चाओटुओ, शियाओगन नगर, हुबेई प्रांत
सिचुआन भूकंप के समय से ही, मैं हमेशा डरी हुई और चिंतित रहती थी कि मैं किसी दिन किसी आपदा से मारी जाऊँगी। विशेष रूप से क्योंकि मैंने आपदाओं को तीव्र होते हुए और भूकम्पों को बारंबार आते हुए देखा, इसलिए आसन्न विनाश का मेरा भय और भी स्पष्ट हो गया है। परिणामस्वरूप, मैं पूरा दिन यह विचार करते हुए बिताती थी कि यदि भूकंप आता है तो मुझे अपने आप को बचाने के लिए क्या सावधानियाँ लेनी चाहिए।
एक दिन, दोपहर के भोजन पर, मेरे मेज़बान परिवार की बहन ने हमेशा की तरह टीवी चालू किया, और समाचार वाचक भूकंप से बचने के सुरक्षा उपायों के बारे में बात कर रहा था। भूकंप की हालत में, किसी गिरते हुए भवन से चोटिल होने से बचने के लिए आपको तुरंत घर के बाहर मैदानी इलाके में भागना चाहिए। यदि आप समय पर निकल न सकें, तो आपको किसी चारपाई या मेज़ के नीचे या किसी कोने में छुप जाना चाहिए... इसे सुनने के बाद, मुझे लगा मानो कि मुझे एक जीवनरक्षक समाधान मिल गया हो, और इन निवारक उपायों को मैंने तुरंत पूरी तरह याद कर लिया, ताकि भूकंप घटित होने की स्थिति में मैं अपना जीवन बचा सकूँ। दोपहर के भोजन के बाद मैं अपने कमरे में गयी, और ध्यान से घर के अंदरूनी और बाहरी भाग का निरीक्षण किया और जो मैंने देखा उससे मैं अत्यंत निराश हुई: चारपाई के नीचे बहुत अधिक कबाड़ था, और छुपने के लिए कोई अतिरिक्त जगह नहीं थी। घर के बाहर देखने पर, जहाँ मैं खड़ी थी, वहाँ से कई सौ-मीटर के भीतर सभी इमारतें पाँच या छह मंज़िल ऊँची थीं, और एक दूसरे के बहुत करीब थीं। अगर मुझे अपनी इमारत से भी बाहर निकलना होता तो भी मैं शायद कुचल कर मारी जाती। ऐसा लग रहा था जैसे मेरे लिये यहाँ अपने कर्तव्यों को पूरा करना अत्यधिक ख़तरनाक है। मुझे जिला-प्रमुख के आने और मुझे किसी ग्रामीण मेज़बान परिवार में स्थानांतरित करने की प्रतीक्षा करनी होगी। इस तरह, यदि भूकंप आया, तो किसी मैदानी इलाके में भागना काफी आसान होगा। परन्तु तब मुझे यह एहसास हुआ: लेखों को संशोधित करने के मेरे काम में मुख्यतः मुझे घर के भीतर रहना पड़ता था—यहाँ तक कि देहाती इलाके में रहने पर भी मेरा जीवन संकट में होता। इससे बेहतर था कि मैं जिला प्रमुख को मुझे दूसरी श्रेणी की सुसमाचार मण्डली में स्थानान्तरित करने को कह देती। इस तरह कम-से-कम मैं सारा दिन बाहर रहती, और यह घर में रहने से अधिक सुरक्षित होता। केवल एक बात थी, कि मुझे पता नहीं था कि जिला प्रमुख का आगमन कब होने वाला है। तब भी मुझे कुछ समय के लिए एक आश्रय तैयार की आवश्यकता थी। और इसीलिए, मैं हर रोज़ भय में जीती थी, और अपने लेखों को संशोधित करने पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रही थी।
फिर एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों के निम्नलिखित अंश को देखा, "जब आपदा आएगी, तो उन सभी पर अकाल और महामारी आ पड़ेगी जो मेरा विरोध करते हैं और वे विलाप करेंगे। जो लोग सभी तरह की दुष्टता कर चुके हैं, किन्तु जिन्होंने बहुत वर्षों तक मेरा अनुसरण किया है, वे अपने पापों का फल भुगतने से नहीं बचेंगे; वे भी युगों-युगों तक कदाचित ही देखी गई आपदा में पड़ते हुए, लगातार आंतक और भय की स्थिति में जीते रहेंगे। केवल मेरे ऐसे अनुयायी जिन्होंने मेरे प्रति निष्ठा दर्शायी है मेरी सामर्थ्य का आनंद लेंगे और तालियाँ बजाएँगे। वे अवर्णनीय संतुष्टि का अनुभव करेंगे और ऐसे आनंद में रहेंगे जो मैंने पहले कभी मानवजाति को प्रदान नहीं किया है। …हर हाल में, मुझे आशा है कि तुम लोग अपनी मंज़िल के लिए पर्याप्त संख्या में अच्छे कर्म तैयार करोगे। तब मुझे संतुष्टि होगी; अन्यथा तुम लोगों में से कोई भी उस आपदा से नहीं बचेगा जो तुम लोगों पर पड़ेगी। आपदा मेरे द्वारा उत्पन्न की जाती है और निश्चित रूप से मेरे द्वारा ही गुप्त रूप से आयोजित की जाती है। यदि तुम लोग मेरी नज़रों में अच्छे इंसान के रूप में नहीं दिखाई दे सकते हो, तो तुम लोग आपदा भुगतने से नहीं बच सकते" ("वचन देह में प्रकट होता है" में "अपनी मंज़िल के लिए तुम्हें पर्याप्त संख्या में अच्छे कर्मों की तैयारी करनी चाहिए")। परमेश्वर के वचनों ने मुझे जगा दिया। जैसा कि पता चला, परमेश्वर आपदाओं का कारण बनता है—वे उसके द्वारा जारी की जाती हैं। परमेश्वर इस दुष्ट और भ्रष्ट मानवजाति को नष्ट करने के लिए आपदाओं का उपयोग करता है। परमेश्वर अंत के दिनों में यही करने की इच्छा रखता है। अविश्वासियों को इसकी समझ नहीं है, और वे सोचते हैं कि ये प्राकृतिक आपदाएँ हैं। इस तरह वे आपदाओं का सामना करने पर स्वयं को बचाने के लिए मानवीय तरीकों और मानवीय प्रयासों को अपनाते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा करके वे विभिन्न आपदाओं के विनाश से बच सकते हैं। और मैं, जो अज्ञानी थी, परमेश्वर में विश्वास रखती थी परन्तु परमेश्वर के कार्य से बिल्कुल अनजान थी। मैं सोचती रहती थी कि मुझे केवल अविश्वासियों के निवारक उपायों का अनुसरण करने की आवश्यकता है और मैं आपदाओं द्वारा गढ़ी गयी पीड़ा से सुरक्षित बच कर जीवित रह पाऊँगी। यह सच में बेतुका था कि मैं भी अविश्वासियों जैसा ही दृष्टिकोण रखती थी! क्या मुझे यह पता नहीं होना चाहिए था कि यदि लोग निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करते हैं और अच्छे कर्मों को करने में विफल रहते हैं, तो वे परमेश्वर की नज़रों में अच्छे नहीं दिखाई देंगे? इसकी परवाह किए बिना कि मनुष्य कितने शक्तिशाली हो सकते हैं, उनके निवारक उपाय कितने विकसित हो सकते हैं, या उनकी आत्म-बचाव की योजनाएँ कितनी पूर्ण हो सकती हैं, अंत में जो आपदाएँ परमेश्वर मानवों पर डालता है उनसे बच निकलने का कोई मार्ग नहीं है। आपदाओं की आशंका के प्रति मेरी विभिन्न प्रतिक्रियाओं से, यह प्रत्यक्ष था कि परमेश्वर में मेरी वास्तविक आस्था नहीं थी। अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्यों की और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता की मुझे वास्तविक समझ नहीं थी। मुझे कल्पना नहीं थी कि परमेश्वर आपदाओं में किसका विनाश करने का लक्ष्य रखता है, या परमेश्वर किसे बचाना चाहता है, ना ही मैं यह पहचान पायी कि आपदाओं में, जो परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हैं और जिन्होंने पर्याप्त अच्छे कर्म किए हैं, केवल वे ही विपत्तियों में बचाए जाते हैं। इसीलिए, जब आपदा का ख़तरा मँडराया, तो यह विचारने के बजाय कि मैंने अच्छे कर्म किए या नहीं, मैं परमेश्वर के प्रति निष्ठावान रही थी या नहीं, मैंने सत्य का अनुसरण करके परमेश्वर का उद्धार प्राप्त किया था या नहीं, मैंने अपना पूरा समय अपने-आप को बचाने के तरीकों पर विचार करने में व्यय कर दिया। सत्य के बिना, हम इस तरह कितने दयनीय हो जाते हैं!
नूह के समय में, जब परमेश्वर ने बाढ़ से धरती का विनाश कर दिया था, चूँकि नूह परमेश्वर से डरता था और बुराई से दूर रहता था, परमेश्वर की मर्ज़ी से उसने एक बड़ी नाव बनायी, परमेश्वर के निवेदन पर सब कुछ व्यय कर दिया था, और अपनी परम निष्ठा प्रदर्शित की थी, वह परमेश्वर के द्वारा अच्छे रूप में देखा गया था। इसीलिए, जब आपदा आयी, तो उसके परिवार के सभी आठ सदस्य सुरक्षित रहे। इस बिंदु पर, मुझे याद आया कि "जीवन में प्रवेश के बारे में संगति और उपदेश," में जो चर्चा हुई थी "यदि तुम कोई अच्छे कर्म नहीं करते हो, तो जब आपदा आएगी, तो तुम्हारा ह्रदय पूरे दिन घबराहट में रहेगा। अच्छे कर्मों के बिना, व्यक्ति के हृदय को आराम महसूस नहीं होता है, और उसके हृदय में ना तो आत्मविश्वास होता है ना ही शान्ति। क्योंकि उसने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, इसलिए उसके हृदय में सच्ची शान्ति और हर्ष नहीं होता है। बुरा करने वालों का अंत:करण अपराध-बोध पूर्ण होता है, और वे हृदय से दुष्ट होते हैं। वे जितने अधिक दुष्ट कर्म करते हैं, वे उतना ही अधिक अपराध-बोध महसूस करते हैं और उतने ही अधिक भयभीत हो जाते हैं। जब विशाल आपदा आती है, तो तुम्हें और अधिक भलाई करने और अधिक अच्छे कर्म करने की आवश्यकता होती है ताकि तुम्हारे हृदय में अधिक आराम मिले और वह शांत रहे। केवल तभी आपदाएँ पड़ने पर तुम्हारे हृदय में शान्ति और आराम महसूस होगा" (जीवन में प्रवेश और उपदेश पर वार्तालाप II में "अच्छे कर्म करने के पीछे महत्वपूर्ण अर्थ")। जब मैंने इस बारे में सोचा कि कैसे मैं आपदा में स्वयं की मृत्यु के भय से पूरे दिन बेचैन और परेशान महसूस कर रही थी, तो मुझे एहसास हुआ कि यह इस कारण से है क्योंकि मैंने अपना कर्त्तव्य निष्ठा से नहीं किया था और कोई अच्छे कर्म नहीं किये थे। अपने कर्तव्य को करने में, कलीसिया द्वारा मुझे सौंपे गए कार्यों की ज़िम्मेदारी का मैंने सत्यता से वहन नहीं किया था। मैंने कभी भी अपने कर्तव्यों को परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हृदय से पूरा नहीं किया था। इसके बजाय, मैं देह के भोग के वशीभूत हो कर परमेश्वर को धोखा देती थी और उसके साथ निपटती थी। मैं मुझे भेजे गए लेखों के साथ अधिक कुछ नहीं करती थी, बल्कि केवल लापरवाही से उन्हें संशोधित करती थी और केवल अपना कार्य ख़त्म करने का प्रयास करती थी। जब मैं देखती कि मेरे भाइयो और बहनो द्वारा लिखे गए लेख कितने बेतरतीब हैं, तो मैं कर्मठता से उनका मार्गदर्शन और उनकी सहायता नहीं करती थी, बल्कि इस बात की परवाह किए बिना कि वे समझेंगे या नहीं या क्या ये सहायक होंगे या नहीं, मैं बस कुछ टिप्पणियाँ लिख देती थी। इसके बजाय, मैं लेखों को शीघ्रता से उन्हें लौटा देती थी, और तत्पश्चात सम्पादित करने के लिए मुझे और कम लेख प्राप्त होते थे। परिणामस्वरूप, सम्पादकीय कार्य पूरी तरह से थम गया। तब भी, मैंने न तो अपने कृत्यों पर चिंतन किया और ना ही समस्या के स्रोत का पता लगाने और सुधारने का प्रयास किया, बल्कि मैं अगुआ को दोषी ठहराती थी, यह दावा करती थी कि समस्याएँ इसलिए आयीं क्योंकि उसने सम्पादकीय कार्य को महत्त्व नहीं दिया था। मैं ऐसे कृत्यों से परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करने का अनुमान लगाती थी और उससे अपने हृदय में आराम पहुँचा सकती थी? इस तरह से, कैसे मैं परमेश्वर की नज़रों में अच्छी बन सकती थी? यदि मैं इसी पथ पर चलती रहूँ और सत्य का अच्छी तरह से अनुसरण ना करूँ, कलीसिया द्वारा मुझे सौंपे गए कार्यों के प्रति निष्ठावान बनने में असफल रहूँ, और पर्याप्त मात्रा में अच्छे कार्य ना करूँ, तो चाहे मैं आपदा के आने पर शैतान द्वारा निर्धारित किये गए निवारणों का कितना ही पालन करूँ, तब भी मैं निश्चित रूप से दुष्टों को परमेश्वर के दंड के कोप से बचने में असमर्थ रहूँगी।
मुझे यह समझने देने हेतु मेरा मन खोलने के लिए परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर का धन्यवाद कि केवल अपने कर्तव्य को उचित रूप से करके और पर्याप्त अच्छे कर्म करके ही मैं आपदाओं द्वारा दिए जाने वाले कष्टों से मुक्ति पा सकती हूँ और अपना जीवन बचा सकती हूँ। यह और केवल यह ही एकमात्र मार्ग है। भविष्य में, मैं सत्य का सही रूप से अनुसरण करने, अपने कर्तव्यों को पूरा करने में यथासंभव निष्ठावान होने, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए प्रचुर मात्रा में अच्छे कर्म करने की अभिलाषा रखती हूँ।
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