट करने के लिए शैतान को पूर्वनियत करेगा? वह तो अत्यधिक उत्सुक था कि मानवजाति सामान्य रूप में मानव जीवन जीये; क्या वह मानवजाति के जीवन को परेशान करेगा? तब क्या शैतान को परास्त करना और मानवजाति को बचाना एक व्यर्थ प्रयास नहीं होगा? मानवजाति की विद्रोहीशीलता किस प्रकार से पूर्वनियत की जा सकती थी? वास्तविकता में यह शैतान के द्वारा परेशान किये जाने के कारण कारण था; यह परमेश्वर के द्वारा कैसे पूर्वनियत किया जा सकता था? वह शैतान जो परमेश्वर की पकड़ में है जिसे तुम लोग समझते हो और वह शैतान जो परमेश्वर की पकड़ में हैं जिसके बारे में मैं बोल रहा हूँ, बहुत भिन्न हैं। तुम लोगों के कथनों के अनुसार कि "परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, और शैतान उसके हाथों के अंतर्गत है", शैतान उसके साथ विश्वासघात नहीं करेगा। क्या तुमने यह नहीं कहा कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है? तुम लोगों का ज्ञान अत्यधिक अमूर्त है, और यह वास्तविकता से हटकर है; इसमें दम नहीं है और यह कार्य नहीं करता है! परमेश्वर सर्वशक्तिमान है; यह बिल्कुल भी गलत नहीं है। प्रधान स्वर्गदूत ने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया, क्योंकि परमेश्वर ने आरंभ में उसे अधिकार का एक भाग दिया। निस्संदेह, यह घटना अनपेक्षित घटना थी, जैसे कि हव्वा का साँप के बहकावे में आना। हालाँकि, इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि शैतान कैसे विश्वासघात करता है, परमेश्वर के विपरीत वह सर्वशक्तिमान नहीं है। जैसा कि तुम लोगों ने कहा है, शैतान शक्तिमान है; वह चाहे जो भी करे, परमेश्वर का अधिकार उसे सदैव पराजित करता है। "परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, और शैतान उसके हाथों के अंतर्गत है," इस कथन का यही वास्तविक अर्थ है। इसलिए, शैतान के साथ उसका युद्ध अवश्य एक बार में एक कदम सम्पन्न होना चाहिए; इसके अलावा, वह शैतान की चालबाजियों के उत्तर में अपने कार्य की योजना बनाता है। कहने का अर्थ है कि युगों के अनुसार, वह लोगों को बचाता है और अपनी बुद्धि एवं सर्वशक्तिमत्ता को प्रकट करता है। इसी तरह, अंत के दिनों का कार्य अनुग्रह के युग से पहले पूर्व नियत नहीं किया गया था; इसे व्यवस्थित ढंग से इस तरह से पूर्वनियत नहीं किया गया था: सबसे पहले, मनुष्य के बाहरी स्वभाव में परिवर्तन करो; दूसरा, मनुष्य को उसकी ताड़ना और परीक्षाएँ प्राप्त करवाओ, तीसरा मनुष्य को मृत्यु का अनुभव करवाओ, चौथा मनुष्य को परमेश्वर से प्रेम करने के समयों का अनुभव करवाओ, और सृजित प्राणी के संकल्प को व्यक्त करवाओ, पाँचवाँ, मनुष्य से परमेश्वर की इच्छा पर विचार करवाओ, और परमेश्वर को पूर्णतः ज्ञात करवाओ, और तब मनुष्य को पूर्ण बनाओ। उसने इन सब चीज़ों की योजना अनुग्रह के युग के दौरान नहीं बनाई; बल्कि उसने वर्तमान युग में इन बातों की योजना बनाना आरंभ किया। शैतान कार्य कर रहा है, जैसे कि परमेश्वर भी कार्य कर रहा है। शैतान अपने भ्रष्ट स्वभाव को व्यक्त करता है, जबकि परमेश्वर प्रत्यक्ष रूप से बोलता है और तात्विक चीज़ों को प्रकट करता है। आज यही कार्य किया जा रहा है, और कार्य करने का यही सिद्धांत बहुत पहले, संसार के सृजन के बाद, उपयोग में लाया गया था।
सबसे पहले, परमेश्वर ने आदम और हव्वा का सृजन किया, और उसने साँप का भी सृजन किया। सभी चीज़ों में साँप सर्वाधिक विषैला था; उसकी देह में विष था, और शैतान उस विष का उपयोग करता था। यह साँप ही था जिसने पाप करने के लिए हव्वा को प्रलोभित किया। हव्वा के बाद आदम ने पाप किया, और तब वे दोनों अच्छे और बुरे के बीच भेद करने में समर्थ हो गए थे। यदि यहोवा जानता था कि साँप हव्वा को प्रलोभित करेगा और हव्वा आदम को प्रलोभित करेगी, तो उसने उन सबको एक ही वाटिका के भीतर क्यों रखा? यदि वह इन चीज़ों का पूर्वानुमान करने में समर्थ था, तो उसने क्यों साँप की रचना की और उसे अदन की वाटिका के भीतर रखा? अदन की वाटिका में अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल क्यों था? क्या वह चाहता था कि वे उस फल को खाएँ? जब यहोवा आया, तब न आदम को और न हव्वा को उसका सामना करने का साहस हुआ, और केवल इसी समय यहोवा को पता चला कि उन्होंने अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खा लिया है और वे साँप के छल-कपट का शिकार बन गए हैं। अंत में, उसने साँप को शाप दिया, और उसने आदम और हव्वा को शाप दिया। जब उन दोनों ने उस वृक्ष के फल को खाया तब यहोवा को पता नहीं था। मानवजाति दुष्ट बनने और यौन रूप से स्वच्छंदता होने की सीमा तक भ्रष्ट हो गयी, यहाँ तक कि इस स्थिति तक कि उन्होंने जिन चीज़ों को अपने हृदयों में आश्रय दिया हुआ था वे भी बुरी और अधार्मिक थीं; वे सब गंदगियाँ थीं। इसलिए, यहोवा मानवजाति का सृजन करके पछताया। उसके बाद उसने संसार को जलप्रलय के द्वारा नाश करने का अपना कार्य सम्पन्न किया, जिसमें नूह और उसके पुत्र बच गए। कुछ चीज़ें वास्तव में इतनी अधिक उन्नत और अलौकिक नहीं हैं जितनी लोग कल्पना कर सकते हैं। कुछ लोग पूछते हैं: "चूँकि परमेश्वर जानता था कि प्रधान स्वर्गदूत उसके साथ विश्वासघात करेगा, तो परमेश्वर ने उसका सृजन क्यों किया?" तथ्य ये हैं: जब अभी तक इस पृथ्वी का अस्तित्व नहीं था, तब प्रधान स्वर्गदूत स्वर्ग के स्वर्गदूतों में सबसे महान् था। स्वर्ग के सभी स्वर्गदूतों पर उसका अधिकार क्षेत्र था; और यही अधिकार उसे परमेश्वर ने दिया था। परमेश्वर के अपवाद के साथ, वह स्वर्ग के स्वर्गदूतों में सर्वोच्च था। बाद में जब परमेश्वर ने मानवजाति का सृजन किया तब प्रधान स्वर्गदूत ने पृथ्वी पर परमेश्वर के विरुद्ध और भी बड़ा विश्वासघात किया। मैं कहता हूँ कि उसने परमेश्वर के साथ विश्वासघात इसलिए किया क्योंकि वह मानवजाति का प्रबंधन करना और परमेश्वर के अधिकार से बढ़कर होना चाहता था। यह प्रधान स्वर्गदूत ही था जिसने हव्वा को पाप करने के लिए प्रलोभित किया; उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह पृथ्वी पर अपना राज्य स्थापित करना और मानवजाति द्वारा परमेश्वर के साथ विश्वासघात करवाना और परमेश्वर के बजाय अपना आज्ञापालन करवाना चाहता था। उसने देखा कि बहुत सी चीज़ें हैं जो उसका आज्ञापालन करती थीं; स्वर्गदूत उसकी आज्ञा मानते थे, ऐसे ही पृथ्वी पर लोग भी उसकी आज्ञा मानते थे। पृथ्वी पर पक्षी और पशु, वृक्ष और जंगल, पर्वत और नदियाँ और सभी वस्तुएँ मनुष्य—अर्थात्, आदम और हव्वा—की देखभाल के अधीन थी जबकि आदम और हव्वा उसका आज्ञापालन करते थे। इसलिए प्रधान स्वर्गदूत परमेश्वर के अधिकार से अधिक बढ़कर होना और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना चाहता था। बाद में उसने परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने के लिए बहुत से स्वर्गदूतों की अगुआई की, जो तब विभिन्न अशुद्ध आत्माएँ बन गए। क्या आज के दिन तक मानवजाति का विकास प्रधान स्वर्गदूत की भ्रष्टता के कारण नहीं है? मानवजाति जैसी आज है केवल इसलिए है क्योंकि प्रधान स्वर्गदूत ने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया और मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया। यह कदम-दर-कदम कार्य कहीं भी लगभग उतना अमूर्त और आसान नहीं है जैसा लोग कल्पना करते हैं। शैतान ने एक कारणवश विश्वासघात किया, फिर भी लोग इतनी आसान सी बात को समझने में असमर्थ हैं। परमेश्वर ने क्यों स्वर्ग और पृथ्वी और सब वस्तुओं का सृजन किया, और शैतान का भी सृजन किया? चूँकि परमेश्वर शैतान से बहुत अधिक घृणा करता है, और शैतान परमेश्वर का शत्रु है, तो परमेश्वर ने उसका सृजन क्यों किया? शैतान का सृजन करके, क्या वह एक शत्रु का सृजन नहीं कर रहा था? परमेश्वर ने वास्तव में एक शत्रु का सृजन नहीं किया था; बल्कि उसने एक स्वर्गदूत का सृजन किया था, और बाद में इस स्वर्गदूत ने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया। इसकी हैसियत इतनी बड़ी थी कि उसने परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की इच्छा की। कोई कह सकता है कि यह मात्र एक संयोग था, परंतु यह एक अपरिहार्य प्रवृत्ति भी थी। यह उस बात के समान है कि कैसे कोई व्यक्ति एक निश्चित आयु पर अपरिहार्य रूप से मरेगा; चीज़ें पहले ही एक निश्चित स्तर तक विकसित हो चुकी है। कुछ ऐसे बेहूदे लोग हैं, जो कहते हैं: "चूँकि शैतान तुम्हारा शत्रु है, तो तुमने उसका सृजन क्यों किया? क्या तुम नहीं जानते थे कि प्रधान स्वर्गदूत तुम्हारे साथ विश्वासघात करेगा? क्या तुम अनंतकाल से अनंतकाल में नहीं झाँक सकते हो? क्या तुम उसका स्वभाव नहीं जानते हो? चूँकि तुम्हें स्पष्ट रूप से पता था कि वह तुम्हारे साथ विश्वासघात करेगा, तो तुमने उसे प्रधान स्वर्गदूत क्यों बनाया? भले ही कोई उसके विश्वासघात की बात की अनदेखी भी करे, तब भी उसने कितने ही स्वर्गदूतों की अगुआई की और मनुष्यजाति को भ्रष्ट करने के लिए नश्वर संसार में उतरा; आज के दिन तक, तुम अपनी छः—हजार—वर्षीय प्रबंधन योजना को पूरा करने में असमर्थ रहे हो। क्या यह सही है?" क्या तुम अपने आपको आवश्यकता से अधिक तकलीफों में नहीं डाल रहे हो? तब भी अन्य लोग कहते हैं: "यदि शैतान ने वर्तमान समय तक मानवजाति को भ्रष्ट नहीं किया होता, तो परमेश्वर ने मानवजाति को इस प्रकार से नहीं बचाया होता। इस मामले में परमेश्वर की बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता अदृश्य रहे होते; उसकी बुद्धि कहाँ अभिव्यक्त होती? इसलिए परमेश्वर ने शैतान के लिये मानवजाति का सृजन किया; भविष्य में परमेश्वर अपना सर्वशक्तिमत्ता प्रकट करेगा—अन्यथा मनुष्य परमेश्वर की बुद्धि को कैसे खोजेगा? यदि मनुष्य ने परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं किया और उसके प्रति विद्रोहशील क्रिया नहीं की, तो उसकी क्रियाओं को स्वयं को अभिव्यक्त करना अनावश्यक होगा। यदि सम्पूर्ण सृष्टि उसकी आराधना और उसका आज्ञापालन करे, तो उसके पास करने के लिए कोई कार्य नहीं होगा।" और यह चीज़ों की वास्तविकता से भी आगे है, क्योंकि परमेश्वर में कुछ भी गंदगी नहीं है, और इसलिए वह गंदगी का सृजन नहीं कर सकता है। वह केवल अपने शत्रु को परास्त करने, मानव जाति को बचाने, जिसका इसने सृजन किया है, दुष्टात्माओं और शैतान को पराजित करने, जो उससे घृणा करते हैं, विश्वासघात करते हैं, और उसका प्रतिरोध करते हैं, जो उसके अधिकार क्षेत्र के अधीन थे और बिल्कुल आरम्भ में उसी से संबंधित थे, के लिए अब अपने कार्यों को प्रकट करता है; वह इन दुष्टात्माओं को पराजित करना चाहता है और ऐसा करने में वह सभी चीज़ों पर अपनी सर्वशक्तिमत्ता को प्रकट करता है। मानवजाति और पृथ्वी पर सभी वस्तुएँ अब शैतान के अधिकार क्षेत्र के अधीन हैं और दुष्ट के अधिकार क्षेत्र के अधीन हैं। परमेश्वर अपने कार्यों को सभी चीज़ों के ऊपर प्रकट करना चाहता है ताकि लोग उसे जान सकें, और परिणामस्वरूप शैतान को पराजित और परमेश्वर के शत्रुओं को सर्वथा परास्त कर सकें। उसके इस कार्य की समग्रता उसके कार्यों के प्रकट होने के माध्यम से सम्पन्न होती है। उसके सभी प्राणी शैतान के अधिकार क्षेत्र में है, और इसलिए वह उन पर अपनी सर्वशक्तिमत्ता प्रकट करना चाहता है, और परिणामस्वरूप शैतान को पराजित करना चाहता है। यदि कोई शैतान नहीं होता, तो उसे अपने कार्यों को प्रकट करने की आवश्यकता नहीं होती। यदि शैतान के उत्पीड़न के कारण नहीं होता, तो उसने मानवजाति का सृजन किया होता और अदन की वाटिका में उनके रहने के लिए अगुवाई की होती। उसने शैतान के विश्वासघात से पहले स्वर्गदूतों या प्रधान स्वर्गदूत के लिए अपने सभी क्रिया-कलापों को प्रकट क्यों नहीं किया? यदि स्वर्गदूतों और प्रधान स्वर्गदूत ने उसको जान लिया होता, और आरम्भ में ही उसका आज्ञापालन भी किया होता, तो उसने कार्य के उन निरर्थक क्रिया-कलापों को नहीं किया होता। शैतान और दुष्टात्माओं के अस्तित्व की वजह से, लोग परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और विद्रोह करने वाले स्वभाव से लबालब भरे हुए हैं, और इसलिए परमेश्वर अपने क्रिया-कलापों को प्रकट करना चाहता है। क्योंकि वह शैतान से युद्ध करना चाहता है, इसलिए शैतान को पराजित करने के लिए उसे अवश्य अपने स्वयं के अधिकार का उपयोग करना चाहिए और अपने सभी क्रिया-कलापों का उपयोग करना चाहिए; इस तरह से, उसके उद्धार का कार्य जिसे वह मनुष्यों के बीच सम्पन्न करता है लोगों को उसकी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता को देखने देगा। आज परमेश्वर जो कार्य करता है, वह अर्थपूर्ण है, और किसी भी तरह से वैसा नहीं है, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं: "क्या तुम जो कार्य करते हो वह विरोधाभासी नहीं हैं? क्या कार्य का यह सिलसिला अपने आप को थकाने का एक व्यायाम मात्र नहीं है? तुमने शैतान का सृजन किया, फिर उसे तुम्हारे साथ विश्वासघात करने और तुम्हारा प्रतिरोध करने दिया। तुमने मानवजाति का सृजन किया, और फिर उसे शैतान को सौंप दिया, और तुमने आदम और हव्वा को प्रलोभित किए जाने की अनुमति दी। चूँकि तुमने यह सब कुछ जानबूझ कर किया है, तो तुम मानवजाति से नफ़रत क्यों करते हो? तुम शैतान से नफ़रत क्यों करते हो? क्या ये चीजें तुम्हारे स्वयं के द्वारा नहीं बनायी गई हैं? इसमें तुम्हारे लिए घृणा करने वाली क्या बात है?" बहुत से बेहूदा लोग ऐसा कहेंगे। वे परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं, परन्तु वे अपने हृदयों में परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं—कितनी विरोधाभासी बात है! तुम सत्य को नहीं समझते हो, तुम्हारे बहुत से अलौकिक विचार हैं, और तुम यहाँ तक भी दावा करते हो कि यह परमेश्वर की गलती है—तुम कितने बेहूदा हो! यह तुम ही हो जो सत्य के साथ हेराफेरी करते हो; यह परमेश्वर की गलती नहीं है! कुछ लोग तो यहाँ तक कि बार-बार शिकायत भी करते हैं: "यह तुम ही थे जिसने शैतान का सृजन किया, और तुमने ही मानवजाति को शैतान को दिया। मानवजाति शैतानी स्वभाव को धारण करती है; उन्हें क्षमा करने के बजाय, तुम उनसे एक हद तक नफ़रत करते हो। आरंभ में तुमने मनुष्य जाति को एक हद तक प्रेम किया। तुमने शैतान को मनुष्यों के संसार में गिराया, और अब तुम मानवजाति से नफरत करते हो। यह तुम ही हो जो मानवजाति से नफ़रत और प्रेम करते हो—इसका क्या स्ष्टीकरण है? क्या यह एक विरोधाभास नहीं हैं?" इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि तुम लोग इसे कैसे देखते हो, स्वर्ग में यही हुआ था; प्रधान स्वर्गदूत ने इसी तरीके से परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया, और मानवजाति को इसी प्रकार भ्रष्ट किया गया, और आज के दिन तक इसी तरीके से की जा रही है। इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि तुम किन शब्दों में व्यक्त करते हो, पूरी कहानी यही है। हालाँकि, तुम लोगों को यह अवश्य समझना चाहिए कि परमेश्वर वर्तमान में जो कार्य करता है, वह तुम लोगों को बचाने के लिए, और शैतान को पराजित करने के लिए करता है।
चूँकि स्वर्गदूत विशेष रूप से निर्बल था और उसमें कोई योग्यता नहीं थी, इसलिए यदि अधिकार दिया जाता तो वह घमण्डी बन जाता, विशेष रूप से प्रधान स्वर्गदूत, जिसका पद किसी भी अन्य स्वर्गदूत से उच्चतर था। प्रधान स्वर्गदूत सभी स्वर्गदूतों का राजा था। इसने लाखों स्वर्गदूतों की अगुआई की, और यहोवा के अधीन इसका अधिकार किसी भी अन्य स्वर्गदूत से बढ़कर था। वह बहुत सी चीज़े करना चाहता था, और संसार में प्रशासन करने के लिए मनुष्यों के संसार में स्वर्गदूतों की अगुआई करना चाहता था। परमेश्वर ने कहा कि वह ब्रह्माण्ड का प्रशासन करता है; और प्रधान स्वर्गदूत ने कहा कि प्रशासन करने के लिए ब्रह्माण्ड उसका अपना है, और तब से उसने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया। स्वर्ग में, परमेश्वर ने एक अन्य संसार का सृजन किया था। प्रधान स्वर्गदूत उस संसार पर प्रशासन करना चाहता था और मनुष्य के संसार में भी उतरना चाहता था। क्या परमेश्वर उसे ऐसा करने की अनुमति दे सकता था? इसलिए, उसने उसे नीचे और हवा में गिरा दिया। जब से उसने मनुष्यों को भ्रष्ट किया, तब से मानवजाति के उद्धार के लिये परमेश्वर ने उसके विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया है; उसने इन छः-सहस्राब्दियों का उपयोग उसे हराने के लिए किया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के विषय में तुम लोगों की धारणा परमेश्वर द्वारा अब किए जा रहे कामों से असंगत है; यह अभ्यास में कार्य नहीं करती है और अत्यधिक बेहूदी है! वास्तव में, परमेश्वर ने प्रधान स्वर्गदूत के द्वारा विश्वासघात करने के बाद ही उसे अपना शत्रु घोषित किया। यह इस विश्वासघात के कारण ही था कि मनुष्य के संसार में आने के बाद उसने मानवजाति को कुचल दिया, और यह इसी कारण से था कि मानवजाति इस चरण तक पहुँच गई। इसके बाद, परमेश्वर ने शैतान के साथ शपथ ली: "मैं तुझे पराजित करूँगा और अपनी सृष्टि, मानवजाति को बचाऊँगा।" पहले-पहल तो शैतान आश्वस्त नहीं हुआ और कहा, "तू वास्तव में मेरा क्या बिगाड़ सकता है? क्या तू मुझे सच में हवा में गिरा सकता है? क्या तू सच में मुझे पराजित कर सकता है?" जब परमेश्वर ने उसे हवा मे गिरा दिया, उसके बाद उसने उस पर और ध्यान नहीं दिया और फिर, शैतान द्वारा निरंतर परेशानियों के बावजूद, उसने मानवजाति को बचाना और अपना कार्य करना शुरू कर दिया। शैतान जो कुछ भी कर सकता था वह उसे परमेश्वर द्वारा दी कई सामर्थ्य के कारण था; वह इन चीज़ों को अपने साथ हवा में ले गया और आज के दिन तक इन चीज़ों को धारण करता है। परमेश्वर ने उसे हवा में गिराया किंतु उसका अधिकार वापस नहीं लिया, और इसलिए वह मानव जाति को भ्रष्ट करता रहा। परमेश्वर ने, दूसरी ओर, मानवजाति को बचाना आरंभ कर दिया, जिसे उनके सृजन के बाद ही शैतान ने भ्रष्ट कर दिया था। परमेश्वर ने स्वर्ग में रहने के दौरान अपने कार्यों को प्रकट नहीं किया; हालाँकि, पृथ्वी का सृजन करने से पहले, उसने लोगों को अवसर दिया कि वे संसार में उन क्रिया-कलापों को देखें जिनका उसने स्वर्ग में सृजन किया था और इस प्रकार लोगों की ऊपर स्वर्ग में अगुवाई की। उसने उन्हें बुद्धि और प्रतिभा दी, और उन लोगों की उस संसार में रहने में अगुवाई की। स्वाभाविक है कि तुम लोगों में से किसी ने भी इसे पहले नहीं सुना है। बाद में, जब परमेश्वर ने मानवजाति का सृजन कर लिया उसके बाद, प्रधान स्वर्गदूत ने मानवजाति को भ्रष्ट करना आरंभ कर दिया; पृथ्वी पर समस्त मानवजाति अराजकता में थी। यह केवल इसी समय हुआ कि परमेश्वर ने शैतान के विरुद्ध अपना युद्ध आरंभ कर दिया, और यह केवल इसी समय था कि लोगों ने उसके कार्यों को देखा। आरंभ में उसके क्रिया-कलाप मानवजाति से गुप्त थे। जब शैतान हवा में गिराया गया उसके बाद, इसने अपने आप को अपने मामलों की तक संबंधित रखा, और परमेश्वर ने, अंत के दिनों तक पूरी तरह से, उसके विरुद्ध लगातार युद्ध छेड़ते हुए, अपने आप को अपने स्वयं के कार्यों तक संबंधित रखा। अब वह समय है जिसमें शैतान को नष्ट कर दिया जाना चाहिए। आरंभ में परमेश्वर ने उसे अधिकार दिया, बाद में उसे हवा में गिरा दिया, परंतु वह अवज्ञाकारी बना रहा। बाद में, पृथ्वी पर, उसने मानवजाति को भ्रष्ट किया, परंतु परमेश्वर पृथ्वी पर मनुष्यों का प्रबंधन कर रहा था। परमेश्वर लोगों के प्रबंधन का उपयोग शैतान को पराजित करने के लिए करता है। लोगों को भ्रष्ट करके शैतान लोगों के भाग्य का अंत कर देता है और परमेश्वर के कार्य में परेशानी उत्पन्न करता है। दूसरी ओर, परमेश्वर का कार्य मनुष्यों का उद्धार करना है। परमेश्वर के कार्य का कौन सा कदम मानवजाति को बचाने के अभिप्राय से नहीं है? कौन सा कदम लोगों को स्वच्छ बनाने, उनसे धार्मिकता करवाने और इस तरह से जीवन बिताने के अभिप्राय से नहीं है जो ऐसी छवि का निर्माण करता है जिससे प्रेम किया जा सके? शैतान, हालाँकि, ऐसा नहीं करता है। वह मानवजाति को भ्रष्ट करता है; मानवजाति को भ्रष्ट करने के अपने कार्य को सारे ब्रह्माण्ड में निरंतर करता रहता है। निस्संदेह, परमेश्वर अपना स्वयं का कार्य भी करता है। वह शैतान की ओर जरा भी ध्यान नहीं देता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि शैतान के पास कितना अधिकार है, तब भी इसका अधिकार परमेश्वर द्वारा ही दिया गया है; परमेश्वर ने वास्तव में उसे मात्र अपना पूरा अधिकार नहीं दिया, और इसलिए वह चाहे जो कुछ करे, वह परमेश्वर से आगे नहीं बढ़ सकता है और सदैव परमेश्वर की पकड़ में है। परमेश्वर ने स्वर्ग में रहने के समय अपने क्रिया-कलापों को प्रकट नहीं किया। उसने शैतान को स्वर्गदूतों के ऊपर नियंत्रण प्रयोग करने की अनुमति देने के लिए उसे अपने अधिकार में से मात्र कुछ हिस्सा ही दिया। इसलिए वह चाहे जो कुछ करे, वह परमेश्वर के अधिकार से बढ़-कर नहीं हो सकता है, क्योंकि परमेश्वर ने उसे जो अधिकार दिया है वह सीमित है। जब परमेश्वर कार्य करता है, तो शैतान परेशान करता है। अंत के दिनो में, वह अपने उत्पीड़न को समाप्त कर देगा; उसी तरह, परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाएगा, और परमेश्वर जिस प्रकार के व्यक्ति को पूर्ण बनाना चाहता है वह पूर्ण बना दिया जाएगा। परमेश्वर लोगों को सकारात्मक रूप से निर्देशित करता है; उसका जीवन जीवित जल है, अमापनीय और असीम है। शैतान ने मनुष्य को एक हद तक भ्रष्ट किया है; अंत में, जीवन का जीवित जल मनुष्य को पूर्ण बनाएगा, और शैतान के लिए हस्तक्षेप करना और उसका कार्य करना असंभव हो जायेगा। इस प्रकार, परमेश्वर इन लोगें को पूर्णतः प्राप्त कर लेगा। शैतान तब भी इसे अब मानने से मना करता है; वह लगातार स्वयं को परमेश्वर के विरोध में खड़ा करता है, परंतु परमेवश्वर उस पर कोई ध्यान नहीं देता है। उसने कहा है, ‘‘मैं शैतान की सभी अँधेरी शक्तियों के ऊपर और उसके सभी अँधेरे प्रभावों के ऊपर विजेता बनूँगा। यही वह कार्य है जो अब देह में अवश्य किया जाना चाहिए, और यही देहधारण का अभिप्राय है। यह अंत के दिनों में शैतान को पराजित करने के चरण को पूर्ण करने, शैतान से जुड़ी सभी चीज़ों को मिटाने के लिए है। परमेश्वर की शैतान पर विजय एक निश्चित प्रवृत्ति है! वास्तव में शैतान बहुत पहले असफल हो चुका है। जब बड़े लाल ड्रेगन के पूरे देश में सुसमाचार फैलने लगा, अर्थात्, जब देहधारी परमेश्वर ने कार्य करना आरंभ किया, और यह कार्य गति पकड़ने लगा, तो शैतान बुरी तरह परास्त हो गया था, क्योंकि देहधारण शैतान को पराजित करने के अभिप्राय से था। शैतान ने देखा कि परमेश्वर एक बार फिर से देह बन गया और उसने अपना कार्य करना भी आरंभ कर दिया, और उसने देखा कि कोई भी शक्ति कार्य को रोक नहीं सकी। इसलिए, जब उसने इस कार्य को देखा, तो वह अवाक रह गया तथा कोई और कार्य करने का साहस नहीं किया। पहले-पहल तो शैतान ने सोचा कि उसके पास भी प्रचुर बुद्धि है, और उसने परमेश्वर के कार्य में हस्तक्षेप किया और परेशानियाँ डाली; हालाँकि, उसने यह आशा नहीं की थी कि परमेश्वर एक बार फिर देह बन गया है, और कि अपने कार्य में, परमेश्वर ने मानवजाति के लिए प्रकटन और न्याय के रूप में काम में लाने के लिए, और परिणामस्वरूप मानवजाति को जीतने और शैतान को पराजित करने के लिए उसकी विद्रोहशीलता का उपयोग किया है। परमेश्वर उसकी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान है, और उसका कार्य शैतान के कार्य से बहुत बढ़कर है। इसलिए, मैंने पहले निम्नलिखित कहा है: मैं जिस कार्य को करता हूँ वह शैतान की चालबाजियों के प्रत्युत्तर में किया जाता है। अंत में, मैं अपनी सर्वशक्तिमत्ता और शैतान की सामर्थ्यहीनता को प्रकट करूँगा। जब परमेश्वर अपना कार्य करता है, तो शैतान पीछे से छुप कर उसका पीछा करता है, जब तक कि अंत में वह अंततः नष्ट नहीं हो जाता है—उसे पता भी नहीं चलेगा कि उस पर चोट किसने की! एक बार जब उसे पहले ही कुचला और चूर—चूर कर दिया गया होगा, केवल तभी उसे सत्य का ज्ञान होगा; उस समय तक उसे पहले से ही आग की झील में जला दिया गया होगा। तब क्या वह पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हो जाएगा? क्योंकि उसके पास आनंद लेने के लिए और कोई योजनाएँ नहीं हैं!
यह कदम-दर-कदम वास्तविक कार्य ही है जो प्रायः मानवजाति के लिए दुःख के साथ परमेश्वर के हृदय को परेशान करता है, जिसकी वजह से शैतान के साथ उसका युद्ध चलते हुए 6000 वर्ष बीत चुके हैं। इसलिए परमेश्वर ने कहा: "मैं फिर कभी मानवजाति का सृजन नहीं करूँगा और न ही मैं स्वर्गदूतों को अधिकार प्रदान करूँगा।" उसके बाद से, जब स्वर्गदूत पृथ्वी पर कुछ कार्य के लिए आए, तो उन्होंने कुछ कार्य करने के लिए मात्र परमेश्वर का अनुसरण किया। उसने स्वर्गदूतों को कभी भी अधिकार नहीं दिया। उन स्वर्गदूतों ने अपना कार्य कैसे किया जिन्हें इस्राएलियों ने देखा? वे स्वयं को सपनों में प्रकट करते थे और यहोवा के वचनों को पहुँचाते थे। जब सलीब पर चढ़ाए जाने के तीन दिन बाद यीशु पुनर्जीवित हुए, तो ये स्वर्गदूत ही थे जिन्होंने शिलाखण्ड को एक ओर धकेला था; परमेश्वर के आत्मा ने व्यक्तिगत रूप में यह कार्य नहीं किया था। स्वर्गदूतों ने केवल इस प्रकार का कार्य ही किया; उन्होंने सहायक की भूमिका निभायी और उनके पास कोई अधिकार नहीं था, क्योंकि परमेश्वर दोबारा उन्हें कभी भी अधिकार नहीं देगा। कुछ समय तक कार्य करने के बाद, जिन लोगों को परमेश्वर ने पृथ्वी पर उपयोग किया था, उन्होंने परमेश्वर का स्थान ले लिया और कहा, "मैं ब्रह्माण्ड से-बढ़ कर होना चाहता हूँ! मैं तीसरे स्वर्ग में खड़ा होना चाहता हूँ!" हम संप्रभुता की सामर्थ्य का शासन चाहते हैं! कुछ दिनों तक कार्य करने के बाद वे घमंडी बन जाया करते; वे पृथ्वी पर संप्रभुता की सामर्थ्य चाहते थे, वे एक अन्य राष्ट्र स्थापित करना चाहते थे, वे सब चीज़ों को अपने पाँवों के नीचे चाहते थे, और तीसरे स्वर्ग में खड़े होना चाहते थे। क्या तुम नहीं जानते हो कि तुम परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए गए एक मनुष्य मात्र हो? तुम तीसरे स्वर्ग तक कैसे आरोहण कर सकते हो? परमेश्वर पृथ्वी पर शांति से और बिना शोर किए, कार्य करने के लिए आता है, और अपना कार्य पूरा करने के बाद चुपचाप चला जाता है। वह कभी भी मनुष्यों के समान हो-हल्ला नहीं करता है, बल्कि अपने कार्य को वास्तविक रूप में करता है। न ही वह कभी किसी चर्च में जाकर चिल्लाता है, "मैं तुम सब लोगों को मिटा दूँगा! मैं तुम्हें शाप दूँगा, और तुम लोगों को ताड़ना दूँगा!" वह बस अपना कार्य करता है, और जब वह समाप्त कर लेता है तो चला जाता है। वे धार्मिक पादरी जो बीमारों को चंगा करते हैं और दुष्टात्माओं को निकालते हैं, मंच से दूसरों को भाषण देते हैं, लंबे और आडंबरपूर्ण भाषण देते हैं, और अवास्तविक मामलों की चर्चा करते हैं, भीतर तक अहंकारी हैं! वे प्रधान स्वर्गदूत के वंशज हैं!
आज के दिन तक अपना 6000 वर्षों का कार्य करते हुए, परमेश्वर ने अपने बहुत से क्रिया-कलापों को पहले ही प्रकट कर दिया है, मुख्य रूप से शैतान को पराजित करने और समस्त मानवजाति का उद्धार करने का कार्य। वह स्वर्ग की हर चीज़, पृथ्वी के ऊपर की हर चीज़ और समुद्र के अंदर की हर चीज़ और साथ ही पृथ्वी पर परमेश्वर के सृजन की हर अंतिम वस्तु को परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को देखने और परमेश्वर के सभी क्रिया-कलापों को देखने की अनुमति देने के लिए इस अवसर का उपयोग करता है। वह मानवजाति पर अपने सभी क्रिया-कलापों को प्रकट करने हेतु शैतान को पराजित करने के अवसर पर कब्ज़ा करता है, और लोगों को उसकी स्तुति करने और शैतान को पराजित करने वाली उसकी बुद्धि को प्रोत्साहित करने में समर्थ बनने की अनुमति देता है। पृथ्वी पर, स्वर्ग में, और समुद्र के भीतर की प्रत्येक वस्तु उसकी महिमा लाती है, और उसकी सर्वशक्तिमत्ता की स्तुति करती है, उसके सभी क्रिया-कलापों की स्तुति करती है, और उसके पवित्र नाम की जय—जयकार करती है। यह शैतान की पराजय का उसका प्रमाण है; यह शैतान पर उसकी विजय का प्रमाण है; और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, यह उसके द्वारा मानवजाति के उद्धार का प्रमाण है। परमेश्वर की समस्त सृष्टि उसके लिए महिमा लाती है, अपने शत्रु को पराजित करने और विजयी होकर लौटने के लिए उसकी स्तुति करती है और एक महान विजयी राजा के रूप में उसकी स्तुति करती है। उसका उद्देश्य केवल शैतान को पराजित करना ही नहीं है, और इसलिए उसका कार्य 6000 वर्ष तक जारी रहा। वह मानवजाति को बचाने के लिए शैतान की पराजय का उपयोग करता है; वह अपने सभी क्रिया-कलापों को प्रकट करने के लिए और अपनी सारी महिमा को प्रकट करने के लिए शैतान की पराजय का उपयोग करता है। वह महिमा प्राप्त करेगा, और स्वर्गदूतों का समस्त जमघट भी उसकी सम्पूर्ण महिमा को देखेगा। स्वर्ग में संदेशवाहक, पृथ्वी पर मनुष्य, और पृथ्वी पर समस्त सृष्टि सृजनकर्ता की महिमा को देखेगी। यही वह कार्य है जो वह करता है। स्वर्ग में और पृथ्वी पर उसकी सृष्टि, सभी उसकी महिमा को देखेंगे। और वह शैतान को सर्वथा पराजित करने के बाद विजयोल्लास के साथ वापस लौटेगा, और मानवजाति को अपनी प्रशंसा करने देगा। इस प्रकार वह इन दोनों पहलुओं को सफलतापूर्वक प्राप्त करेगा। अंत में समस्त मानवजाति उसके द्वारा जीत ली जाएगी, और वह ऐसे किसी को भी मिटा देगा जो उसका विरोध करेगा या विद्रोह करेगा, अर्थात्, उन सभी को मिटा देगा जो शैतान से संबंधित हैं। आज तुम परमेश्वर के इन सभी क्रिया-कलापों को देखते हो, मगर तब भी तुम प्रतिरोध करते हो और विद्रोही हो, और समर्पण नहीं करते हो; तुम अपने भीतर बहुत सी चीज़ों को आश्रय देते हो, और वही करते हो जो तुम चाहते हो; तुम अपनी वासनाओं और अपनी पसंद का अनुसरण करते हो—यह विद्रोहशीलता है; और यह प्रतिरोध है। परमेश्वर पर विश्वास जो देह के लिए, किसी की वासनाओं के लिए, और किसी की पसंद के लिए, संसार के लिए, और शैतान के लिए किया जाता है, वह गंदा है; वह प्रतिरोधी व विद्रोहशील है। आज सभी विभिन्न प्रकारों के विश्वास हैं: कुछ आपदा से बचने के लिए आश्रय खोजते हैं, अन्य आशीषें प्राप्त करने की खोज करते हैं, जबकि कुछ रहस्यों को समझना चाहते हैं और कुछ अन्य कुछ धन पाने का प्रयास करते हैं; ये सभी प्रतिरोध के रूप हैं; ये सब ईशनिंदा हैं! यह कहना कि कोई व्यक्ति प्रतिरोध या विद्रोह करता है—क्या यह इन चीज़ों के संदर्भ में नहीं है? बहुत से लोग अब बड़बड़ाते हैं, शिकायतें करते हैं या आलोचनाएँ करते हैं। ये सभी चीज़ें दुष्टों के द्वारा की जाती हैं; वे मानव प्रतिरोध और विद्रोहशीलता हैं; ऐसे व्यक्ति शैतान के अधिकार और नियंत्रण में हैं। जिन लोगों को परमेश्वर प्राप्त कर लेता है, ये वे लोग हैं जो पूर्ण रूप से उसके प्रति समर्पण करते हैं, जो शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिए गये हैं किंतु अब उसके कार्य के द्वारा बचा और जीत लिए गए हैं, जिन्होंने क्लेशों को सहा है और अंत में परमेश्वर के द्वारा पूर्णतः प्राप्त कर लिए गए हैं, तथा शैतान के अधिकार क्षेत्र में अब और नहीं रहते हैं, और अधार्मिकता से पूरी तरह मुक्त हो गए हैं, जो पवित्रता में जीवन जीना चाहते हैं—ये ही सबसे अधिक पवित्र लोग हैं; ये ही पवित्र लोग हैं। यदि तुम्हारे वर्तमान क्रिया-कलाप परमेश्वर की अपेक्षाओं के एक भाग से मेल नहीं खाते हैं, तो तुम्हें अलग कर दिया जाएगा। यह निर्विवाद है। सब कुछ आज के अनुसार किया जाता है; यद्यपि उसने तुम्हें पूर्वनियत कर दिया है और चुन लिया है, किन्तु फिर भी आज तुम्हारे क्रिया-कलाप ही तुम्हारा परिणाम निर्धारित करेंगे। यदि आज तुम अब गिरने से नहीं रुक सकते हो तो तुम्हें अलग कर दिया जाएगा। यदि तुम आज गिरने से नहीं रुक सकते हो, तो तुम बाद में गिरने से रुकने की आशा भी कैसे कर सकते हो? अब जबकि ऐसा बड़ा चमत्कार तुम्हारे सामने प्रकट हो चुका है, तुम तब भी विश्वास नहीं करते हो। मुझे बताओ, बाद में तुम उस पर कैसे विश्वास करोगे, जब वह अपना कार्य समाप्त कर देगा और आगे ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा? उस समय तुम्हारे लिए अनुसरण करना और भी अधिक असंभव होगा। बाद में यह निर्धारित करने के लिए कि तुम पापी हो या धार्मिक हो, या यह निर्धारित करने के लिए कि तुम एक पूर्ण बनाए गए व्यक्ति हो या निकाले गए व्यक्ति हो, परमेश्वर तुम्हारी प्रवृत्ति पर और देहधारी परमेश्वर के प्रति तुम्हारे ज्ञान और तुम्हारे अनुभव पर भरोसा करेगा। तुम्हें अभी स्पष्ट रूप से देखना चाहिए। पवित्र आत्मा इसी तरह से कार्य करता है: वह आज के तुम्हारे व्यवहार के अनुसार तुम्हारा परिणाम निर्धारित करता है। कौन आज के वचन बोलता है? कौन आज का कार्य करता है? कौन तय करता है कि आज तुम्हें निकाल दिया जाएगा? कौन तुम्हें पूर्ण बनाना तय करता है? क्या यह वह नहीं है जो मैं स्वयं करता? मैं ही वह एक हूँ जो इन वचनों को बोलता हूँ; मैं ही वह एक हूँ जो इस काम को सम्पन्न करता हूँ। लोगों को शाप देना, ताड़ना देना, और उनका न्याय करना ये सभी मेरे स्वयं के कार्य का एक हिस्सा हैं। अंत में, तुम्हें अलग करना भी मेरा स्वयं का कार्य होगा! सब मेरा स्वयं का ही कार्य है! तुम्हें पूर्ण बनाना मेरा स्वयं का कार्य है, और तुम्हें अपनी आशीषों का आनंद लेने देना भी मेरा स्वयं का कार्य है। यह सब मेरा स्वयं का कार्य है। तुम्हारा परिणाम यहोवा के द्वारा पूर्वनियत नहीं किया गया था; यह आज के परमेश्वर के द्वारा निर्धारित किया जाता है। यह अब निर्धारित किया जाता है; यह संसार का सृजन किए जाने से पूर्व निर्धारित नहीं किया गया था। कुछ बेहूदा लोग कहते हैं, संभवतः "तुम्हारी आँखों में कुछ खराबी है, और तुम मुझे उस तरह से नहीं देखते हो, जिस तरह से तुम्हें देखना चाहिए। अंत में तुम देखोगे कि पवित्रात्मा सभी चीज़ों को कैसे अभिव्यक्त करता है!" यीशु ने मूलरूप में यहूदा को अपने शिष्य के रूप में चुना। लोग सोचते हैं कि यीशु ने उसमें एक गलती की थी। वह कैसे किसी ऐसे को शिष्य चुन सकता था, जो उसके साथ विश्वासघात करेगा? पहले-पहल तो यहूदा का यीशु के साथ विश्वासघात का कोई इरादा नहीं था। यह मात्र बाद में हुआ। उस समय, यीशु ने यहूदा को काफी अनुकूल के रूप में देखा था; उसने मनुष्य से अपना अनुसरण करवाया, और उसे उनके आर्थिक मामलों के लिए उत्तरदायी बनाया। यदि वह जानता कि यहूदा गबन करेगा, तो वह उसे धन का प्रभारी नहीं रखता। कोई कह सकता है कि मूलरूप में यीशु नहीं जानता था कि यह व्यक्ति कुटिल और धोखेबाज़ है, और इसने अपने भाइयों और बहनों के साथ धोखाधड़ी की है। बाद में यहूदा के कुछ समय तक अनुसरण करने के बाद, यीशु ने उसे अपने भाइयों और बहनों को धोखा देते हुए, और परमेश्वर के साथ धोखा करते हुए देखा। लोगों ने यह भी जान लिया कि वह पैसों के थैले में से सदैव धन खर्च किया करता था, और तब उन्होंने यीशु को बताया। यीशु को ये सब बातें इस समय पता चली। क्योंकि यीशु को सलीब पर चढ़ने के अपने कार्य को सम्पन्न करना था, और उसे किसी ऐसे की आवश्यकता थी जो उसके साथ विश्वासघात करे, और यहूदा इस कार्य के लिए करीब—करीब उपयुक्त था, इसलिए यीशु ने कहा, "तुम में से कोई एक होगा जो मेरे साथ विश्वासघात करेगा। मनुष्य का पुत्र इस विश्वासघात को सलीब पर चढ़ाए जाने के लिए उपयोग करेगा और तीन दिन में पुनर्जीवित हो जाएगा।" उस समय, यीशु ने यहूदा को वास्तव में नहीं चुना कि वह उसके साथ विश्वासघात करे; इसके विपरीत वह चाहता था कि यहूदा एक स्वामिभक्त शिष्य बने। परंतु उसे आश्चर्य हुआ कि यहूदा इतना अधम लालची बन गया जिसने प्रभु के साथ विश्वासघात कर दिया, और प्रभु ने अपने कार्य को करने हेतु यहूदा का चयन करने के लिए इस स्थिति का उपयोग किया। यदि यीशु के सभी बारह चेले निष्ठावान होते, और उनमें यहूदा जैसा कोई नहीं होता, तो यीशु के साथ विश्वासघात करने वाला व्यक्ति अंततः चेलों में से बाहर का कोई होता। हालाँकि, उस समय ऐसा हुआ कि उनमें से एक ऐसा था—यहूदा—जिसे रिश्वत लेने में आनंद आता था। इसलिए यीशु ने अपने कार्य को पूरा करने के लिए इस व्यक्ति का उपयोग किया। यह कितना सरल था! यीशु ने अपने कार्य के आरंभ में यह पूर्व-निर्धारित नहीं किया था; उसने यह निर्णय तब लिया जब एक बार चीज़ें एक निश्चित कदम तक विकसित हो गईं थीं। यह यीशु का निर्णय था, यानि, स्वयं परमेश्वर के आत्मा का निर्णय था। उस समय यह यीशु था जिसने यहूदा को चुना; जब बाद में यहूदा ने यीशु के साथ विश्वासघात किया, तो यह अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए पवित्र आत्मा का कार्य था; उस समय यह पवित्र आत्मा का कार्य था। जब यीशु ने यहूदा को चुना, तब उसे पता नहीं था कि वह उसके साथ विश्वासघात करेगा। वह केवल इतना जानता था कि वह यहूदा इस्करियोती है। तुम लोगों के परिणाम भी आज तुम लोगों के समर्पण के स्तर के अनुसार और तुम लोगों के जीवन की उन्नति के स्तर के अनुसार निर्धारित होते हैं, मानवीय धारणाओं के बीच इस विचार के अनुसार नहीं कि यह तो विश्व के सृजन के समय से ही पूर्वनियत था। तुम्हें इन सब बातों को स्पष्ट रूप से अवश्य समझ लेना चाहिए। यह सम्पूर्ण कार्य तुम्हारी कल्पनाओं के अनुसार नहीं किया जाता है।
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