देहधारण के महत्व को दो देहधारण पूरा करते हैं
परमेश्वर के द्वारा किए गए कार्य के प्रत्येक चरण का एक वास्तविक महत्व है। जब यीशु का आगमन हुआ, वह पुरुष था, और इस बार वह स्त्री है। इससे, तुम देख सकते हो कि परमेश्वर ने अपने कार्य के लिए पुरुष और स्त्री दोनों का सृजन किया और वह लिंग के बारे में कोई भी भेदभाव नहीं करता है। जब उसका आत्मा आगमन करता है, तो वह इच्छानुसार किसी भी देह को धारण कर सकता है और वह देह उसका ही प्रतिनिधित्व करती है।चाहे यह पुरुष हो या स्त्री, दोनों ही परमेश्वर को प्रकट करते हैं क्योंकि यह उसका देहधारी शरीर है। यदि यीशु एक स्त्री के रूप में आ जाता और प्रकट हो जाता, दूसरे शब्दों में, यदि पवित्र आत्मा के द्वारा एक शिशु कन्या, न कि एक लड़का, गर्भधारण किया जाना होता, तब भी कार्य का वह चरण उसी तरह से पूरा किया गया होता। यदि ऐसा है, कि इसके बजाय कार्य का यह स्तर एक पुरुष के द्वारा पूरा किया जाना होता और तब भी वह कार्य उसी तरह से पूरा किया जाता। दोनों ही चरणों में किया गया कार्य महत्वपूर्ण है; कोई भी कार्य दोहराया नहीं जाता है या एक-दूसरे का विरोध नहीं करता है। अपने कार्य के समय में, यीशु को इकलौता पुत्र कहा गया, जो पुरुष लिंग का संकेत करता है। तो फिर इस चरण में इकलौते पुत्र का उल्लेख क्यों नहीं किया जाता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि कार्य की आवश्यकताओं ने लिंग में बदलाव को आवश्यक बना दिया जो कि यीशु के लिंग से भिन्न हो। परमेश्वर लिंग के बारे में कोई भी भेदभाव नहीं करता है। उसका कार्य वैसे ही होता है जैसी वह इच्छा करता है और किसी प्रतिबंध के अधीन नहीं है, विशेषकर यह स्वतंत्र है, परन्तु प्रत्येक चरण का एक वास्तविक महत्व है। परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया, और कहने की आवश्यकता नहीं कि अंत के दिनों में उसका देहधारण अंतिम बार है। वह अपने सभी कर्मों को प्रकट करने के लिए आया है। यदि इस चरण पर वह मनुष्य के द्वारा गवाही दिए जाने के लिए व्यक्तिगत रूप से कार्य करने के लिए देह धारण नहीं करता, तो मनुष्य हमेशा के लिए यही अवधारणा बनाए रखता कि परमेश्वर सिर्फ पुरुष है, स्त्री नहीं। इससे पहले, सब मानते थे कि परमेश्वर सिर्फ पुरुष ही हो सकता है और कि एक स्त्री को परमेश्वर नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सभी पुरुष को स्त्री पर अधिकार रखने वाला मानते थे। वे मानते थे कि कोई भी स्त्री अधिकार को धारण नहीं कर सकती है, बल्कि सिर्फ पुरुष ही धारण कर सकता है। वे तो यहाँ तक कहते थे कि पुरुष स्त्री का मालिक है और कि स्त्री को पुरुष की आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिए और वह उससे श्रेष्ठ नहीं हो सकती है। अतीत में जब ऐसा कहा गया था कि पुरुष स्त्री का मालिक है, तो यह आदम और हव्वा के संबंध में कहा गया था जिन्हें सर्प के द्वारा छला गया था, न कि उस पुरुष और स्त्री के बारे में जिन्हें आरंभ में यहोवा द्वारा सृजन किया गया था। निस्संदेह, एक स्त्री को अपने पति की आज्ञापालन और उससे प्रेम अवश्य करना चाहिए, उसी तरह से एक पुरुष को अपने परिवार का भरण पोषण करना अवश्य सीखना चाहिए। ये नियम और आदेश हैं जो यहोवा के द्वारा निर्धारित किए गए हैं जिनका मानवजाति द्वारा पृथ्वी पर अपने जीवनों में अवश्य पालन किया जाना चाहिए। यहोवा ने स्त्री से कहा, "तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।" यह सिर्फ इसलिए कहा गया था ताकि मानवजाति (अर्थात् पुरुष और स्त्री दोनों) यहोवा के प्रभुत्व के अधीन सामान्य जीवन जी सके, ताकि मानवजाति के जीवन की संरचना हो और उसका जीवनक्रम न खोए। इसलिए, यहोवा ने उपयुक्त नियम बनाए कि कैसे पुरुष और स्त्री को क्रिया करनी चाहिए, परन्तु ये सब मात्र पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों के सन्दर्भ में थे न कि देहधारी परमेश्वर की देह के सन्दर्भ में। परमेश्वर अपनी ही सृष्टि के समान कैसे हो सकता था? उसके वचन सिर्फ उसके द्वारा सृजन की गई मानवजाति के लिए ही निर्देशित थे; ये नियम पुरुष और स्त्री के लिए निर्धारित किए गए थे ताकि इस तरह की मानवजाति सामान्य जीवन जी सके। आरंभ में, जब यहोवा ने मानव जाति का सृजन किया, तो उसने पुरुष और स्त्री दोनों को बनाया; इसलिए, उसका देहधारी शरीर भी पुरुष या स्त्री में विभेदित हो गया। उसने अपना कार्य आदम और हव्वा को बोले गए वचनों के आधार पर तय नहीं किया। दोनों बार जब उसने देहधारण किया तो यह पूरी तरह से उसकी तब की सोच के अनुसार था जब उसने सबसे पहले मानवजाति की रचना की थी। अर्थात्, उसने अपने दो देहधारणों के कार्य को पुरुष और स्त्री के आधार पर पूरा किया जिन्हें भ्रष्ट नहीं किया गया था। यदि मनुष्य उन वचनों को जो यहोवा के द्वारा आदम और हव्वा से कहे गए थे जिन्हें सर्प के द्वारा छला गया था, परमेश्वर के देहधारण के कार्य पर लागू करता है, तो क्या यीशु को अपनी पत्नी से वैसा ही प्रेम नहीं करना पड़ता जैसे कि उसे करना चाहिए था? क्या परमेश्वर तब भी परमेश्वर ही रहता? यदि ऐसा होता, तो क्या वह अपना कार्य पूरा कर सकता है? यदि देहधारी परमेश्वर का स्त्री बनना गलत है, तो क्या जब परमेश्वर ने स्त्री की रचना की तो यह एक बड़ी गलती नहीं रही होती? यदि मनुष्य अब भी मानता है कि परमेश्वर का स्त्री देहधारण करना गलत है, तो क्या यीशु का देहधारण, जिसने विवाह नहीं किया और इसलिए अपनी पत्नी से प्रेम नहीं कर पाया, ऐसी ही त्रुटी नहीं होती जैसी कि वर्तमान देहधारण की है? चूँकि तुम यहोवा के द्वारा हव्वा को बोले गए वचनों को आज परमेश्वर के देहधारण के सत्य को मापने के लिए उपयोग करते हो, इसलिए तुम्हें प्रभु यीशु, जिसने अनुग्रह के युग में देहधारण किया, के बारे में राय बनाने के लिए यहोवा के द्वारा आदम को बोले गए वचनों का अवश्य उपयोग करना चाहिए। क्या ये दोनों एक ही नहीं हैं? चूँकि तुम प्रभु यीशु के बारे में उस पुरुष के हिसाब से राय बनाते हो जिसे सर्प के द्वारा छला नहीं गया था, तुम आज देहधारण के सत्य के बारे में उस स्त्री के हिसाब से राय नहीं बना सकते हो जिसे सर्प के द्वारा छला गया था। यह अनुचित है! यदि तुम ऐसी राय बनाते हो, तो यह तुम्हारे विवेक के अभाव को साबित करता है। जब यहोवा ने दो बार देहधारण किया, उसके देहधारण का लिंग पुरुष और स्त्री से सम्बंधित था जिसे सर्प के द्वारा छला नहीं गया था। उसने दो बार ऐसे पुरुष और स्त्री के अनुरूप देहधारण किया जिसे सर्प के द्वारा नहीं छला गया था। ऐसा न सोचें कि यीशु का पुरुषत्व वैसा ही था जैसा कि आदम का जिसे सर्प के द्वारा छला गया था। वह उस से पूरी तरह से असम्बंधित है, और वे दो विभिन्न प्रकृति के पुरुष हैं। निश्चय ही ऐसा नहीं हो सकता है कि यीशु का पुरुषत्व यह साबित करता है कि सिर्फ वह ही सारी स्त्रियों का मालिक है किन्तु सभी पुरुषों का नहीं? क्या वह सभी यहूदियों (पुरुषों और स्त्रियों दोनों के सहित) का राजा नहीं है? वह परमेश्वर स्वयं है, न कि सिर्फ स्त्री का मालिक है बल्कि पुरुष का भी मालिक है। वह सभी प्राणियों का प्रभु और सभी प्राणियों का मालिक है। तुम यीशु के पुरुषत्व को स्त्री के मालिक का प्रतीक होना कैसे निर्धारित कर सकते हो? क्या यह ईशनिंदा नहीं है? यीशु एक पुरुष है जिसे भ्रष्ट नहीं किया गया है। वह परमेश्वर है; वह मसीह है; वह प्रभु है। वह आदम की तरह का पुरुष कैसे हो सकता है जो भ्रष्ट हो गया था? यीशु वह देह है जिसे परमेश्वर के अति पवित्र आत्मा ने पहना हुआ है। तुम कैसे कह सकते हो कि वह एक परमेश्वर है जो आदम के पुरुषत्व को धारण किए हुए है? तो क्या परमेश्वर का समस्त कार्य गलत नहीं हो गया होता? क्या यहोवा यीशु के भीतर आदम के पुरुषत्व को समाविष्ट कर सकता था जिसे छला गया था? क्या वर्तमान में देहधारण देहधारी परमेश्वर का दूसरा कार्य नहीं है जो कि यीशु के लिंग से भिन्न परन्तु प्रकृति में यीशु के ही समान है? क्या तुम अब भी यह कहने का साहस करते हो कि देहधारी परमेश्वर स्त्री नहीं हो सकता है क्योंकि यह स्त्री थी जो सबसे पहले सर्प के द्वारा छली गई थी? क्या तुम अब भी यह कहने का साहस करते हो कि स्त्री सबसे अधिक अशुद्ध है और मानवजाति की भ्रष्टता का मूल है, इसलिए परमेश्वर संभवतः एक स्त्री के रूप में देह धारण नहीं कर सकता है? क्या तुम अब भी यह कहने का साहस करते हो कि "स्त्री हमेशा पुरुष की आज्ञापालन करेगी और कभी भी परमेश्वर को अभिव्यक्त या प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है?" अतीत में तुम नहीं समझे; क्या तुम अब भी परमेश्वर के कार्य की, विशेषकर परमेश्वर के देहधारी शरीर की ईशनिंदा कर सकते हो? यदि तुम यह स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हो, तो अच्छा होगा कि तुम अपनी जुबान पर लगाम लगाओ, ऐसा न हो कि तुम्हारी मूर्खता और अज्ञानता प्रकट हो जाए और तुम्हारी कुरूपता उजागर हो जाए। यह मत सोचो कि तुम सब कुछ समझते हो। मैं तुम्हें बता दूँ कि तुमने जो कुछ भी देखा और अनुभव किया है वह यहाँ तक कि मेरी प्रबन्धन योजना के एक हजारवें हिस्से को समझने के लिए भी अपर्याप्त है। तो फिर क्यों तुम इतने अभिमानी हो? तुम्हारी मात्र जरा सी प्रतिभा और अल्पतम ज्ञान यीशु के कार्य में एक पल के लिए भी उपयोग किए जाने के लिए अपर्याप्त है! तुम्हें वास्तव में कितना अनुभव है? तुमने अपने जीवनभर में जो देखा और जो कुछ सुना है और जिसकी तुमने कल्पना की है वह मेरे एक क्षण के कार्य से भी कम है! तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि तुम आलोचनात्मक न बनो और दोष मत ढूँढो। चाहे तुम कितने भी अभिमानी हो, फिर भी तुम चींटी से भी कम एक प्राणी हो! तुम्हारे पेट में जो कुछ भी है वह एक चींटी के पेट में जो है उससे भी कम है! यह मत सोचो कि क्योंकि तुमने बहुत अनुभव कर लिया है और वरिष्ठ हो गए हो, इसलिए तुम बेलगाम घमण्ड के साथ बोल और कार्यकलाप कर सकते हो। क्या तुम्हारे अनुभव और तुम्हारी वरिष्ठता उन वचनों के परिणामस्वरूप नहीं है जो मैंने कहे हैं? क्या तुम यह मानते हो कि वे तुम्हारे परिश्रम और कड़ी मेहनत के द्वारा अर्जित किए गए हैं? आज, तुम मेरे देहधारण को देखते हो, और परिणामस्वरूप तुम्हारी ऐसी समृद्ध धारणाएँ हो जाती हैं, जिनसे अनगिनत अवधारणाएँ आती हैं। यदि मेरे देहधारण के कारण नहीं है, तो फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी प्रतिभाएँ कितनी असाधारण हैं, तुम्हारे पास इतनी धारणाएँ नहीं होती। क्या तुम्हारी अवधारणाएँ इससे नहीं उभरी हैं? यदि यीशु पहली बार देहधारण नहीं करते, तो तुम देहधारण के बारे में क्या जानते? क्या यह पहले देहधारण के तुम्हारे ज्ञान के कारण नहीं है कि तुम ढिठाई से दूसरे देहधारण के बारे में राय बनाते हो? तुम्हें एक आज्ञाकारी अनुयायी बनने के बजाय क्यों इसकी जाँच करनी चाहिए? तुमने इस धारा में प्रवेश कर लिया है देहधारी परमेश्वर के सामने आ गए हो। तुम्हें अध्ययन करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? तुम्हारा अपने स्वयं के परिवार के इतिहास का अध्ययन करना ठीक है, परन्तु यदि तुम परमेश्वर के "परिवार के इतिहास" का अध्ययन करते हो, तो आज का परमेश्वर तुम्हें यह करने की अनुमति कैसे दे सकता है? क्या तुम अंधे नहीं हो? क्या तुम अपने ऊपर अवमानना को नहीं लाते हो?
यदि अंत के दिनों में इस चरण के पूरक के बिना केवल यीशु का कार्य किया गया होता, तो मनुष्य ने हमेशा के लिए यह अवधारणा बना ली होती कि केवल यीशु ही परमेश्वर का पुत्र है, अर्थात्, परमेश्वर का सिर्फ एक ही पुत्र है, और यह कि उसके बाद कोई भी जो किसी दूसरे नाम से आता है वह परमेश्वर का एकमात्र पुत्र नहीं होगा, परमेश्वर स्वयं तो बिल्कुल भी नहीं होगा। मनुष्य की अवधारणा यह है कि वह जो एक पापबलि के रूप में सेवा करता है या जो परमेश्वर के लिए सामर्थ्य को ग्रहण करता है और समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाता है, वही परमेश्वर का एकमात्र पुत्र है। कुछ ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि जब तक आने वाला कोई पुरुष है, उसे ही परमेश्वर का एकमात्र पुत्र और परमेश्वर का प्रतिनिधि समझा जा सकता है। यहाँ तक कि कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं यीशु यहोवा का पुत्र है, उसका एकमात्र पुत्र। क्या यह मनुष्य की एक गंभीर अवधारणा नहीं है? यदि कार्य का यह चरण अंत के युग में न किया गया होता, तो जब परमेश्वर की बात आती तो समस्त मानवजाति एक परछाई में ढक गई होती। यदि ऐसा होता, तो मनुष्य अपने बारे में एक स्त्री की तुलना में एक उच्च हैसियत वाला होना सोचता, और स्त्रियाँ कभी भी अपना सिर ऊँचा उठाने में सक्षम नहीं होतीं। ऐसे समय में, किसी भी स्त्री ने उद्धार प्राप्त न किया होता। लोग हमेशा यही माना करते हैं कि परमेश्वर एक पुरुष है, और वह हमेशा स्त्री से घृणा करता है और स्त्री को उद्धार प्रदान नहीं करेगा। यदि ऐसा होता, तो क्या यह सत्य नहीं है कि सभी स्त्रियों को जो यहोवा के द्वारा बनाई गई हैं और भ्रष्ट भी हैं कभी भी बचाए जाने का अवसर नहीं मिला होता? तो फिर क्या यहोवा के लिए स्त्री को बनाना, अर्थात्, हव्वा का बनाया जाना, व्यर्थ नहीं होता? और क्या स्त्री अनंतकाल के लिए नष्ट नहीं हो जाती? इसलिए, अंत के दिनों में कार्य का यह चरण समस्त मानवजाति को बचाने के लिए है, सिर्फ स्त्री को नहीं बल्कि समस्त मानवजाति को बचाने के लिए। यह कार्य सारी मानवजाति के लिये है न कि सिर्फ महिला के लिये। यदि कोई अन्यथा सोचता है, तो फिर वह सबसे अधिक मूर्ख है!
वर्तमान में किए गए कार्य ने अनुग्रह के युग के कार्य को आगे बढ़ाया है; अर्थात्, समस्त छह हजार सालों की प्रबन्धन योजना में कार्य आगे बढ़ाया है। यद्यपि अनुग्रह का युग समाप्त हो गया है, किन्तु परमेश्वर के कार्य ने आगे प्रगति की है। मैं क्यों बार-बार कहता हूँ कि कार्य का यह चरण अनुग्रह के युग और व्यवस्था के युग पर आधारित है? इसका अर्थ है कि आज के दिन का कार्य अनुग्रह के युग में किए गए कार्य की निरंतरता और व्यवस्था के युग में किए कार्य का उत्थान है। तीनों चरण आपस में घनिष्ठता से सम्बंधित हैं और एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। मैं यह भी क्यों कहता हूँ कि कार्य का यह चरण यीशु के द्वारा किए गए कार्य पर आधारित है? यदि यह चरण यीशु द्वारा किए गए कार्य पर आधारित न होता, तो फिर इस चरण में क्रूसीकरण, और पहले किए गए छुटकारे के कार्य को अब भी पूरा किए जाने की आवश्यकता होती। यह अर्थहीन होता। इसलिए, ऐसा नही है कि कार्य पूरी तरह समाप्त हो चुका है, बल्कि यह कि युग आगे बढ़ गया है, और यहाँ तक कि कार्य पहले से भी अधिक ऊँचा हो गया है। यह कहा जा सकता है कि कार्य का यह चरण व्यवस्था के युग की नींव और यीशु के कार्य की चट्टान पर निर्मित है। कार्य चरण-दर-चरण निर्मित किया जाता है, और यह चरण एक नई शुरुआत नहीं है। सिर्फ तीनों चरणों के कार्य के संयोजन को ही छह हजार सालों की प्रबन्धन योजना समझा जा सकता है। यह चरण अनुग्रह के युग के कार्य की नींव पर किया जाता है। यदि कार्य के ये दो चरण असम्बंधित हैं, तो इस चरण में सलीब पर चढ़ना क्यों नहीं है? मैं मनुष्य के पापों को क्यों नहीं उठाता हूँ? मैं पवित्र आत्मा द्वारा गर्भाधान के माध्यम से नहीं आता हूँ न ही मैं मनुष्य के पापों को उठाने के लिए सलीब पर चढ़ाया जाऊँगा। बल्कि, मैं यहाँ मनुष्य को प्रत्यक्ष रूप से ताड़ना देने के लिए हूँ। यदि मैंने सलीब पर चढ़ाए जाने के बाद मनुष्य को ताड़ना नहीं दी, और अब मैं पवित्र आत्मा द्वारा गर्भधारण के माध्यम से नहीं आता, तो मैं मनुष्य को ताड़ना देने के योग्य नहीं होता। यह ठीक-ठीक इसलिए है क्योंकि मैं यीशु के साथ एक ही हूँ जो प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य को ताड़ना देने और उसका न्याय करने के लिए आता हूँ। कार्य का यह चरण पूरी तरह से पिछले चरण पर ही निर्मित है। यही कारण है कि सिर्फ ऐसा कार्य ही चरण-दर-चरण मनुष्य को उद्धार तक ला सकता है। यीशु और मैं एक ही पवित्रात्मा से आते हैं। यद्यपि हमारी देहों का कोई सम्बंध नहीं है, किन्तु हमारी पवित्रात्माएँ एक ही हैं; यद्यपि हम जो करते हैं और जिस कार्य को हम वहन करते हैं वे एक ही नहीं हैं, तब भी सार रूप में हम सदृश्य हैं; हमारी देहें भिन्न रूप धारण करती हैं, और यह ऐसा युग में परिवर्तन और हमारे कार्य की आवश्यकता के कारण है; हमारी सेवकाईयाँ सदृश्य नहीं हैं, इसलिए जो कार्य हम लाते और जिस स्वभाव को हम मनुष्य पर प्रकट करते हैं वे भी भिन्न हैं। यही कारण है कि आज मनुष्य जो देखता और प्राप्त करता है वह अतीत के असमान है; ऐसा युग में बदलाव के कारण है। यद्यपि उनकी देहों के लिंग और रूप भिन्न-भिन्न हैं, और यद्यपि वे दोनों एक ही परिवार में नहीं जन्मे थे, उसी समयावधि में तो बिल्कुल नहीं, किन्तु उनकी पवित्रात्माएँ एक हैं। यद्यपि उनकी देहें किसी भी तरीके से रक्त या शारीरिक सम्बंध साझा नहीं करती हैं, किन्तु इससे यह इनकार नहीं होता है कि वे भिन्न-भिन्न समयावधियों में परमेश्वर के देहधारी शरीर हैं। यह एक निर्विवाद सत्य है कि वे परमेश्वर के देहधारी शरीर हैं, यद्यपि वे एक ही व्यक्ति के वंशज या सामान्य मानव भाषा (एक पुरुष था जिसने यहूदियों की भाषा बोली और दूसरी स्त्री है जो सिर्फ चीनी भाषा बोलती है) को साझा नहीं करते हैं। यह इन्हीं कारणों से है कि उन्हें जो कार्य करना चाहिए उसे वे भिन्न-भिन्न देशों में, और साथ ही भिन्न-भिन्न समयावधियों में करते हैं। इस तथ्य के बावजूद भी वे एक ही पवित्रात्मा हैं, एक ही सार को धारण किए हुए हैं, उनकी देहों के बाहरी आवरणों के बीच बिल्कुल भी पूर्ण समानताएँ नहीं है। वे मात्र एक ही मानजाति को साझा करते हैं, परन्तु उनकी देहों का प्रकटन और जन्म सदृश्य नहीं हैं। इनका उनके अपने-अपने कार्य या मनुष्य के पास उनके बारे में जो ज्ञान है उस पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि, आखिरकार, वे एक ही पवित्रात्मा हैं और कोई भी उन्हें अलग नहीं कर सकता है। यद्यपि वे रक्त द्वारा सम्बंधित नहीं हैं, किन्तु उनका सम्पूर्ण अस्तित्व उनकी पवित्रात्माओं के द्वारा निर्देशित होता है, जिसकी वजह से, उनकी देह एक ही का वंशज साझा नहीं करने के साथ, वे भिन्न-भिन्न समयावधियों में भिन्न-भिन्न कार्य का उत्तरदायित्व लेते हैं। उसी तरह, यहोवा का पवित्रात्मा यीशु के पवित्रात्मा का पिता नहीं है, वैसे ही जैसे कि यीशु का पवित्रात्मा यहोवा के पवित्रात्मा का पुत्र नहीं है। वे एक ही आत्मा हैं। ठीक वैसे ही जैसे आज का देहधारी परमेश्वर और यीशु हैं। यद्यपि वे रक्त के द्वारा सम्बंधित नहीं हैं; वे एक ही हैं; ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी पवित्रात्माएँ एक ही हैं। वह दया और करुणा का, और साथ ही धर्मी न्याय का और मनुष्य की ताड़ना का, और मनुष्य पर श्राप लाने का कार्य कर सकता है। अंत में, वह संसार को नष्ट करने और दुष्टों को सज़ा देने का कार्य कर सकता है। क्या वह यह सब स्वयं नहीं करता है? क्या यह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता नहीं है? वह मनुष्य के लिए व्यवस्था निर्धारित करना और आज्ञाएँ जारी करना दोनों कर सकता है, और आरंभिक इस्राएलियों को पृथ्वी पर अपने जीवन जीने के लिए अगुवाई भी कर सका था और मंदिर और वेदियाँ बनाने, समस्त इस्राएलियों पर शासन करने के लिए उनका मार्ग दर्शन कर सका था। अपने अधिकार के कारण, वह पृथ्वी पर उनके साथ दो हजार वर्षों तक रहा। इस्राएलियों ने विद्रोह करने का साहस नहीं किया; सब यहोवा का भय मानते और आज्ञाओं का पालन करते थे। यह सब कार्य उसके अधिकार और उसकी सर्वशक्तिमत्ता की वजह से ही किया जाता था। अनुग्रह के युग में, यीशु संपूर्ण पतित मानवजाति (सिर्फ इस्राएलियों को नहीं) को छुटकारा दिलाने के लिए आया। उसने मनुष्य के प्रति दया और करुणा दिखायी। मनुष्य ने अनुग्रह के युग में जिस यीशु को देखा वह करुणा से भरा हुआ और हमेशा ही प्रेममय था, क्योंकि वह मनुष्य को पाप से मुक्त कराने के लिए आया था। जब तक उसके सूली पर चढ़ने ने मानव जाति को वास्तव में पाप से मुक्त नहीं कर दिया तब तक वह मनुष्य के पाप माफ कर सकता था। उस समय के दौरान, परमेश्वर मनुष्य के सामने दया और करुणा के साथ प्रकट हुआ; अर्थात्, वह मनुष्य के लिए एक पापबलि बना और मनुष्य के पापों के लिए सलीब पर चढ़ाया गया ताकि उन्हें हमेशा के लिए माफ कर दिया जाए। वह दयालु, करुणामय, सहनीय और प्रेममय था। और वे सब जिन्होंने अनुग्रह के युग में यीशु का अनुसरण किया था उन्होंने भी सारी चीजों में सहनीय और प्रेममय बनने की इच्छा की। उन्होंने सभी कष्ट सहे, और यहाँ तक कि यदि पीटे गए, शाप दिए गए या पत्थर मारे गए तो भी लड़ाई नहीं की। परन्तु इस अंतिम चरण में ऐसा नहीं है, बहुत कुछ जैसा कि यीशु का और यहोवा का कार्य सदृश्य नहीं था यद्यपि उनकी पवित्रात्माएँ एक ही थीं। यहोवा का कार्य युग का अंत करना नहीं था बल्कि इसकी अगुवाई करना और पृथ्वी पर मानवजाति का सूत्रपात करना था। हालाँकि, अब कार्य अन्य जाति के राष्ट्रों में गहराई से भ्रष्ट मनुष्यों को जीतना और न केवल चीन के परिवार की बल्कि समस्त विश्व की अगुआई करना है। तुम इस कार्य को सिर्फ चीन में ही होते हुए देखते हो, परन्तु वास्तव में इसने पहले से ही विदेश में फैलना शुरू कर दिया है। ऐसा क्यों है कि विदेशी बार-बार सच्चे मार्ग को खोजते हैं? यह इसलिए है क्योंकि पवित्रात्मा ने अपना कार्य पहले से ही शुरू कर दिया है, और ये वचन अब समस्त विश्व के लोगों की ओर निर्देशित हैं। आधा कार्य पहले से ही हो चुका है। विश्व के सृजन के बाद से परमेश्वर के आत्मा ने इतना महान कार्य किया है; उसने विभिन्न युगों के दौरान, और भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न कार्य किए हैं। प्रत्येक युग के लोग उसके भिन्न स्वभाव को देखते हैं, जो कि उस भिन्न कार्य के माध्यम से प्राकृतिक रूप से प्रकट होता है जिसे वह करता है। वह दया और करुणा से भरा हुआ परमेश्वर है; वह मनुष्य और मनुष्य के चरवाहे के लिए पापबलि है, फिर भी वह मनुष्य पर न्याय, ताड़ना, और श्राप भी है। वह मनुष्य की पृथ्वी पर दो हजार साल तक रहने में अगुआई कर सका और भ्रष्ट मानवजाति को पाप से छुटकारा दिला सका था। और आज, वह उस मानवजाति को जीतने में भी सक्षम है जो उसे नहीं जानती है और उसे अपने प्रभुत्व के अधीन करने में सक्षम है, ताकि सभी पूरी तरह से उसके प्रति समर्पण कर दें। अंत में, वह समस्त विश्व में मनुष्यों के अंदर जो कुछ भी अशुद्ध और अधर्मी है उसे जला कर दूर कर देगा, ताकि उन्हें यह दिखाए कि वह न सिर्फ दया, करुणा, बुद्धि, आश्चर्य और पवित्रता का परमेश्वर है, बल्कि इससे भी अधिक, वह एक ऐसा परमेश्वर है जो मनुष्य का न्याय करता है। मानवजाति के बीच बुरों के लिए, वह प्रज्वलन, न्याय करने वाला और दण्ड है; जिन्हें पूर्ण किया जाना है उनके लिए, वह क्लेश, शुद्धिकरण, और परीक्षण, और साथ ही आराम, संपोषण, वचनों की आपूर्ति, व्यवहार करने वाला और काँट-छाँट है। और जिन्हें अलग कर दिया जाता है उनके लिए, वह सजा, और साथ ही प्रतिशोध भी है। मुझे बताएँ, क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है? वह सभी कार्य कर सकता है, न कि सिर्फ सलीब पर चढ़ने, जैसी कि तुमने कल्पना की है। तुम परमेश्वर के बारे में बहुत नीचा सोचते हो! क्या तुम मानते हो कि उसके क्रूसीकरण के माध्यम से समस्त मानवजाति के छुटकारे के बाद सब कुछ समाप्त हो जाएगा? और यह कि, इसके बाद, तुम स्वर्ग में उसका अनुसरण करोगे फिर जीवन के वृक्ष से फल खाओगे और जीवन की नदी से जल पीओगे?... क्या यह इतना आसान हो सकता है? मुझे बताओ, तुमने क्या निष्पादित किया है? क्या तुममें यीशु का जीवन है? तुम अवश्य ही उसके द्वारा छुटकारा दिलाए गए थे, परन्तु सलीब पर चढ़ना स्वयं यीशु का कार्य था। एक मनुष्य के रूप में तुमने कौन सा कर्तव्य निभाया है? तुममें सिर्फ बाहरी धार्मिकता है परन्तु उसके मार्ग को नहीं समझते हो। क्या ऐसे ही तुम उसे व्यक्त करते हो? यदि तुमने परमेश्वर का जीवन प्राप्त नहीं किया है या उसके धर्मी स्वभाव की सम्पूर्णता को नहीं देखा है, तो तुम ऐसा व्यक्ति होने का दावा नहीं कर सकते हो जिसमें जीवन होता है, और तुम स्वर्ग के राज्य के द्वार से गुजरने के योग्य नहीं हो।
परमेश्वर न केवल एक आत्मा है बल्कि वह देहधारण भी कर सकता है; इसके अलावा, वह महिमा का एक शरीर है। यीशु को यद्यपि तुम लोगों ने नहीं देखा है उसकी गवाही इस्राएलियों के द्वारा, अर्थात्, उस समय के यहूदियों द्वारा दी गई थी। पहले वह एक देह था, परन्तु उसे सलीब पर चढ़ाए जाने के बाद, वह महिमावान शरीर बन गया। वह व्यापक पवित्रात्मा है और सभी स्थानों में कार्य कर सकता है। वह यहोवा, यीशु और मसीहा हो सकता है; अंत में, वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर बन सकता है। वह धार्मिकता, न्याय, और ताड़ना है, श्राप और क्रोध है, परन्तु दया और करुणा भी है। उसके द्वारा किया गया समस्त कार्य उसका प्रतिनिधित्व कर सकता है। तुम क्या कहते हो कि वह किस प्रकार का परमेश्वर है? तुम मात्र उसकी व्याख्या करने में सक्षम नहीं होगे और केवल कह सकते हो कि, "मैं नहीं समझा सकता हूँ कि वह किस प्रकार का परमेश्वर है?" यह निष्कर्ष मत निकालो कि परमेश्वर हमेशा के लिए दया और करुणा का ही परमेश्वर है, मात्र इसलिए क्योंकि परमेश्वर ने एक चरण में छुटकारे का कार्य किया। क्या तुम निश्चित हो सकते हो कि वह केवल ऐसा ही परमेश्वर है? यदि वह एक दयालु और प्रेममय परमेश्वर है, तो क्यों वह अंत के दिनों में युग का अंत करेगा? क्यों वह बहुत सी विपत्तियाँ गिराएगा? यदि यह ऐसा है जैसा कि तुम सोचते हो, कि वह अंत तक, यहाँ तक कि अंतिम युग तक, मनुष्य के प्रति दयालु और प्रेममय रहेगा, तो फिर वह स्वर्ग से विपत्तियाँ क्यों गिराएगा? यदि वह मनुष्य के साथ स्वयं के जैसे और अपने एकमात्र पुत्र के जैसे प्रेम करता है, तो वह स्वर्ग से दैवी कोप और ओले क्यों गिराएगा? वह मनुष्य को अकाल और महामारी से पीड़ित क्यों होने देता है? वह मनुष्य को इन विपत्तियों से पीड़ित क्यो होने देता है? तुम लोगों में से कोई भी यह कहने का साहस नहीं रखता कि वह किस प्रकार का परमेश्वर है, कोई भी नहीं समझा सकता है। क्या तुम निश्चित हो सकते हो कि वह पवित्रात्मा है? क्या तुम यह कहने का साहस रखते हो कि वह यीशु की देह है? और क्या तुम यह कहने करने का साहस रखते हो कि वह एक ऐसा परमेश्वर है जिसे मनुष्य के लिए हमेशा के लिए सलीब पर चढ़ाया जाएगा?
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