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गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

प्रश्न 2: सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में अपने न्याय का कार्य कैसे करते हैं? वे अपने वचनों से इंसान का न्याय कैसे करते हैं, उसे शुद्ध कैसे करते हैं और उसे पूर्ण कैसे करते हैं? ये जानने के लिए हम बेताब हैं। अगर हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य समझते हैं, तो हम लोग सचमुच परमेश्वर की वाणी सुन सकते हैं और हमें परमेश्वर के सिंहासन के सामने उन्नत किया जा सकता है। हमें ज़रा और विस्तार से बताइये!

उत्तर: अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर अपना कार्य किस तरह करते हैं, इस बात को समझना सत्य का अनुसरण करके उद्धार पाने की हमारी क्षमता के लिए बहुत आवश्यक है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में सत्य व्यक्त करके लोगों का न्याय और उन्हें शुद्ध करते हैं। वे मात्र अपने संतों को स्वर्ग के राज्य में उठाने के लिए ऐसा करते हैं। इसके बावजूद धार्मिक समुदाय में बहुत से विश्वासी परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते। उन्हें लगता है कि प्रभु वापस आकर सभी संतों को सीधे स्वर्ग के राज्य में उन्नत कर देंगे। उन्हें यकीन नहीं होता कि वे न्याय और ताड़ना का कार्य करेंगे क्योंकि अगर उन्होंने लोगों के न्याय और ताड़ना का कार्य किया तो क्या वे उन्हें भी निंदित और दंडित भी नहीं करेंगे? इसलिए, वे अंतिम दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं; वे केवल प्रभु के बादलों पर उतरने और उन्हें स्वर्ग के राज्य में उन्नत करने की प्रतीक्षा करते हैं। दरअसल, ये परमेश्वर की इच्छा को पूरी तरह से गलत समझना है। प्रभु यीशु ने अंत के दिनों में न्याय के कार्य को सुगम बनाने के लिये छुटकारे का कार्य किया था। परमेश्वर का अंतिम उद्देश्य मानवता को शुद्ध करना और उसे बचाना है, ताकि उन्हें स्वर्ग के राज्य में आराम मिले। हालांकि, मनुष्य को बचाने और उसके छुटकारे का कार्य तय है; यह चरणों में आगे बढता है। यह सब एक ही बार में नहीं हो जाता। प्रभु यीशु ने अपने छुटकारे के कार्य को पूरा कर लिया है और वापस आकर संतों को ले जाने का वचन दिया है। उसके बावजूद दरअसल कोई नहीं जानता कि परमेश्वर अंत के दिनों में संतों को कैसे ले जाते हैं। दरअसल, जब परमेश्वर अंत के दिनों में अपने संतों को ले जाने के लिए आते हैं तो वे उनका न्याय करने, उन्हें शुद्ध करने और विजेता के रूप में पूर्ण करने के लिये सबसे पहले अपने सिंहासन के सामने लाते हैं। क्या यही तरीका नहीं है संतों को स्वर्ग के राज्य में उन्नत करने का? फिर भी, लोगों के लिये इसे समझना इतना आसान नहीं है। परमेश्वर के सिंहासन के सामने जाने से पहले, उन्हें न्याय, ताड़ना और शुद्धिकरण का अनुभव लेना ही होगा। यही कारण है कि लोगों ने अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य के बारे में अपनी धारणाएं बना ली हैं। तो मुझे बताइये, परमेश्वर की ताड़ना और न्याय क्या वाकई आशीष है? या यह निंदा और सजा है? बहुत से लोग इस बात को समझते ही नहीं। आइये देखें, सर्वशक्तिमान परमेश्वर इस बारे में क्या कहते हैं।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर मनुष्य की अवज्ञाकारिता को शापित करता है, और वह मनुष्य के पापों को न्याय देता है। यद्यपि वह बिना किसी संवेदना के कठोरता से बोलता है, फिर भी वह उन सबको प्रकट करता है जो मनुष्य के भीतर होता है, और इन कठोर वचनों के द्वारा वह उन सब बातों को प्रकट करता है जो मूलभूत रूप से मनुष्य के भीतर होती हैं, फिर भी ऐसे न्याय के द्वारा वह मनुष्य को शरीर के सार का गहरा ज्ञान प्रदान करता है, और इस प्रकार मनुष्य परमेश्वर के समक्ष आज्ञाकारिता के प्रति समर्पित होता है। मनुष्य का शरीर पाप का है, और शैतान का है, यह अवज्ञाकारी है, और परमेश्वर की ताड़ना का पात्र है - और इसलिए, मनुष्य को स्वयं का ज्ञान प्रदान करने के लिए परमेश्वर के न्याय के वचनों का उस पर पड़ना आवश्यक है और हर प्रकार का शोधन होना आवश्यक है; केवल तभी परमेश्वर का कार्य प्रभावशाली हो सकता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल पीड़ादायक परीक्षाओं का अनुभव करने के द्वारा ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो")।
"आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, और तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन जान लो कि तुम्हारी निंदा इसलिए है कि तुम स्वयं को जान सको। निन्दा, अभिशाप, न्याय, ताड़ना—ये सब इसलिए हैं ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो जाए, और, इसके अलावा, ताकि तुम अपने महत्व को जान सको, और देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धर्मी हैं, और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, कि वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह ही धर्मी परमेश्वर है जो मनुष्य को प्यार करता है, और मनुष्य को बचाता है, और जो मनुष्य का न्याय करता और उसे ताड़ित करता है। …परमेश्वर मारने, या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, श्राप देने, ताड़ना देने, और बचाने के लिए होआया है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "तुम लोगों को हैसियत के आशीषों को अलग रखना चाहिए और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए")।
"तुम सभी पाप और दुराचार के स्थान में रहते हो; तुम सभी दुराचारी और पापी लोग हो। आज तुम न केवल परमेश्वर को देख सकते हो, बल्कि उससे भी महत्वपूर्ण, तुम सब ने ताड़ना और न्याय को प्राप्त किया है, ऐसे गहनतम उद्धार को प्राप्त किया है, अर्थात परमेश्वर के महानतम प्रेम को प्राप्त किया है। वह जो कुछ करता है, वह तुम्हारे लिए वास्तविक प्रेम है; वह कोई बुरी मंशा नहीं रखता है। यह तुम्हारे पापों के कारण ही है कि वह तुम्हारा न्याय करता है, ताकि तुम आत्म-परीक्षण करोगे और यह अतिबृहत उद्धार प्राप्त करोगे। यह सब कुछ मनुष्य में कार्य करने के लिए किया गया है। आदि से लेकर अन्त तक, मनुष्य को बचाने के लिए परमेश्वर जितना हो सके वो सब कुछ कर रहा है, और वह निश्चय ही उस मनुष्य को पूर्णतया विनष्ट करने का इच्छुक नहीं है, जिसे उसने अपने हाथों से रचा है। अब कार्य करने के लिए वह तुम्हारे मध्य आया है; क्या यह और अधिक उद्धार नहीं है? अगर वो तुमसे नफ़रत करता, तो क्या फिर भी वो व्यक्तिगत रूप से तुम्हारा संदर्शन करने के लिए इतने बड़े परिमाण का कार्य करता? उसे इस प्रकार दुःख क्यों उठाना चाहिए? परमेश्वर तुम सब से घृणा नहीं करता, न ही तुम्हारे प्रति कोई बुरी मंशा रखता है। तुम सब को जानना चाहिए कि परमेश्वर का प्रेम ही सबसे सच्चा प्रेम है। यह लोगों की अनाज्ञाकारिता के कारण ही है कि उसे उन्हें न्याय के द्वारा बचाना पड़ता है, अन्यथा वे बचाए नहीं जाएँगे। चूंकि तुम नहीं जानते कि एक जीवन का सन्दर्शन कैसे करना है या कैसे जीना है, और तुम इस दुराचारी और पापमय स्थान में जीते हो और दुराचारी और अशुद्ध दानव हो, वह इतना दयाहीन नहीं कि तुम्हें और अधिक भ्रष्ट होने दे; न ही वह इतना दयाहीन है कि तुम्हें शैतान की इच्छानुसार कुचले जाते हुए इस प्रकार के अशुद्ध स्थान में रहने दे, या इतना दयाहीन है कि तुम्हें नरक में गिर जाने दे। वह मात्र तुम्हारे इस समूह को प्राप्त करना और तुम सब को पूर्णतः बचाना चाहता है। यही तुम में जीत लिए जाने के कार्य को करने का मुख्य उद्देश्य है-यह मात्र उद्धार के लिए है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्यों का आंतरिक सत्य (4)")।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से यह साफ ज़ाहिर है कि अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य का लक्ष्य लोगों की निंदा करना नहीं है; परमेश्वर लोगों को मारना नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि लोग इस बात को मानें कि शैतान ने उन्हें पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। वे चाहते हैं लोग अपनी प्रकृति और सार को जानें: वे परमेश्वर का विरोध करते हैं और उन्हें धोखा देते हैं। वे चाहते हैं कि लोग उनके धर्मी और पवित्र स्वभाव को जानें जिसको नाराज नहीं किया जा सकता। उनके कार्य का उद्देश्य लोगों के दिलों को और उनकी आत्मा को जगाना है। वे इंसान को उसके भ्रष्ट स्वभाव से बचाना चाहते हैं, ताकि वह एक ऐसे सच्चे इंसान का जीवन जी सके जिसे वो बचाना चाहते हैं। अगर हम परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव न लें, तो हम अपनी शैतानी प्रकृति को स्वीकार नहीं कर सकते, और न ही हम परमेश्वर के प्रति अपने पाप और प्रतिरोध का मूल कारण तय कर सकते हैं। और फिर, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना, हम उनके धर्मी स्वभाव को समझ ही नहीं सकते; हमारा भ्रष्ट स्वभाव बदल ही नहीं सकता। हमारे पास सही मायने में परमेश्वर का हुक्म मानने और उनके प्रति श्रद्धा रखने का कोई रास्ता नहीं होगा। ऐसी स्थिति में, हम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के योग्य कैसे होंगे? जैसा कि आप देख सकते हैं, परमेश्वर लोगों का न्याय करते हैं क्योंकि वे उन्हें शुद्ध करना और उन्हें बचाना चाहते हैं। ये भ्रष्ट मानवता के लिए परमेश्वर का विशेष प्रेम और उद्धार है! अच्छा, परमेश्वर अपने न्याय का कार्य किस तरह करते हैं? सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने सत्य के बारे में बहुत-सी बातें कही हैं। आइये सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ वचन पढ़ें।
"इस समय जब परमेश्वर देहधारी हुआ, तो उसका कार्य, प्राथमिक रूप में ताड़ना और न्याय के द्वारा, अपने स्वभाव को व्यक्त करना है। इसे नींव के रूप में उपयोग करके वह मनुष्य तक अधिक सत्य को पहुँचाता है, अभ्यास करने के और अधिक मार्ग दिखाता है, और इस प्रकार मनुष्य को जातने और मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से बचाने के अपने उद्देश्य को प्राप्त करता है। राज्य के युग में परमेश्वर के पीछे यही निहित है" ("वचन देह में प्रकट होता है" के लिए प्रस्तावना)।
"अंत के दिनों में, मसीह मनुष्य को सिखाने के लिए विभिन्न प्रकार की सच्चाइयों का उपयोग करता है, मनुष्य के सार को उजागर करता है, और उसके वचनों और कर्मों का विश्लेषण करता है। इन वचनों में विभिन्न सच्चाइयों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर का आज्ञापालन करना चाहिए, हर व्यक्ति जो परमेश्वर के कार्य को मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मानवता से, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धि और उसके स्वभाव इत्यादि को जीना चाहिए। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खासतौर पर, वे वचन जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार से परमेश्वर का तिरस्कार करता है इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार से मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरूद्ध दुश्मन की शक्ति है। अपने न्याय का कार्य करने में, परमेश्वर केवल कुछ वचनों से ही मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता है; वह लम्बे समय तक इसे उजागर करता है, इससे निपटता है, और इसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने की इन विधियों, निपटने, और काट-छाँट को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसे मनुष्य बिल्कुल भी धारण नहीं करता है। केवल इस तरीके की विधियाँ ही न्याय समझी जाती हैं; केवल इसी तरह के न्याय के माध्यम से ही मनुष्य को वश में किया जा सकता है और परमेश्वर के प्रति समर्पण में पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इसके अलावा मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य जिस चीज़ को उत्पन्न करता है वह है परमेश्वर के असली चेहरे और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता के सत्य के बारे में मनुष्य में समझ। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा की, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य की, और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त करने देता है जो उसके लिए अबोधगम्य हैं। यह मनुष्य को उसके भ्रष्ट सार तथा उसकी भ्रष्टता के मूल को पहचानने और जानने, साथ ही मनुष्य की कुरूपता को खोजने देता है। ये सभी प्रभाव न्याय के कार्य के द्वारा निष्पादित होते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया गया न्याय का कार्य है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है")।
"परमेश्वर के पास मनुष्य को सिद्ध बनाने के अनेक साधन हैं। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से निपटने के लिए वह समस्त प्रकार के वातावरण प्रयोग करता है, और मनुष्य को नग्न करने के लिए विभिन्न चीजों का प्रयोग करता है, एक और वह मनुष्य के साथ निपटता है और दूसरी ओर मनुष्य को नग्न करता है, और एक अन्य बात में वह मनुष्य के हृदय के गहन रहस्यों को खोदकर और ज़ाहिर करते हुए, और मनुष्य को उसकी अनेक अवस्थाएँ दिखा करके उसका स्वभाव दर्शाते हुए मनुष्य को प्रकट करता है। परमेश्वर अनेक विधियों—प्रकाशन, व्यवहार करने, शुद्धिकरण, और ताड़ना—के द्वारा मनुष्य को सिद्ध बनाता है, जिससे मनुष्य जान सके कि परमेश्वर व्यावहारिक है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "मात्र वे लोग जो अभ्यास करने पर केन्द्रित रहते हैं, उन्हें ही सिद्ध बनाया जा सकता है")।
"परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य करता है ताकि मनुष्य उसे जाने, और उसकी गवाही को जाने। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव पर परमेश्वर के न्याय के बिना, मनुष्य परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं जानेगा जो कोई भी अपराध की अनुमति नहीं देता है, और परमेश्वर के बारे में अपनी पुरानी जानकारी को नई जानकारी में बदल नहीं सकता है। परमेश्वर की गवाही के लिए, और परमेश्वर के प्रबंधन की ख़ातिर, परमेश्वर अपनी सम्पूर्णता को सार्वजनिक बनाता है, इस प्रकार से मनुष्य को परमेश्वर का ज्ञान हासिल करने, अपने स्वभाव को बदलने, और परमेश्वर के सार्वजनिक प्रकटन के माध्यम से परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम बनाता है। मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन परमेश्वर के विभिन्न कार्यों के द्वारा प्राप्त होता है; मनुष्य के स्वभाव में इस प्रकार के परिवर्तन के बिना, मनुष्य परमेश्वर की गवाही देने में असमर्थ होगा, और परमेश्वर के हृदय के अनुसार नहीं बन सकता है। मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन दर्शाता है कि मनुष्य ने स्वयं को शैतान के बंधनों से मुक्त करा लिया है, अंधकार के प्रभाव से मुक्त कर लिया है और परमेश्वर के कार्य के लिए वास्तव में एक मॉडल और नमूना बन गया है, सचमुच परमेश्वर के लिए गवाह बन गया है और परमेश्वर के हृदय के अनुसार व्यक्ति बन गया है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल वही जो परमेश्वर को जानते हैं, उसकी गवाही दे सकते हैं")।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन बहुत व्यवहारिक हैं। परमेश्वर इंसान को बचाने और पूर्ण बनाने के लिये अंत के दिनों में, अपने वचन व्यक्त करते हैं और न्याय का कार्य करते हैं! सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के वचन पढ़कर, हमें आखिरकार समझ में आया कि इस अंधेरी काली दुनिया में, पूरी मानवजाति शैतान के अधिकार-क्षेत्र में रहती है। लोगों को शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, अब उनमें मानवता नाम की कोई चीज़ नहीं बची। वे सब अभिमानी, कुटिल, चालाक, स्वार्थी और व्यभिचारी हैं। वे लोग सच्चाई से ऊब चुके हैं और बुराई के प्रति श्रद्धा रखते हैं। वे अपनी पदवी और यश के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। वैसे ही जैसे आपस में जानवर लड़ते हैं, एक-दूसरे की हत्या करते हैं। उनमें न मानवता बची है और न विवेक। हालाँकि वे लोग परमेश्वर को मानते ज़रूर हैं, लेकिन पूजते हैं धन, यश और हैसियत को। वे लोग दुनियाभर में फैली बुराई का अनुसरण करते हैं, पाप, विद्रोह और परमेश्वर का विरोध करते रहते हैं। हालांकि वे लोग सबकुछ बलिदान कर, यातनाएँ सहते हैं, लेकिन वे लोग ये सब सिर्फ अपनी इच्छाओं को पूरा करने की खातिर, आशीष पाने के लिए करते हैं। पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिये करते हैं। वे लोग सत्य का अनुसरण करने या परमेश्वर को जानने या उसका हुक्म मानने के लिए ऐसा नहीं करते। हालांकि वे लोग परमेश्वर को मानते हैं, लेकिन फिर भी परमेश्वर के बारे में उनका मन अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से भरा है। दरअसल परमेश्वर के स्वभाव को, उसके पास जो है और जो वो है, उसे कोई नहीं जानता। परमेश्वर दरअसल किस तरह के लोग पसंद करते हैं, किस तरह के लोगों से घृणा करते हैं, लोग किस-किस तरह से परमेश्वर का विरोध करके, उसके स्वभाव को नाराज़ करके उसके द्वारा शापित होते हैं, लोगों के कितने तरह के विचार और धारणाएँ सच्चाई के अनुरूप नहीं हैं, परमेश्वर के सामने लोगों में किस तरह का विवेक होना चाहिये, उनमें किस तरह की सत्य की वास्तविकता होनी चाहिए, वगैरह-वगैरह। भ्रष्ट इंसान परमेश्वर को जानने, हुक्म मानने और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा रखने संबंधी इस महत्वपूर्ण सत्य के बारे में कुछ नहीं जानते। इस तरह की भीतर तक दूषित हो चुकी इंसानियत, अगर परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण का अनुभव नहीं लेती है तो वो परमेश्वर का विरोध और उसके साथ कपट कैसे न करेगी? अंत के दिनों में, भ्रष्ट मानवजाति की जरूरतों के हिसाब से इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर देहधारण कर सत्य व्यक्त करते हैं। परमेश्वर के धार्मिक और प्रतापी स्वभाव को नाराज नहीं किया जा सकता। वे उसे इंसान पर प्रकट करते हैं। लोगों की असल प्रकृति और भ्रष्ट आचरण साफ तौर पर प्रकट हो जाते हैं जो लोगों को आश्वस्त कर देता है। हमने परमेश्वर के न्याय और उनके वचनों की ताड़ना का अनुभव लिया है; हमने अपना अहंकार और स्वार्थ देखा है और हम अपने शैतानी सिद्धांत और नियमों के अनुसार ही जीते हैं। हम जो कुछ भी करते हैं, अपनी प्रसिद्धि और लाभ के लिए करते हैं। हम जो काम करते हैं और जो उपदेश देते हैं, वो भी अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए करते हैं। हम लगातार खुद को ऊंचा उठाते हैं, अपना सम्मान करते हैं और दूसरों से अपना गौरवगान कराते हैं। हम ये सब परमेश्वर का गौरवगान करने के लिये या परमेश्वर की गवाही देने के लिये कतई नहीं करते। जब परमेश्वर का कार्य हमारे विचारों के अनुरूप नहीं होता तो फिर हम परमेश्वर की व्याख्या और उसकी परख शुरू कर देते हैं। हम परमेश्वर के कट्टर विरोधी हैं और उनके हुक्म का पालन बिल्कुल नहीं करते। हम अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए भी दैहिक सुख भोग सकते हैं। हम परमेश्वर को लगातार धोखा देते हैं और उनके प्रति ज़रा भी वफादार नहीं हैं। परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन में हम देख सकते हैं कि हमें शैतान ने पूरी तरह दूषित कर दिया है। हम में न कोई अंतरात्मा है, न विवेक है और न मानवीय गरिमा है। हम इंसान कहलाने के लायक ही नहीं हैं। हम केवल शैतान की तरह ही परमेश्वर के दुश्मन हैं। हमें परमेश्वर से मिलने में शर्मिंदगी महसूस होती है और हम खुद को उस लायक नहीं समझते। हमारे पास परमेश्वर के सामने झुकने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता, हम खुद को शाप देते हैं, खुद से घृणा करते हैं। हमें जब वाकई परमेश्वर के उस धार्मिक स्वभाव का आनंद मिल जाता है जिसे नाराज़ नहीं किया जा सकता, तो हम परमेश्वर का भय मानने लगते हैं और ये समझ जाते हैं कि उनके नेक इरादे इंसानियत को बचाने के हैं। परमेश्वर हमारा न्याय करते हैं और हमें ताड़ना देते हैं क्योंकि उन्हें हमारे पापों और विद्रोह से घृणा है और वे हमें हमारे शैतानी स्वभाव से बचाना और प्राप्त करना चाहते हैं। जब हम अड़ियल तरीके से परमेश्वर से विद्रोह करने और उनका विरोध करने का जोखिम लेते हैं, तो वे हमें ताड़ना देते हैं और अनुशासित करते हैं। जब हम परमेश्वर को अपना दिल देते हैं, तो परमेश्वर हम पर दया करता है। हम जो कुछ करते हैं और जो हम हैं, उनके लिए वे हमें सज़ा नहीं देते। वह हमें प्रबुद्ध करते हैं और हमारी अगुवाई करते हैं और हमें अपनी इच्छा को समझने देते हैं। परमेश्वर की ताड़ना और न्याय के ज़रिये, हमें अनजाने में ही परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कुछ सच्चा ज्ञान प्राप्त हो जाता है। वे हमें यह जानने देते हैं कि उनके स्वभाव में दया और प्रेम है। हमने परमेश्वर की पवित्रता और महानता को देखा है। इससे हमारे मन में श्रद्धा और परमेश्वर का प्रेम जागा है। हम अपनी शैतानी प्रकृति के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानने लगते हैं धीरे-धीरे कुछ सत्य समझने लगते हैं। सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में भेद कर पाने की हमारी क्षमता धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। हर बात पर हमारा दृष्टिकोण बदलने लगता है और धीरे-धीरे सत्य के लिये हमारी प्यास जगने लगती है। अब हम सिद्धांतों और शैतान के कानूनों के सहारे नहीं जीना चाहते, या गलत तरीके से परमेश्वर से कुछ पाने की कोशिश नहीं करते। हम अपनी अंतरात्मा और अपना विवेक फिर से पा लेते हैं। हम हर काम में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना शुरू कर देते हैं। हम सृजित प्राणियों की तरह विनम्र भाव से अपने कर्तव्यों का निर्वाह और परमेश्वर के प्रभुत्व और व्यवस्थाओं का पालन करने लगते हैं। हमारा जीवन स्वभाव बदलता चला जाता है; हम एक असल इंसान की तरह जीना शुरू कर देते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद! उस तरह से बदलने की हमारी योग्यता परमेश्वर के न्याय के कार्य का असर है। आज अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने वाले सभी भाई और बहन अब जानते हैं कि हमें अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करना होगा और उनका हुक्म मानना होगा ताकि हम बचाए और पूर्ण किये जा सकें।
"स्वप्न से जागृति" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश
Source From :सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-सुसमाचार से सम्बन्धित सत्य

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