13. सच्चाई को समझने और सिद्धांत को समझने में क्या अंतर है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
परमेश्वर के वचन के वास्तविक अर्थ की वास्तविक समझ पाना कोई आसान बात नहीं है। यह मत सोचो कि तुम परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक अर्थ की व्याख्या सकते हो, और हर कोई कह देगा कि तुम्हारी व्याख्या अच्छी है और तुम्हारी प्रशंसा करेगा, तो इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर के वचन समझते हो। यह परमेश्वर के वचन को समझने के समान नहीं है। यदि तुमने परमेश्वर के वचन के भीतर से कुछ प्रकाश प्राप्त किया है और तुमने परमेश्वर के वचन का वास्तविक अर्थ जान लिया है, यदि तुम बता पाते हो कि परमेश्वर के वचन का क्या महत्व है और इसका अंतिम प्रभाव क्या होता है, केवल जब यह सब स्पष्ट हो जाता है, तब ही तुम परमेश्वर के वचनों की कुछ समझ प्राप्त कर पाते हो। तो, परमेश्वर के वचन समझना इतना आसान नहीं है। केवल इसलिए कि तुम परमेश्वर के वचन का एक सुंदर विवरण दे सकते हो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम इसे समझते हो। तुम परमेश्वर के वचन की व्याख्या जैसे भी करो, यह तब भी मनुष्य की कल्पना और सोच का तरीका है और बेकार है।
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें" से
आपको लगता है कि सत्य के ज्ञान में निपुणता प्राप्त करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, और ऐसा ही परमेश्वर के वचनों के कई अंशों को कंठस्थ करना है। लेकिन लोग परमेश्वर के वचन को कैसे समझते हैं, यह बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है। आपको लगता है कि लोगों के लिए परमेश्वर के कई वचनों को याद रख पाना, बहुत सारे सिद्धांतों को बोल पाना और परमेश्वर के कई वचनों के भीतर कई सूत्रों की खोज करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए, आप हमेशा इन चीजों को व्यवस्थित करना चाहते हैं ताकि हर कोई एक से भजन पत्र से गा रहा हो और एक सी बात कह रहा हो, ताकि हर कोई वही सिद्धांत बोलता हो, हर किसी के पास एक सा ज्ञान हो और हर कोई एक से नियम रखता हो - यह आपका उद्देश्य है। आप ऐसा करते हैं मानो कि लोगों को बेहतर समझाते हैं, जबकि इसके विपरीत आपको कोई अंदाज़ा नहीं है कि ऐसा करके आप लोगों को उन नियमों के बीच ला रहे हैं जो परमेश्वर के वचनों के सत्य के बाहर हैं। लोगों को वास्तविक समझ प्राप्त करवाने के लिए, आपको वास्तविकता के साथ जुड़ना चाहिए, कार्य के साथ जुड़ना चाहिए, और लोगों को परमेश्वर के सामने लाना चाहिए। केवल इसी तरह से लोग सत्य में निपुणता प्राप्त कर सकते हैं। यदि आपके प्रयास केवल सूत्रों और नियमों को लिखित शब्दों पर लागू करने की ओर निर्देशित हैं, तो आप सत्य की समझ तक नहीं पहुँच पाएँगे, दूसरों को वास्तविकता की ओर नहीं ले जा पाएँगे, और दूसरों को अधिक परिवर्तन अनुभव करने और उनके स्वयं के बारे में अधिक समझने की अनुमति देने में बहुत कम सक्षम होंगे।
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "सत्य के बिना परमेश्वर को अपमानित करना आसान है" से
यदि तुम सबों ने बहुतायत से परमेश्वर का वचन पढ़ा है किन्तु सिर्फ पाठ का अर्थ समझते हो और तुम लोगों के पास अपने अपने व्यावहारिक अनुभवों के जरिए परमेश्वर का अपने व्यावहारिक अनुभव से प्राप्त प्राथमिक ज्ञान नहीं है, तो तुम परमेश्वर के वचन को नहीं जान पाओगे। जहाँ तक यह बात तुम से सम्बंधित है, परमेश्वर का वचन तुम्हारे लिए जीवन नहीं है, किन्तु बस निर्जीव अक्षर हैं। और यदि तुम केवल निर्जीव अक्षरों को थामें रहोगे, तो तुम परमेश्वर के वचन का सार समझ नहीं सकते हो, न ही तुम उसकी इच्छा को समझोगे। जब तुम अपने वास्तविक अनुभवों में उसके वचन का अनुभव करते हो केवल तभी परमेश्वर के वचन का आध्यात्मिक अर्थ स्वयं को तुम्हारे लिए खोल देगा, और यह केवल अनुभव में होता है कि तुम बहुत सारे सत्य के आध्यात्मिक अर्थ को समझ सकते हो। और केवल अनुभव के जरिए तुम परमेश्वर के वचन के भेदों का खुलासा कर सकते हो। यदि तुम इसे अभ्यास में न लाओ, तो भले ही परमेश्वर के वचन कितने स्पष्ट हों, एकमात्र चीज़ जो तुम समझते हो वह है खोखले अक्षर एवं सिद्धांत, जो तुम्हारे लिए धार्मिक रीति विधियाँ बन चुकी हैं। क्या फरीसियों ने भी ऐसा ही नहीं किया था? यदि तुम लोग परमेश्वर के वचन का अभ्यास और उसका अनुभव करते हो, तो यह तुम लोगों के लिए व्यावहारिक बन जाता है; यदि तुम इसका अभ्यास करने की कोशिश नहीं करते हो, तो परमेश्वर का वचन तुम्हारे लिए तीसरे स्वर्ग की पौराणिक गाथा से बस कुछ अधिक होता है। …
…जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो तभी परमेश्वर का वचन सही ढंग से समझ आता है, और तुझे यह समझना होगा कि "केवल सत्य का अभ्यास करने के द्वारा ही इसे समझा जा सकता है"। आज, परमेश्वर के वचन को पढ़ने के बाद, तू बस यह कह सकता है कि तू परमेश्वर के वचन को जानता है, किन्तु तू यह नहीं कह सकता है कि तू इसे समझता है। कुछ लोग कहते हैं कि सत्य के अभ्यास का एकमात्र तरीका है कि पहले उसे समझा जाए, किन्तु यह केवल अर्ध सत्य है और पूरी तरह सटीक नहीं है। इससे पहले कि तुझे सत्य का ज्ञान हो, तूने उस सत्य का अनुभव नहीं किया है। यह महसूस करना कि जो तू सुनता है उसे तू समझता है। यह सही रीति से समझने के समान नहीं है। अपने आपको उस सत्य से सुसज्जित करना जैसा वह पाठ में दिखता है। यह उसमें निहित सत्य को समझने के समान नहीं है। सिर्फ इसलिए क्योंकि तुम्हारे पास सत्य का उथला ज्ञान है। इसका मतलब यह नहीं है कि तू वास्तव में इसे समझता है या पहचानता है; सत्य का सच्चा अर्थ उसका अनुभव करने से आता है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि जब तू सत्य का अभ्यास करता है केवल तभी तू उसे समझ सकता है, और जब तू सत्य का अभ्यास करता है केवल तभी तू उसके छिपे हुए भागों को समझ सकता है। गहराई से उसका अनुभव करना ही सत्य के अतिरिक्त अर्थों को समझने, और उसके सार को समझने का एकमात्र तरीका है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "सत्य को समझ लेने के बाद उसका अभ्यास करो" से
अनुभव प्राप्त करने के पश्चात्, तब आप उस ज्ञान के विषय में बातचीत कर सकते हैं जो आपके पास उन चीज़ों के विषय में होनी चाहिए जिनका आपने अनुभव किया है। इसके साथ ही, आप ऐसे लोगों के बीच अन्तर कर सकते हैं जिनका ज्ञान वास्तविक एवं व्यावहारिक है और ऐसे लोग जिनका ज्ञान सिद्धान्त पर आधारित होता है और यह बेकार है। अतः, चाहे वह ज्ञान जिसकी आप चर्चा कर रहे हैं वह सत्य के साथ मेल खाता है या नहीं यह वृहद रूप से इस बात पर आधरित होता है कि आपके पास व्यावहारिक अनुभव है या नहीं। जहाँ आपके अनुभवों में सच्चाई है, वहाँ आपका ज्ञान व्यावहारिक एवं मूल्यवान होगा। आपके अनुभव के माध्यम से, आप परख एवं अंतर्दृष्टि भी प्राप्त कर सकते हैं, अपने ज्ञान को और गहरा कर सकते हैं, और अपने आपको को व्यवस्थित करने में आप अपनी बुद्धि एवं सूझ-बूझ को बढ़ा सकते हैं। ऐसा ज्ञान जिसे लोगों के द्वारा बोला जाता है जो सत्य को धारण नहीं करता है वह सिद्धान्त है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह कितना ऊँचा है। जब देह के विषयों की बात आती है तो हो सकता है कि इस प्रकार का व्यक्ति बहुत ही ज्ञानवान हो परन्तु जब आत्मिक विषयों की बात आती है तो वह स्पष्ट अन्तर नहीं कर सकता है। यह इसलिए है क्योंकि ऐसे लोगों के पास आत्मिक मामलों में बिलकुल भी अनुभव नहीं होता है। ये ऐसे लोग हैं जिन्हें आत्मिक मामलों में प्रकाशित नहीं किया गया है और वे आत्मा को नहीं समझते हैं। इसकी परवाह किया बगैर कि आप ज्ञान के किस पहलु के विषय में बातचीत करते हैं, जब तक यह आपका अस्तित्व है, तो यह आपका व्यक्तिगत अनुभव है, और आपका वास्तविक ज्ञान है। ऐसे लोगों के विषय में क्या कहें जो केवल सिद्धान्त की ही बात करते हैं, अर्थात्, ऐसे लोग जो सत्य या वास्तविकता को धारण नहीं करते हैं, ऐसे लोग जो इसके विषय में बात करते हैं उन्हें यह भी कहा जा सकता है कि वे अपने अस्तित्व में ही रहें, क्योंकि उनका सिद्धान्त गहरे चिंतन से सिर्फ बाहर आया है और यह उनके मन का परिणाम है जो गहराई से मनन करता है, परन्तु यह केवल सिद्धान्त ही है, यह कल्पना से अधिक और कुछ भी नहीं है!
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से
तुम सिद्धांतों को बार-बार बोलकर सत्य प्राप्त नहीं कर सकते हो; उसका क्या उपयोग यदि तुम केवल शाब्दिक बातों को संप्रेषित कर रहे हो? तुम्हें परमेश्वर के वचन का अर्थ समझना चाहिए, इसका आधार और अभीष्ट प्रभाव समझना चाहिए। परमेश्वर के वचन में सत्य है, अर्थ है, प्रकाश है। उसके वचन के भीतर कई चीज़ें हैं; यह उसके वचनों को दोहराने जैसी साधारण बात नहीं है। मैं एक सरल उदाहरण देता हूँ। परमेश्वर कहते हैं, "तुम्हें ईमानदार होना चाहिए। धोखेबाज़ मत बनो।" वास्तव में इस पंक्ति का क्या मतलब है? कुछ कहते हैं, "क्या यह केवल तुम्हें एक ईमानदार इंसान बनने और धोखेबाज़ न बनने के लिए नहीं कह रहा है?" अगर कोई पूछता है, "इसका क्या मतलब है?" वह व्यक्ति जारी रहेगा, "इसका अर्थ है कि एक ईमानदार इंसान बनो और धोखेबाज़ मत बनो। केवल यही दो बातें हैं।" "कोई व्यक्ति एक ईमानदार इंसान कैसे बन सकता है? एक ईमानदार व्यक्ति कौन होता है? ईमानदार व्यक्ति की मुख्य अभिव्यक्तियाँ क्या हैं?" "एक ईमानदार व्यक्ति वह व्यक्ति होता है जो ईमानदारी से और शुद्ध रूप से बोलता है और झूठ नहीं बोलता है।" "धोखेबाज़ कौन होता है?" "एक धोखेबाज़ व्यक्ति वह होता है जो गोलमोल बात करता है। कोई व्यक्ति जो गोलमोल बात नहीं करता और जो निस्वार्थ सत्य बोलता है वह एक ईमानदार व्यक्ति होता है।" चाहे तुम कितना भी पूछ लो, तुम्हें केवल उससे इतना ही उत्तर प्राप्त होगा; मनुष्य की सोच बहुत सरल है। ईमानदार व्यक्ति के बारे में परमेश्वर का वचन क्या कहता है? एक ईमानदार व्यक्ति के बारे में पहली बात यह है कि वह दूसरों के बारे में संदेहास्पद नहीं रहता। परमेश्वर का इससे क्या मतलब है? परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है? उस पर विचार करो और इसके माध्यम से सोचो; लोगों को सीधे नहीं पता चलता। दूसरा, एक ईमानदार व्यक्ति सत्य को स्वीकार कर सकता है। परमेश्वर का वचन कहता है कि एक ईमानदार व्यक्ति मुख्यतः इन दो शर्तों को पूरा करता है। परमेश्वर के वचन में तुम समझ सकते हो कि एक ईमानदार व्यक्ति का आंतरिक अर्थ क्या है, वास्तव में यह किस बारे में बात कर रहा है, एक ईमानदार व्यक्ति की सटीक परिभाषा क्या है, और परिभाषा को सही ढंग से निकाल सकते हो; परमेश्वर के वचन से तुम पता लगा सकते हो कि एक ईमानदार व्यक्ति कौन-से अन्य व्यवहार दर्शाता है, किस प्रकार का व्यक्ति धोखेबाज़ है, किस तरह का व्यक्ति ईमानदार है, और तुम एक ईमानदार व्यक्ति को इन व्यवहारों के परिप्रेक्ष्य से फिर से देखते हो। तब तुम समझोगे कि ईमानदार लोग कैसे होते हैं और धोखेबाज़ लोग कैसे होते हैं, और कैसे धोखेबाज़ परमेश्वर के वचन, परमेश्वर और दूसरे लोगों के साथ पेश आते हैं। इस तरह से तुम परमेश्वर के वचनों की सच्ची समझ प्राप्त कर पाते हो और समझ पाते हो कि परमेश्वर के वचनों और एक ईमानदार और धोखेबाज़ व्यक्ति के बीच का अंतर कितना बड़ा है। जब परमेश्वर के वचन को भीतर से देखा जाता है, तो इस बारे में सत्य के और अधिक विवरण मिलते हैं कि "तुम्हें ईमानदार होना चाहिए। धोखेबाज़ मत बनो।" जब तुम सचमुच परमेश्वर के वचनों का अर्थ समझते हो, तो तुम जानते हो कि एक ईमानदार व्यक्ति क्या है और धोखेबाज़ व्यक्ति क्या है; और जब तुम इस पर चलते हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से यह पता चलता है कि एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में कैसे व्यवहार किया जाए, और तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति बनने का मार्ग मिल जाएगा, जो निश्चित रूप से परमेश्वर के मानकों को पूरा करता हो। क्या तुम्हारे पास इस स्तर का महारत है? यदि तुम वास्तव में इन वचनों को समझते हो और उन पर चलते हो, तो तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हो। यदि तुम इन वचनों को समझ नहीं पाते हो, तो तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं बन सकते, और तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति बिल्कुल भी हासिल नहीं होगी।
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें" से
Source From : सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
परमेश्वर के वचन के वास्तविक अर्थ की वास्तविक समझ पाना कोई आसान बात नहीं है। यह मत सोचो कि तुम परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक अर्थ की व्याख्या सकते हो, और हर कोई कह देगा कि तुम्हारी व्याख्या अच्छी है और तुम्हारी प्रशंसा करेगा, तो इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर के वचन समझते हो। यह परमेश्वर के वचन को समझने के समान नहीं है। यदि तुमने परमेश्वर के वचन के भीतर से कुछ प्रकाश प्राप्त किया है और तुमने परमेश्वर के वचन का वास्तविक अर्थ जान लिया है, यदि तुम बता पाते हो कि परमेश्वर के वचन का क्या महत्व है और इसका अंतिम प्रभाव क्या होता है, केवल जब यह सब स्पष्ट हो जाता है, तब ही तुम परमेश्वर के वचनों की कुछ समझ प्राप्त कर पाते हो। तो, परमेश्वर के वचन समझना इतना आसान नहीं है। केवल इसलिए कि तुम परमेश्वर के वचन का एक सुंदर विवरण दे सकते हो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम इसे समझते हो। तुम परमेश्वर के वचन की व्याख्या जैसे भी करो, यह तब भी मनुष्य की कल्पना और सोच का तरीका है और बेकार है।
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें" से
आपको लगता है कि सत्य के ज्ञान में निपुणता प्राप्त करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, और ऐसा ही परमेश्वर के वचनों के कई अंशों को कंठस्थ करना है। लेकिन लोग परमेश्वर के वचन को कैसे समझते हैं, यह बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है। आपको लगता है कि लोगों के लिए परमेश्वर के कई वचनों को याद रख पाना, बहुत सारे सिद्धांतों को बोल पाना और परमेश्वर के कई वचनों के भीतर कई सूत्रों की खोज करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए, आप हमेशा इन चीजों को व्यवस्थित करना चाहते हैं ताकि हर कोई एक से भजन पत्र से गा रहा हो और एक सी बात कह रहा हो, ताकि हर कोई वही सिद्धांत बोलता हो, हर किसी के पास एक सा ज्ञान हो और हर कोई एक से नियम रखता हो - यह आपका उद्देश्य है। आप ऐसा करते हैं मानो कि लोगों को बेहतर समझाते हैं, जबकि इसके विपरीत आपको कोई अंदाज़ा नहीं है कि ऐसा करके आप लोगों को उन नियमों के बीच ला रहे हैं जो परमेश्वर के वचनों के सत्य के बाहर हैं। लोगों को वास्तविक समझ प्राप्त करवाने के लिए, आपको वास्तविकता के साथ जुड़ना चाहिए, कार्य के साथ जुड़ना चाहिए, और लोगों को परमेश्वर के सामने लाना चाहिए। केवल इसी तरह से लोग सत्य में निपुणता प्राप्त कर सकते हैं। यदि आपके प्रयास केवल सूत्रों और नियमों को लिखित शब्दों पर लागू करने की ओर निर्देशित हैं, तो आप सत्य की समझ तक नहीं पहुँच पाएँगे, दूसरों को वास्तविकता की ओर नहीं ले जा पाएँगे, और दूसरों को अधिक परिवर्तन अनुभव करने और उनके स्वयं के बारे में अधिक समझने की अनुमति देने में बहुत कम सक्षम होंगे।
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "सत्य के बिना परमेश्वर को अपमानित करना आसान है" से
यदि तुम सबों ने बहुतायत से परमेश्वर का वचन पढ़ा है किन्तु सिर्फ पाठ का अर्थ समझते हो और तुम लोगों के पास अपने अपने व्यावहारिक अनुभवों के जरिए परमेश्वर का अपने व्यावहारिक अनुभव से प्राप्त प्राथमिक ज्ञान नहीं है, तो तुम परमेश्वर के वचन को नहीं जान पाओगे। जहाँ तक यह बात तुम से सम्बंधित है, परमेश्वर का वचन तुम्हारे लिए जीवन नहीं है, किन्तु बस निर्जीव अक्षर हैं। और यदि तुम केवल निर्जीव अक्षरों को थामें रहोगे, तो तुम परमेश्वर के वचन का सार समझ नहीं सकते हो, न ही तुम उसकी इच्छा को समझोगे। जब तुम अपने वास्तविक अनुभवों में उसके वचन का अनुभव करते हो केवल तभी परमेश्वर के वचन का आध्यात्मिक अर्थ स्वयं को तुम्हारे लिए खोल देगा, और यह केवल अनुभव में होता है कि तुम बहुत सारे सत्य के आध्यात्मिक अर्थ को समझ सकते हो। और केवल अनुभव के जरिए तुम परमेश्वर के वचन के भेदों का खुलासा कर सकते हो। यदि तुम इसे अभ्यास में न लाओ, तो भले ही परमेश्वर के वचन कितने स्पष्ट हों, एकमात्र चीज़ जो तुम समझते हो वह है खोखले अक्षर एवं सिद्धांत, जो तुम्हारे लिए धार्मिक रीति विधियाँ बन चुकी हैं। क्या फरीसियों ने भी ऐसा ही नहीं किया था? यदि तुम लोग परमेश्वर के वचन का अभ्यास और उसका अनुभव करते हो, तो यह तुम लोगों के लिए व्यावहारिक बन जाता है; यदि तुम इसका अभ्यास करने की कोशिश नहीं करते हो, तो परमेश्वर का वचन तुम्हारे लिए तीसरे स्वर्ग की पौराणिक गाथा से बस कुछ अधिक होता है। …
…जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो तभी परमेश्वर का वचन सही ढंग से समझ आता है, और तुझे यह समझना होगा कि "केवल सत्य का अभ्यास करने के द्वारा ही इसे समझा जा सकता है"। आज, परमेश्वर के वचन को पढ़ने के बाद, तू बस यह कह सकता है कि तू परमेश्वर के वचन को जानता है, किन्तु तू यह नहीं कह सकता है कि तू इसे समझता है। कुछ लोग कहते हैं कि सत्य के अभ्यास का एकमात्र तरीका है कि पहले उसे समझा जाए, किन्तु यह केवल अर्ध सत्य है और पूरी तरह सटीक नहीं है। इससे पहले कि तुझे सत्य का ज्ञान हो, तूने उस सत्य का अनुभव नहीं किया है। यह महसूस करना कि जो तू सुनता है उसे तू समझता है। यह सही रीति से समझने के समान नहीं है। अपने आपको उस सत्य से सुसज्जित करना जैसा वह पाठ में दिखता है। यह उसमें निहित सत्य को समझने के समान नहीं है। सिर्फ इसलिए क्योंकि तुम्हारे पास सत्य का उथला ज्ञान है। इसका मतलब यह नहीं है कि तू वास्तव में इसे समझता है या पहचानता है; सत्य का सच्चा अर्थ उसका अनुभव करने से आता है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि जब तू सत्य का अभ्यास करता है केवल तभी तू उसे समझ सकता है, और जब तू सत्य का अभ्यास करता है केवल तभी तू उसके छिपे हुए भागों को समझ सकता है। गहराई से उसका अनुभव करना ही सत्य के अतिरिक्त अर्थों को समझने, और उसके सार को समझने का एकमात्र तरीका है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "सत्य को समझ लेने के बाद उसका अभ्यास करो" से
अनुभव प्राप्त करने के पश्चात्, तब आप उस ज्ञान के विषय में बातचीत कर सकते हैं जो आपके पास उन चीज़ों के विषय में होनी चाहिए जिनका आपने अनुभव किया है। इसके साथ ही, आप ऐसे लोगों के बीच अन्तर कर सकते हैं जिनका ज्ञान वास्तविक एवं व्यावहारिक है और ऐसे लोग जिनका ज्ञान सिद्धान्त पर आधारित होता है और यह बेकार है। अतः, चाहे वह ज्ञान जिसकी आप चर्चा कर रहे हैं वह सत्य के साथ मेल खाता है या नहीं यह वृहद रूप से इस बात पर आधरित होता है कि आपके पास व्यावहारिक अनुभव है या नहीं। जहाँ आपके अनुभवों में सच्चाई है, वहाँ आपका ज्ञान व्यावहारिक एवं मूल्यवान होगा। आपके अनुभव के माध्यम से, आप परख एवं अंतर्दृष्टि भी प्राप्त कर सकते हैं, अपने ज्ञान को और गहरा कर सकते हैं, और अपने आपको को व्यवस्थित करने में आप अपनी बुद्धि एवं सूझ-बूझ को बढ़ा सकते हैं। ऐसा ज्ञान जिसे लोगों के द्वारा बोला जाता है जो सत्य को धारण नहीं करता है वह सिद्धान्त है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह कितना ऊँचा है। जब देह के विषयों की बात आती है तो हो सकता है कि इस प्रकार का व्यक्ति बहुत ही ज्ञानवान हो परन्तु जब आत्मिक विषयों की बात आती है तो वह स्पष्ट अन्तर नहीं कर सकता है। यह इसलिए है क्योंकि ऐसे लोगों के पास आत्मिक मामलों में बिलकुल भी अनुभव नहीं होता है। ये ऐसे लोग हैं जिन्हें आत्मिक मामलों में प्रकाशित नहीं किया गया है और वे आत्मा को नहीं समझते हैं। इसकी परवाह किया बगैर कि आप ज्ञान के किस पहलु के विषय में बातचीत करते हैं, जब तक यह आपका अस्तित्व है, तो यह आपका व्यक्तिगत अनुभव है, और आपका वास्तविक ज्ञान है। ऐसे लोगों के विषय में क्या कहें जो केवल सिद्धान्त की ही बात करते हैं, अर्थात्, ऐसे लोग जो सत्य या वास्तविकता को धारण नहीं करते हैं, ऐसे लोग जो इसके विषय में बात करते हैं उन्हें यह भी कहा जा सकता है कि वे अपने अस्तित्व में ही रहें, क्योंकि उनका सिद्धान्त गहरे चिंतन से सिर्फ बाहर आया है और यह उनके मन का परिणाम है जो गहराई से मनन करता है, परन्तु यह केवल सिद्धान्त ही है, यह कल्पना से अधिक और कुछ भी नहीं है!
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से
तुम सिद्धांतों को बार-बार बोलकर सत्य प्राप्त नहीं कर सकते हो; उसका क्या उपयोग यदि तुम केवल शाब्दिक बातों को संप्रेषित कर रहे हो? तुम्हें परमेश्वर के वचन का अर्थ समझना चाहिए, इसका आधार और अभीष्ट प्रभाव समझना चाहिए। परमेश्वर के वचन में सत्य है, अर्थ है, प्रकाश है। उसके वचन के भीतर कई चीज़ें हैं; यह उसके वचनों को दोहराने जैसी साधारण बात नहीं है। मैं एक सरल उदाहरण देता हूँ। परमेश्वर कहते हैं, "तुम्हें ईमानदार होना चाहिए। धोखेबाज़ मत बनो।" वास्तव में इस पंक्ति का क्या मतलब है? कुछ कहते हैं, "क्या यह केवल तुम्हें एक ईमानदार इंसान बनने और धोखेबाज़ न बनने के लिए नहीं कह रहा है?" अगर कोई पूछता है, "इसका क्या मतलब है?" वह व्यक्ति जारी रहेगा, "इसका अर्थ है कि एक ईमानदार इंसान बनो और धोखेबाज़ मत बनो। केवल यही दो बातें हैं।" "कोई व्यक्ति एक ईमानदार इंसान कैसे बन सकता है? एक ईमानदार व्यक्ति कौन होता है? ईमानदार व्यक्ति की मुख्य अभिव्यक्तियाँ क्या हैं?" "एक ईमानदार व्यक्ति वह व्यक्ति होता है जो ईमानदारी से और शुद्ध रूप से बोलता है और झूठ नहीं बोलता है।" "धोखेबाज़ कौन होता है?" "एक धोखेबाज़ व्यक्ति वह होता है जो गोलमोल बात करता है। कोई व्यक्ति जो गोलमोल बात नहीं करता और जो निस्वार्थ सत्य बोलता है वह एक ईमानदार व्यक्ति होता है।" चाहे तुम कितना भी पूछ लो, तुम्हें केवल उससे इतना ही उत्तर प्राप्त होगा; मनुष्य की सोच बहुत सरल है। ईमानदार व्यक्ति के बारे में परमेश्वर का वचन क्या कहता है? एक ईमानदार व्यक्ति के बारे में पहली बात यह है कि वह दूसरों के बारे में संदेहास्पद नहीं रहता। परमेश्वर का इससे क्या मतलब है? परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है? उस पर विचार करो और इसके माध्यम से सोचो; लोगों को सीधे नहीं पता चलता। दूसरा, एक ईमानदार व्यक्ति सत्य को स्वीकार कर सकता है। परमेश्वर का वचन कहता है कि एक ईमानदार व्यक्ति मुख्यतः इन दो शर्तों को पूरा करता है। परमेश्वर के वचन में तुम समझ सकते हो कि एक ईमानदार व्यक्ति का आंतरिक अर्थ क्या है, वास्तव में यह किस बारे में बात कर रहा है, एक ईमानदार व्यक्ति की सटीक परिभाषा क्या है, और परिभाषा को सही ढंग से निकाल सकते हो; परमेश्वर के वचन से तुम पता लगा सकते हो कि एक ईमानदार व्यक्ति कौन-से अन्य व्यवहार दर्शाता है, किस प्रकार का व्यक्ति धोखेबाज़ है, किस तरह का व्यक्ति ईमानदार है, और तुम एक ईमानदार व्यक्ति को इन व्यवहारों के परिप्रेक्ष्य से फिर से देखते हो। तब तुम समझोगे कि ईमानदार लोग कैसे होते हैं और धोखेबाज़ लोग कैसे होते हैं, और कैसे धोखेबाज़ परमेश्वर के वचन, परमेश्वर और दूसरे लोगों के साथ पेश आते हैं। इस तरह से तुम परमेश्वर के वचनों की सच्ची समझ प्राप्त कर पाते हो और समझ पाते हो कि परमेश्वर के वचनों और एक ईमानदार और धोखेबाज़ व्यक्ति के बीच का अंतर कितना बड़ा है। जब परमेश्वर के वचन को भीतर से देखा जाता है, तो इस बारे में सत्य के और अधिक विवरण मिलते हैं कि "तुम्हें ईमानदार होना चाहिए। धोखेबाज़ मत बनो।" जब तुम सचमुच परमेश्वर के वचनों का अर्थ समझते हो, तो तुम जानते हो कि एक ईमानदार व्यक्ति क्या है और धोखेबाज़ व्यक्ति क्या है; और जब तुम इस पर चलते हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से यह पता चलता है कि एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में कैसे व्यवहार किया जाए, और तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति बनने का मार्ग मिल जाएगा, जो निश्चित रूप से परमेश्वर के मानकों को पूरा करता हो। क्या तुम्हारे पास इस स्तर का महारत है? यदि तुम वास्तव में इन वचनों को समझते हो और उन पर चलते हो, तो तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हो। यदि तुम इन वचनों को समझ नहीं पाते हो, तो तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं बन सकते, और तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति बिल्कुल भी हासिल नहीं होगी।
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें" से
Source From : सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें