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बुधवार, 29 मई 2019

46. "परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह" का वास्तविक अर्थ

झांग जुन शेन्यांग शहर, लियाओनिंग प्रांत
अतीत में, मैं मानता था कि "परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह" का अर्थ परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है, कलीसिया को छोड़ना, या अपने कर्तव्य से दूर भागना है। मैं सोचता था कि ये व्यवहार ही विद्रोह का निर्माण करते हैं। इसलिए, जब भी मैं लोगों को इस तरह के व्यवहार में शामिल हुआ सुनता था, तो मैं खुद को याद दिलाया करता कि मुझे इन लोगों की तरह परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, मैं अपने सभी प्रयासों में सतर्क रहता था और कलीसिया द्वारा मुझे सौंपे गए सभी कार्यों का पालन करता था। कठिनाईयों की परवाह किए बिना, मैं न तो तब अपने कर्तव्य से भागा था जब मुझसे निपटा जाता था और मेरी काट-छाँट की जाती थी, और न ही मैं तब कलीसिया से वापिस हटा था जब मेरी परीक्षा ली गई थी। इसलिए, मैं मानता था कि मैंने कभी भी परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया है। मुझे लगता था कि मैंने पहले से ही कुछ कद-काठी पा ली है और मुझे विश्वास था कि मैं अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करूँगा और अंत में उसका उद्धार प्राप्त करूँगा।
एक दिन आध्यात्मिक उत्कर्ष के दौरान, मैंने मनुष्य की संगति में इसे पढ़ा: "परमेश्वर के विरुद्ध अलग-अलग प्रकार के अनेक विद्रोह होते हैं। एक प्रकार का विद्रोह उसकी इच्छा के विरुद्ध जाना या उसके वचनों के विरुद्ध जाना है। एक अन्य प्रकार है अहंकारी स्वभाव का होना, व्यक्ति के दिल में परमेश्वर का अभाव होना, और इस प्रकार घमंड करना और परमेश्वर का शत्रु बन जाना है; यह परमेश्वर के प्रति विरोध का विद्रोह है। एक और प्रकार है, जो परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने या उसे त्यागने का विद्रोह है। … जिस विद्रोही व्यवहार बारे में हम अक्सर संगति में बात करते हैं, वह मुख्य रूप से पहले दो प्रकारों को संदर्भित करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने या उसे त्याग देने वाले परमेश्वर के उद्धार के दायरे में नहीं आते हैं, और परमेश्वर के वचन में लिखे गए विद्रोही व्यवहार पहले दो प्रकारों के हैं; तीसरे प्रकार के विद्रोह का उल्लेख नहीं किया गया है। यह मानते हुए कि केवल उसके साथ विश्वासघात करना या उसे त्यागना ही परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करना कहा जा सकता है, हमें अवश्य परमेश्वर के इरादों को ग़लत नहीं समझना चाहिए या उनका गलत अर्थ नहीं निकालना चाहिए, मानो कि उसके वचन के विरुद्ध जाना या अहंकारी स्वभाव रखना विद्रोह करने के प्रकार नहीं थे। यह एकतरफा समझ है! तो विद्रोह असल में है क्या? लोगों को इसे कैसे पहचानना चाहिए? परमेश्वर के वचन में जो कहा गया है उसके अनुसार, परमेश्वर के साथ असंगत सभी चीज़ें उसकी शत्रु हैं, और परमेश्वर के वचनों के विरुद्ध जाने वाली सभी चीज़ें उसके वचनों के विरुद्र विद्रोह हैं। उसके वचनों के विरुद्ध विद्रोह करना उसके विरुद्ध विद्रोह करना है; उसके शत्रु की तरह काम करना उसके विरुद्ध विद्रोह करना है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये दो सिद्धांत मनुष्य की अवधारणाओं के समान नहीं हैं, लेकिन समस्या का सार असल में बस ऐसा ही है।" इस समागम को पढ़ने के बाद, मैंने जाना कि परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करना मात्र उसके साथ विश्वासघात करना, कलीसिया को छोड़ देना, या अपने कर्तव्यों से भाग जाना नहीं है। बल्कि, परमेश्वर की इच्छा या उसके वचन का उल्लंघन करना, और उसका विरोध करना भी विद्रोह के ही रूप हैं। पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के तहत, मैंने अपने कार्यों पर चिंतन करना शुरू किया। परमेश्वर चाहता है कि हम अपने कर्तव्यों को पूरा करते हुए, सत्य की खोज करें और स्वभाव में बदलाव लाएँ। हालाँकि, मैंने अपने कर्तव्य को पूरा करते समय कार्य और कलीसिया के अंदर ज्यादा उच्च हैसियत प्राप्त करने पर ध्यान केन्द्रित किया है। परमेश्वर कहता है कि हम वफ़ादारी से अपने कर्तव्यों को पूरा करें, कठिनाइयों का सामना करते समय उसकी इच्छा का अनुसरण करें, और सत्य का अभ्यास करने के लिए शरीर का त्याग कर दें। हालाँकि, मैं अपने आलस से परमेश्वर को धोखा देते हुए, हमेशा ऐसा रास्ता खोजता हूँ जिसमें मेरे कर्तव्य को पूरा करने में सबसे कम प्रयासों की ज़रूरत हो। मैं कठिनाई के समय कठिनाई की शिकायत करते हुए और अपने कर्तव्य में कमजोर पड़ते हुए, केवल अपनी देह की परवाह करता हूँ। मैंने यहाँ तक कि अपने कर्तव्यों से भागने के साधन के रूप में पूरी तरह से त्यागने तक के बारे में भी विचार किया है। परमेश्वर पूर्ण निष्ठा और संपूर्ण समर्पण की माँग करता है। परमेश्वर की उपस्थिति में, मेरे विचार अक्सर ही मेरे परिवार और रिश्तेदारों में लगे रहते हैं। परमेश्वर कहता है कि हम सभी चीज़ों से सबक सीखें और उसके वचन की वास्तविकता में प्रवेश करें ताकि परमेश्वर द्वारा हमें सिद्ध बनाया जा सके। जब मैं प्रतिकूल लोगों या मामलों का सामना करता हूँ, तो मैं इस विचार पर लड़खड़ा जाता हूँ कि सभी चीज़ें परमेश्वर की योजना का हिस्सा हैं और खुद को लगातार सही और गलत के बीच झूलते हुए पाता हूँ। परमेश्वर कहता है कि उसने हमारे लिए कठिनाई की जिन विभिन्न परिस्थितियों और परीक्षाओं की व्यवस्था की है, हमें उसमें सत्य और सिद्धता की खोज करनी चाहिए। जब मैं व्यवहार किए जाने, काट-छाँट, रुकावट, या असफलता का सामना करता हूँ, तो मैं ग़लत समझता हूँ और परमेश्वर को दोष देता हूँ। मैं आगे के मार्ग की ओर हताश महसूस करता हूँ, परमेश्वर में भरोसा खो देता हूँ, और यहाँ तक कि कलीसिया को छोड़ने पर भी विचार करने लगता हूँ। पमरेश्वर हमें अपने आध्यात्मिक जीवन में गंभीर, व्यवहारिक और प्रभावी बनने के लिए कहता है। हालाँकि, मैं अक्सर ही नियमों और प्रक्रियाओं के अनुसार चलता हूँ, और धार्मिक रीतियों का अभ्यास करता हूँ। परमेश्वर कहता हैं कि हम अपने कार्य में उसकी प्रशंसा करें और उसकी गवाही दें और लोगों को उसके समक्ष लाएँ। हालाँकि, मैं दूसरों को अपने समक्ष लाते हुए खुद की प्रशंसा करता हूँ और खुद की गवाही देता हूँ, ताकि वे मेरी सराहना करें और मेरे मुताबिक चलें। परमेश्वर कहता है कि हम अपनी समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करें। मैं डींग मारता हूँ और पत्रों और सिद्धांतों की बात करता हूँ, दूसरों को नियमों से सीमित करता हूँ, समस्याओं को मनुष्य के तरीकों के अनुसार हल करता हूँ, और हैसियत से दूसरों को दबाता हूँ। परमेश्वर कहता है कि हम सख़्ती से कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार अपने कार्य करें। मुझे जो तरीका उचित लगता है उस तरीके से चीज़ों को करते हुए, मैं अक्सर अपने खुद के इरादों के आधार पर अपने कर्तव्य को पूरा करता हूँ। …क्या ये सभी कार्य परमेश्वर की इच्छा और उसके वचन के उल्लंघन और परमेश्वर के विरोध में नहीं है? क्या ये कार्य परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह का निर्माण नहीं करते हैं?
इस समय, मैं एक ख़ौफ़ का भाव महसूस करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता था। पता चला कि ग़लती से यह मानते हुए कि विद्रोह करने का अर्थ कलीसिया के साथ विश्वासघात करना, कलीसिया को छोड़ देना, या अपने कर्तव्यों को त्याग देना है, मैंने अनजाने में अपने सभी कार्यों में परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया था। मैं बेशर्मी से यह सोचता था कि मेरी कद-काठी ने मुझे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने से छूट दे दी है। मैं खुद के लिए अनजान रहा हूँ, और परमेश्वर के वचनों की मेरी समझ एक तरफा और उथली है। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "परमेश्वर ने मनुष्य की प्रकृति और सत्व को प्रकट किया है, परंतु मनुष्य समझता है कि उनका काम करने का तरीका और बोलने का तरीका दोषपूर्ण और खराब है; इसलिए लोगों के लिए सत्य को व्यवहार में शामिल करना बहुत श्रमसाध्य कार्य होता है। लोग सोचते हैं कि उनकी गलतियाँ बस क्षणिक अभिव्यक्ति हैं, जो उनके सावधान नहीं रहने पर प्रकट हो जाती हैं, बजाय यह मानने के कि यह उनकी प्रकृति का प्रकटीकरण है" ("मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "अपनी प्रकृति को समझना और सत्य को व्यवहार में शामिल करना" से)। "मनुष्य की प्रकृति उसका जीवन है, यह एक सिद्धांत है जिस पर वह जीवित रहने के लिए भरोसा करता है और वह इसे बदलने में असमर्थ है। ठीक विश्वासघात की प्रकृति की तरह—यदि तुम किसी रिश्तेदार या मित्र को धोखा देने के लिए कुछ कर सकते हो, तो यह साबित करता है कि यह तुम्हारे जीवन और तुम्हारी प्रकृति का हिस्सा है जिसके साथ तुम पैदा हुए थे। यह कुछ ऐसा है जिससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "एक बहुत गंभीर समस्या: विश्वासघात (1)" से)। यह अविवादित रूप से सत्य है। क्या मैं हूबहू वैसा ही व्यक्ति नहीं हूँ जो अपनी प्रकृति को साफ तौर पर समझे बिना सामान्य मामलों पर हंगामा करता है? लोगों के व्यवहार उनकी प्रकृति के प्रभुत्व में होते हैं, और उनका स्वभाव उनकी प्रकृति की अभिव्यक्ति होता है। अगर मनुष्य की प्रकृति में ही विद्रोह कूटलिखित है, तो मनुष्य अपरिहार्य रूप से परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करेगा। यह सावधानी बरतने का मामला नहीं है। फिर भी, मैं अपनी प्रकृति को पहचानने के बारे में चिंतित नहीं रहा हूँ। इसके बजाय, मैं कुछ बाहरी अभ्यासों को जारी रखकर संतुष्ट हूँ, जो सत्य का अनुसरण करने और मेरा स्वभाव बदलने से मुझे रोकते हैं, भले ही मैंने इतने सालों तक परमेश्वर का अनुसरण किया है। मैंने लगातार एक विद्रोही प्रकृति के साथ जीवन जीया है। अगर, एक दिए गए वातावरण में भी, मैं ऐसा करना जारी रखता हूँ, तो मैं अपरिहार्य रूप से अपनी प्रकृति के प्रभुत्व में रहूँगा, कलीसिया के साथ विश्वासघात करूँगा और उसे छोड़ दूँगा। यह निश्चित रूप से एक ख़तरनाक मार्ग है!
हे परमेश्वर, तेरे विरुद्ध विद्रोह करने के बारे में मेरी मिथ्या मान्यताओं के संबंध में मुझे सत्य दिखाने के लिए तेरा धन्यवाद। तूने मुझे समझने दिया कि तेरे वचन का त्याग और उल्लंघन करना विद्रोह के रूप हैं, और मुझे दिखाया कि मैं हमेशा तेरे विरुद्ध विद्रोह करने, तुझसे विश्वासघात करने, और तुझे त्यागने के जोखिम में हूँ। आज के दिन से ही, मैं तेरे वचन पर ध्यान केन्द्रित करने और अपने प्रयासों को तेरे वचन के असली अर्थ पर विचार करने पर केन्द्रित करने का इच्छुक हूँ, ताकि मैं सत्य के सार को सच में समझूँ और खुद को शुद्धता से सत्य में प्रवेश करने दूँऔर सत्य का अभ्यास करूँ। मैं सभी परिस्थितियों में तेरे वचन को कायम रखने और अपनी विद्रोहशीलता को ठीक करने का प्रयास करूँगा।
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