1. न्याय क्या है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
न्याय का कार्य परमेश्वर का स्वयं का कार्य है, इसलिए प्राकृतिक रूप से इसे परमेश्वर के द्वारा किया जाना चाहिए; उसकी जगह इसे मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सत्य के माध्यम से मानवजाति को जीतना न्याय है, इसलिए यह निर्विवाद है कि तब भी परमेश्वर मनुष्यों के बीच इस कार्य को करने के लिए देहधारी छवि के रूप में प्रकट होता है। अर्थात्, अंत के दिनों में, मसीह पृथ्वी के चारों ओर मनुष्यों को सिखाने के लिए और सभी सत्यों को उन्हें ज्ञात करवाने के लिए सत्य का उपयोग करेगा। यह परमेश्वर के न्याय का कार्य है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है" से
जब "न्याय" शब्द की बात आती है, तो तुम उन वचनों के बारे में सोचोगे जो यहोवा ने सभी स्थानों के लिए कहे थे और फटकार के उन वचनों के बारे में सोचोगे जो यीशु ने फरीसियों को कहे थे। अपनी समस्त कठोरता के कारण, ये वचन मनुष्य के बारे में परमेश्वर का न्याय नहीं हैं, ये केवल विभिन्न परिस्थितियों, अर्थात्, विभिन्न हालातों में परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन हैं; और ये वचन मसीह द्वारा तब कहे गए वचनों के असमान हैं जब वह अन्त के दिनों में मनुष्यों का न्याय करता है। अंत के दिनों में, मसीह मनुष्य को सिखाने के लिए विभिन्न प्रकार की सच्चाइयों का उपयोग करता है, मनुष्य के सार को उजागर करता है, और उसके वचनों और कर्मों का विश्लेषण करता है। इन वचनों में विभिन्न सच्चाइयों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर का आज्ञापालन करना चाहिए, हर अकेला व्यक्ति जो परमेश्वर के कार्य को, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मानवता से, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धि और उसके स्वभाव इत्यादि को जीना चाहिए। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खासतौर पर, वे वचन जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार से परमेश्वर का तिरस्कार करता है इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार से मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरूद्ध दुश्मन की शक्ति है। अपने न्याय का कार्य करने में, परमेश्वर केवल कुछ वचनों से ही मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता है; वह लम्बे समय तक इसे उजागर करता है, इससे निपटता है, और इसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने की इन विधियों, निपटने, और काट-छाँट को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसे मनुष्य बिल्कुल भी धारण नहीं करता है। केवल इस तरीके की विधियाँ ही न्याय समझी जाती हैं; केवल इसी तरह के न्याय के माध्यम से ही मनुष्य को वश में किया जा सकता है और परमेश्वर के प्रति समर्पण में पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इसके अलावा मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य जिस चीज़ को उत्पन्न करता है वह है परमेश्वर के असली चेहरे और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता के सत्य के बारे में मनुष्य में समझ। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा की, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य की, और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त करने देता है जो उसके लिए अबोधगम्य हैं। यह मनुष्य को उसके भ्रष्ट सार तथा उसकी भ्रष्टता के मूल को पहचानने और जानने, साथ ही मनुष्य की कुरूपता को खोजने देता है। ये सभी प्रभाव न्याय के कार्य के द्वारा निष्पादित होते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया गया न्याय का कार्य है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है" से
मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ वह लोगों के पापों और उनकी अधार्मिकता का न्याय करने के लिए है; यह लोगों की विद्रोहशीलता को शाप देने के लिए है। उनकी धोखेबाज़ी और कुटिलता, और उनके वचन और कार्य, वे सभी चीजें जो उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं हैं, न्याय से गुज़रेंगे, और लोगों की विद्रोहशीलता की पापमय के रूप में निंदा की जाती है। वह न्याय के सिद्धांतों के अनुसार बोलता है, और वह उनकी अधार्मिकता का न्याय करने,उनकी विद्रोहशीलता को शाप देने और उनके कुरूप चेहरों को उजागर करने के माध्यम से अपने धर्मी स्वभाव को प्रकट करता है। … न्याय, ताड़ना, और मानवजाति के पापों को उजागर करना-एक भी व्यक्ति या चीज इस न्याय से बच निकलने में सक्षम नहीं है। समस्त गंदगी का उसके द्वारा न्याय किया जाता है। यह केवल इसी के माध्यम से है कि उसका स्वभाव धर्मी कहा जाता है। अन्यथा, यह कैसे कहा जा सकता है कि तुम लोग विषमता कहे जाने के योग्य हो?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजय के कार्य का दूसरा कदम किस प्रकार से फल देता है" से
परमेश्वर के द्वारा मनुष्य की सिद्धता किसके द्वारा पूरी होती है? उसके धर्मी स्वभाव के द्वारा। परमेश्वर के स्वभाव मुख्यतः धार्मिकता, क्रोध, भव्यता, न्याय और शाप शामिल है, और उसके द्वारा मनुष्य की सिद्धता प्राथमिक रूप से न्याय के द्वारा होती है। कुछ लोग नहीं समझते, और पूछते हैं कि क्यों परमेश्वर केवल न्याय और शाप के द्वारा ही मनुष्य को सिद्ध बना सकता है। वे कहते हैं कि यदि परमेश्वर मनुष्य को शाप दे, तो क्या वह मर नहीं जाएगा? यदि परमेश्वर मनुष्य का न्याय करे, तो क्या वह दोषी नहीं ठहरेगा? तब वह कैसे सिद्ध बनाया जा सकता है? ऐसे शब्द उन लोगों के होते हैं जो परमेश्वर के कार्य को नहीं जानते। परमेश्वर मनुष्य की अवज्ञाकारिता को शापित करता है, और वह मनुष्य के पापों को न्याय देता है। यद्यपि वह बिना किसी संवेदना के कठोरता से बोलता है, फिर भी वह उन सबको प्रकट करता है जो मनुष्य के भीतर होता है, और इन कठोर वचनों के द्वारा वह उन सब बातों को प्रकट करता है जो मूलभूत रूप से मनुष्य के भीतर होती हैं, फिर भी ऐसे न्याय के द्वारा वह मनुष्य को शरीर के सार का गहरा ज्ञान प्रदान करता है, और इस प्रकार मनुष्य परमेश्वर के समक्ष आज्ञाकारिता के प्रति समर्पित होता है। मनुष्य का शरीर पाप का है, और शैतान का है, यह अवज्ञाकारी है, और परमेश्वर की ताड़ना का पात्र है - और इसलिए, मनुष्य को स्वयं का ज्ञान प्रदान करने के लिए परमेश्वर के न्याय के वचनों का उस पर पड़ना आवश्यक है और हर प्रकार का शोधन होना आवश्यक है; केवल तभी परमेश्वर का कार्य प्रभावशाली हो सकता है।
परमेश्वर के द्वारा बोले गए वचनों से यह देखा जा सकता है कि उसने मनुष्य के शरीर को पहले से ही दोषी ठहरा दिया है। क्या ये वचन फिर शाप के वचन हैं? परमेश्वर के द्वारा बोले गए वचन मनुष्य के सच्चे स्वभाव को प्रकट करते हैं, और ऐसे प्रकाशनों के द्वारा तुम्हें न्याय मिलता है, और जब तुम देखते हो तुम परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ हो, तो तुम अपने भीतर शोक और ग्लानि को अनुभव करते हो, तुम महसूस करते हो कि तुम परमेश्वर के बहुत ऋणी हो, और परमेश्वर की इच्छा के लिए अपर्याप्त हो। ऐसे समय होते हैं जब पवित्र आत्मा तुम्हें भीतर से अनुशासित करता है, और यह अनुशासन परमेश्वर के न्याय से आता है; ऐसे समय होते हैं जब परमेश्वर तुम्हारा तिरस्कार करता है और अपना चेहरा तुमसे छुपा लेता है, जब वह कोई ध्यान नहीं देता, और तुम्हारे भीतर कार्य नहीं करता, और तुम्हें शुद्ध करने के लिए बिना आवाज के तुम्हें ताड़ना देता है। मनुष्य में परमेश्वर का कार्य प्राथमिक रूप से अपने धर्मी स्वभाव को स्पष्ट करने के लिए होता है। मनुष्य अंततः कैसी गवाही परमेश्वर के बारे में देता है? वह गवाही देता है कि परमेश्वर धर्मी परमेश्वर है, कि उसके स्वभाव में धार्मिकता, क्रोध, ताड़ना और न्याय शामिल हैं; मनुष्य परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की गवाही देता है। परमेश्वर अपने न्याय का प्रयोग मनुष्य को सिद्ध बनाने के लिए करता है, वह मनुष्य से प्रेम करता रहा है और उसे बचाता रहा है - परंतु उसके प्रेम में कितना कुछ शामिल है? उसमें न्याय, भव्यता, क्रोध, और शाप है। यद्यपि परमेश्वर ने मनुष्य को अतीत में शाप दिया था, परंतु उसने मनुष्य को अथाह कुण्ड में नहीं फेंका था, बल्कि उसने उस माध्यम का प्रयोग मनुष्य के विश्वास को शुद्ध करने के लिए किया था; उसने मनुष्य को मार नहीं डाला था, उसने मनुष्य को सिद्ध बनाने का कार्य किया था। शरीर का सार वह है जो शैतान का है - परमेश्वर ने इसे बिलकुल सही कहा है - परंतु परमेश्वर के द्वारा बताई गईं वास्तविकताएँ उसके वचनों के अनुसार पूरी नहीं हुई हैं। वह तुम्हें शाप देता है ताकि तुम उससे प्रेम करो, ताकि तुम शरीर के सार को जान लो; वह तुम्हें इसलिए ताड़ना देता है ताकि तुम जागृत हो जाओ, कि वह तुम्हें अनुमति दे कि तुम अपने भीतर की कमियों को जान लो, और मनुष्य की संपूर्ण अयोग्यता को जान लो। इस प्रकार, परमेश्वर के शाप, उसका न्याय, और उसकी भव्यता और क्रोध - वे सब मनुष्य को सिद्ध बनाने के लिए हैं। वह सब जो परमेश्वर आज करता है, और धर्मी स्वभाव जिसे वह तुम लोगों के भीतर स्पष्ट करता है - यह सब मनुष्य को सिद्ध बनाने के लिए है, और परमेश्वर का प्रेम ऐसा ही है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल पीड़ादायक परीक्षाओं का अनुभव करने के द्वारा ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो" से
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