प्रश्न 29: तुम यह प्रमाण देते हो कि प्रभु यीशु पहले से ही सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में लौट चुका है, वह उस संपूर्ण सत्य को अभिव्यक्त करता है जो मानवता को शुद्ध बनाता और उसे बचाता है और वह परमेश्वर के परिवार से शुरू होने वाले न्याय के कार्य को करता है, तो हमें परमेश्वर की आवाज़ को कैसे पहचाननी चाहिए और हमें कैसे इस बात की पुष्टि करनी चाहिए कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर वास्तव में लौटा हुआ प्रभु यीशु ही है?
उत्तर:
आपलोगों ने अभी-अभी जो प्रश्न पूछा वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने और परमेश्वर के प्रकटन को देखने के लिए, हमें यह जानना होगा कि परमेश्वर की आवाज की पहचान कैसे की जाए। वास्तव में, परमेश्वर की आवाज पहचानने का अर्थ है परमेश्वर के वचनों और कथनों को पहचानना, और सृष्टिकर्ता के वचनों की विशेषताओं को पहचानना। चाहे वे देहधारी परमेश्वर के वचन हों, या परमात्मा के कथन हों, वे सभी ऊपर आकाश से परमेश्वर द्वारा मानवजाति को कहे गए वचन हैं। परमेश्वर के वचनों का सुर एवं विशेषता कुछ ऐसी ही होती है। परमेश्वर के अधिकार एवं पहचान स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं। कहा जा सकता है कि यह ऐसा अद्वितीय माध्यम है जिसके द्वारा सृष्टिकर्ता बोलते हैं। परमेश्वर जब भी देहधारी होते हैं, हर बार उनके कथन निश्चित रूप से बहुत से क्षेत्रों को कवर करते हैं। उनका संबंध मुख्य रूप से परमेश्वर की अपेक्षाओं और मनुष्यों के भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियों, परमेश्वर के वचनों की प्रशासनिक आज्ञाओं एवं आदेशों से, न्याय एवं ताड़ना के उनके वचनों, तथा उनके द्वारा भ्रष्ट मानवजाति के प्रकटन से होता है। इसी तरह भविष्यवाणियों के कथन और मानवजाति से किए गए परमेश्वर के वादे आदि भी हैं। ये सभी वचन सत्य, मार्ग और जीवन की अभिव्यक्ति हैं। वे सभी परमेश्वर के जीवन के सार का प्रकटन हैं। वे परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के अस्तित्व और वह जो है, उसका प्रतिनिधित्व करते हैं। हम परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचनों से यह देख पाते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और उनमें अधिकार एवं सामर्थ्य है। इसलिए, यदि आप यह तय करना चाहते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचन, परमेश्वर के वचन हैं या नहीं, तो आप प्रभु यीशु के वचनों एवं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों पर नज़र डाल सकते हैं। आप उनकी तुलना कर सकते हैं, और देख सकते हैं कि वे एक आत्मा द्वारा व्यक्त वचन हैं या नहीं, और वे परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य हैं या नहीं। यदि उनका स्रोत समान है, तो इससे सिद्ध होता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के कथन हैं, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही परमेश्वर का प्रकटन हैं। आइए, व्यवस्था के युग में यहोवा, और अनुग्रह के युग में यीशु द्वारा कहे गए वचनों पर नज़र डालते हैं। वे दोनों ही पवित्र आत्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति थे, तथा एक परमेश्वर के कार्य थे। इससे सिद्ध होता है कि प्रभु यीशु, यहोवा का प्रकटन थे, अर्थात सृष्टिकर्ता का प्रकटन थे। जिन्होंने बाइबल पढ़ी है वे सभी जानते हैं कि अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त वचनों में, मनुष्य के भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियों के वचन, मनुष्यों से परमेश्वर की अपेक्षाओं के वचन, तथा परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं से संबंधित वचन शामिल थे। इसी तरह, कई भविष्यवाणियों और वादों आदि के वचन भी थे। ये अनुग्रह के युग में परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य का एक पूरा चरण थे।
प्रभु की भेड़ें उनकी आवाज़ सुनती हैं। जब बात यह हो कि विशेष रूप से परमेश्वर की आवाज़ की पहचान कैसे की जाती है, तो यदि हम प्रभु यीशु के वचनों पर एक नज़र डाल लें तो सब कुछ साफ हो जाएगा। सबसे पहले, हम प्रभु यीशु की मनुष्यों से अपेक्षाओं एवं भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियों को देखेंगे। उदाहरण के लिए, प्रभु यीशु ने कहा था, "मन फिराओ: क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है" (मत्ती 4:17)। "तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख। ये ही दो आज्ञाएँ सारी व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं का आधार हैं" (मत्ती 22:37-40)। मत्ती के अध्याय 5 में, प्रभु यीशु ने कहा था: "धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। …धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किए जाएँगे। …धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के कारण सताए जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। 'धन्य हो तुम, जब मनुष्य मेरे कारण तुम्हारी निन्दा करें, और सताएँ, और झूठ बोल बोलकर तुम्हारे विरोध में सब प्रकार की बुरी बात कहें। तब आनन्दित और मगन होना, क्योंकि तुम्हारे लिये स्वर्ग में बड़ा फल है'" (मत्ती 5:3, 6, 10-12)।
आइए देखते हैं कि प्रभु यीशु ने प्रशासनिक आज्ञाओं के बारे में क्या कहा था। मत्ती 12:31-32, प्रभु यीशु ने कहा था, "इसलिये मैं तुम से कहता हूँ कि, मनुष्य का सब प्रकार का पाप और निन्दा क्षमा की जाएगी: परन्तु पवित्र आत्मा की निन्दा क्षमा न की जाएगी। जो कोई मनुष्य के पुत्र के विरोध में कोई बात कहेगा, उसका यह अपराध क्षमा किया जाएगा, परन्तु जो कोई पवित्र आत्मा के विरोध में कुछ कहेगा, उसका अपराध न तो इस लोक में और न परलोक में क्षमा किया जाएगा।" साथ ही, मत्ती 5:22 में प्रभु यीशु ने कहा था: "परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ, कि जो कोई अपने भाई पर क्रोध करेगा, वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा: और जो कोई अपने भाई को निकम्मा कहेगा वह महासभा में दण्ड के योग्य होगा: और जो कोई कहे 'अरे मूर्ख' वह नरक की आग के दण्ड के योग्य होगा।"
प्रशासनिक आज्ञाओं के इन वचनों के अतिरिक्त, प्रभु यीशु के, फरीसियों का आकलन करने वाले एवं उन्हें उजागर करने वाले वचन भी हैं। प्रभु यीशु ने कहा था, "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो: न तो स्वयं ही उसमें प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो" (मत्ती 23:13)। "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम एक जन को अपने मत में लाने के लिये सारे जल और थल में फिरते हो, और जब वह मत में आ जाता है तो उसे अपने से दूना नारकीय बना देते हो" (मत्ती 23:15)।
भाइयों और बहनों, प्रभु यीशु ने भविष्यवाणियां एवं मनुष्यों से किए गए वादे भी कहे थे। यूहन्ना 14:2-3 में, प्रभु यीशु ने कहा था, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा: कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो।" इसके अलावा यूहन्ना 12:47-48 भी है, जिसमें प्रभु यीशु ने कहा था, "यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता: क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा।" इसी प्रकार प्रकाशित वाक्य 21:3-4 भी है: "देख, परमेश्वर का डेरा मनुष्यों के बीच में है, वह उनके साथ डेरा करेगा, और वे उसके लोग होंगे, और परमेश्वर आप उनके साथ रहेगा और उनका परमेश्वर होगा। वह उनकी आँखों से सब आँसू पोंछ डालेगा: और इसके बाद मृत्यु न रहेगी, और न शोक, न विलाप, न पीड़ा रहेगी; पहली बातें जाती रहींI"
अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त विभिन्न सत्यों से, हम यह देख सकते हैं कि प्रभु यीशु ही उद्धारकर्ता का प्रकटन थे, और प्रभु यीशु के वचन, पूरी मानवजाति से कहे गए परमेश्वर के कथन हैं। उन्होंने सीधे तौर पर प्रभु के स्वभाव और मानवजाति के लिए उनकी इच्छा, मानवजाति का नेतृत्व करने, मानवजाति को भरण-पोषण देने, और मानवजाति को व्यक्तिगत रूप से मुक्ति देने की बातें कहीं। यह आदर्श रूप से स्वयं परमेश्वर की पहचान एवं अधिकार को दर्शाता है। उन्हें पढ़ने से तुरंत ही हमें एहसास होता है कि ये शब्द सत्य हैं, तथा इनमें अधिकार एवं सामर्थ्य है। ये वचन, परमेश्वर की आवाज हैं, मानवजाति से कहे गए परमेश्वर के कथन हैं। अंत के दिनों में, प्रभु यीशु लौट आए हैं: सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों का न्याय का कार्य करने के लिए लौट आए हैं। उन्होंने राज्य के युग का सूत्रपात किया है और अनुग्रह के युग का अंत कर दिया है। प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य के आधार पर, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने परमेश्वर के घर से आरंभ करते हुए न्याय के कार्य का चरण पूरा कर दिया है, और मानवजाति के शुद्धिकरण तथा उद्धार के लिए सभी सत्य व्यक्त कर दिए हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचन, विषय-वस्तु से समृद्ध और सविस्तार हैं। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "यह कहना उचित है कि सृजन के बाद यह पहली बार है कि परमेश्वर ने समस्त मानव जाति को संबोधित किया था। इससे पहले परमेश्वर ने कभी भी इतने विस्तार से और इतने व्यवस्थित तरीके से निर्मित मानव जाति से बात नहीं की थी। निस्संदेह, यह भी पहली बार ही था कि उसने इतनी अधिक, और इतने लंबे समय तक, समस्त मानव जाति से बात की थी। यह पूर्णतः अभूतपूर्व था। इसके अलावा, ये कथन मानवता के बीच परमेश्वर द्वारा व्यक्त किये गये पहले पाठ थे जिसमें उसने लोगों की बुराइयों को दिखाया, उनका मार्गदर्शन किया, उनका न्याय किया, और उनसे खुल कर बात की और इसलिए भी, वे पहले कथन थे जिनमें परमेश्वर ने अपने पदचिह्नों को, उस स्थान को जिसमें वह रहता है, परमेश्वर के स्वभाव को, परमेश्वर के स्वरूप को, परमेश्वर के विचारों को, और मानवता के लिए उसकी चिंता को लोगों को जानने दिया। यह कहा जा सकता है कि ये ही पहले कथन थे जो परमेश्वर ने सृष्टि के बाद तीसरे स्वर्ग से मानव जाति के लिए बोले थे, और पहली बार था कि परमेश्वर ने मानव जाति हेतु शब्दों के बीच अपनी आवाज प्रकट करने और व्यक्त करने के लिए अपनी अंतर्निहित पहचान का उपयोग किया" (वचन देह में प्रकट होता है के भाग एक के परिचय से)। और सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचन विस्तृत प्रकार के और अतुलनीय रूप से समृद्ध हैं। उनमें मुख्य रूप से न्याय, मनुष्यों को उजागर किया जाना, एवं राज्य के युग की प्रशासनिक आज्ञाएं एवं आदेश शामिल हैं, साथ-ही-साथ परमेश्वर की मनुष्यों के भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियां, अपेक्षाएं, मनुष्यों से किए गए वादे, भविष्यवाणियां आदि भी निहित हैं। चलिए सबसे पहले परमेश्वर की मनुष्य के भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियों एवं अपेक्षाओं तथा उनके कार्य के बारे में परमेश्वर के वचन के कई अंश पढ़ते हैं।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "आज, जो मेरे लिए वास्तविक प्रेम रखते हैं, ऐसे लोग ही धन्य हैं: जो मुझे समर्पित रहते हैं वे धन्य हैं, वे निश्चय ही मेरे राज्य में रहेंगे: जो मुझे जानते हैं वे धन्य हैं, वे निश्चय ही मेरे राज्य में शक्ति प्राप्त करेंगे: जो मेरा अनुसरण करते हैं वे धन्य हैं, वे निश्चय ही शैतान के बंधनों से स्वतंत्र होंगे और मेरी आशीषों का आनन्द लेंगे: वे लोग धन्य हैं जो अपने आप को मेरे लिए त्यागते हैं, वे निश्चय ही मेरे राज्य को प्राप्त करेंगे और मेरे राज्य का उपहार पाएंगे। जो लोग मेरे खातिर मेरे चारों ओर दौड़ते हैं उनके लिए मैं उत्सव मनाऊंगा, जो लोग मेरे लिए अपने आप को समर्पित करते हैं मैं उन्हें आनन्द से गले लगाऊंगा, जो लोग मुझे भेंट देते हैं मैं उन्हें आनन्द दूंगा। जो लोग मेरे शब्दों में आनन्द प्राप्त करते हैं उन्हें मैं आशीष दूंगा; वे निश्चय ही ऐसे खम्भे होंगे जो मेरे राज्य में शहतीर को थामने वाले होंगे, वे निश्चय ही अनेकों उपहारों को मेरे घर में प्राप्त करेंगे और उनके साथ कोई तुलना नहीं कर पाएगा" (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये परमेश्वर के कथन "वचन देह में प्रकट होता है" के "उन्नीसवाँ कथन" से लिया गया)।
"यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया है, उसने केवल समस्त मानवजाति के छुटकारे के कार्य को पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना, मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। शैतान के प्रभाव से मनुष्य को पूरी तरह बचाने के लिये यीशु को न केवल पाप-बलि के रूप में मनुष्यों के पापों को लेना आवश्यक था, बल्कि मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से पूरी तरह मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़े कार्य करने की आवश्यकता थी जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था। और इसलिए, मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिए जाने के बाद, एक नये युग में मनुष्य की अगुवाई करने के लिए परमेश्वर वापस देह में लौटा, और उसने ताड़ना एवं न्याय के कार्य को आरंभ किया, और इस कार्य ने मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में पहुँचा दिया। वे सब जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़ी आशीषें प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे, और सत्य, मार्ग और जीवन को प्राप्त करेंगे।
यदि लोग अनुग्रह के युग में बने रहेंगे, तो वे कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त नहीं होंगे, और परमेश्वर के अंर्तनिहित स्वभाव को जानने की बात को तो जाने ही दें। यदि लोग सदैव अनुग्रह की प्रचुरता में रहते हैं, परंतु वे जीवन के उस मार्ग के बिना हैं, जो उन्हें परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने देता है, तब वे उसे वास्तव में कभी भी प्राप्त नहीं करेंगे, यद्यपि वे उस पर विश्वास करते हैं। यह विश्वास का कैसा दयनीय स्वरूप है" ("वचन देह में प्रकट होता है" के लिए प्रस्तावना से)।
"मनुष्य को छुटकारा दिये जाने से पहले, शैतान के बहुत से ज़हर उसमें पहले से ही गाड़ दिए गए थे। हज़ारों वर्षों की शैतान की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य के भीतर पहले ही ऐसा स्वभाव है जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिया गया है, तो यह छुटकारे से बढ़कर और कुछ नहीं है, जहाँ मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, परन्तु भीतर का विषैला स्वभाव नहीं हटाया गया है। मनुष्य जो इतना अशुद्ध है उसे परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर अवश्य गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से, मनुष्य अपने भीतर के गन्दे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने में समर्थ हो सकता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से)।
"कोई भी सक्रिय तौर पर परमेश्वर के नक्शेकदमों या उपस्थिति नहीं खोजता है और कोई भी परमेश्वर की देखभाल और संरक्षण में नहीं रहना चाहता। परन्तु वे शैतान और दुष्टता की इच्छा पर भरोसा करने को तैयार रहते हैं ताकि इस संसार और दुष्ट मानवजाति के जीवन के नियमों का पालन करने के लिए अनुकूल बन जाएँ। इस बिन्दु पर, मनुष्य का हृदय और आत्मा शैतान के लिए बलिदान हो जाते हैं और वे उसके बने रहने का सहारा बन जाते हैं। इसके अलावा, मनुष्य का हृदय और आत्मा शैतान का निवास और उपयुक्त खेल का मैदान बन जाते हैं। इस प्रकार से, मनुष्य अनजाने में अपने मानव होने के नियमों की समझ, और मानव के मूल्य और उसके अस्तित्व के उद्देश्य को खो देता है। परमेश्वर से प्राप्त नियमों और परमेश्वर तथा मनुष्य के मध्य की वाचा धीरे-धीरे मनुष्य के हृदय से क्षीण होती जाती है और मनुष्य परमेश्वर पर अपना ध्यान केन्द्रित करना या उसे खोजना बंद कर देता है। जैसे-जैसे समय बीतता है, मनुष्य समझ नहीं पाता कि परमेश्वर ने मनुष्य को क्यों बनाया है, न ही वह परमेश्वर के मुख से निकलने वाले शब्दों को समझ पाता है या न ही जो कुछ परमेश्वर से होता है उसे महसूस कर पाता है। मनुष्य परमेश्वर के नियमों और आदेशों का विरोध करना प्रारम्भ कर देता है; मनुष्य का हृदय और आत्मा शक्तिहीन हो जाते हैं… परमेश्वर अपनी मूल रचना के मनुष्य को खो देता है, और मनुष्य अपने प्रारम्भ के मूल को खो देता है। यही इस मानवजाति का दुख है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है" से)।
"आज जहाँ पर मानवजाति है, वहाँ तक पहुँचने के लिए, उसे हज़ारों हज़ार साल लग गए। हालांकि, मेरी मूल सृष्टि का मानव बहुत पहले ही अधोगति को प्राप्त हो चुका है। मानवजाति वैसी नहीं है, जैसी मैं चाहता था, मैं लोगों को जिस प्रकार का पाता हूं, वे अब मानव कहलाने लायक नहीं रह गये हैं। बल्कि वे मानव जाति के ऐसे अयोग्य लोग हैं, जो शैतान द्वारा लूटे गए हैं, और सड़ी हुई चलती-फिरती लाशें हैं जिनमें शैतान जीवित है और आच्छादित है। लोग मेरे अस्तित्व में थोड़ा सा भी विश्वास नहीं करते हैं, न ही वे मेरे आने का स्वागत करते हैं। मानव जाति मेरे निवेदनों का प्रत्युत्तर सिर्फ़ जलते-भुनते हुए देती है, उनके साथ अस्थायी रूप से ही सहमत होती है, और अपने जीवन के सुखों और दुखों को मेरे साथ ईमानदारी से नहीं बांटती है। जब लोग मुझे अगम्य रूप में देखते हैं, तो वे मेरे सामने डाह से मुस्कुराने का दिखावा करते हैं, शक्ति के सामने अपने लाड़-प्यार के तरीके को धोखा देते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों को मेरे कार्य के बारे में ज्ञान नहीं है, आज के लिए मेरे वह इरादे को तो वे बिल्कुल भी नहीं जानते हैं। मैं तुम लोगों से ईमानदारी से कहता हूं-जब वह दिन आयेगा, हर वह व्यक्ति जो मेरी आराधना करता है उसका दुःख सहन करना तुम लोगों के दुख से आसान होगा। मुझ में तुम्हारे विश्वास की मात्रा, वास्तव में, अय्यूब से अधिक नहीं है—और यहाँ तक कि यहूदी फरीसियों का विश्वास भी तुम लोगों से कहीं अधिक बढ़कर था—इसलिए जल्द आने वाले आग के दिनों में, तुम सब उन फरीसियों से भी बढ़कर गंभीर रूप से कष्ट सहोगे जब यीशु ने उनको डांटा था, उन 250 अगुओं से भी बढ़कर गंभीर रूप से जिन्होंने मूसा का विरोध किया था, और सदोम से भी बढ़कर जब आग के द्वारा उसका विनाश किया गया था" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "एक वास्तविक मनुष्य होने का क्या अर्थ है" से)।
"शैतान के द्वारा भ्रष्ट किए जाने पर मनुष्य ने, परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी शत्रु बनते हुए, अपना धर्मभीरू हृदय गँवा दिया है और उस प्रकार्य को गँवा दिया जो परमेश्वर के सृजित प्राणियों में से एक के पास होना चाहिए। मनुष्य शैतान के अधिकार क्षेत्र के अधीन रहा और उसने उसके आदेशों का पालन किया; इस प्रकार, अपने प्राणियों के बीच कार्य करने का परमेश्वर के पास कोई मार्ग नहीं था, और तो और अपने प्राणियों से परमेश्वर का भय प्राप्त करने में असमर्थ था। मनुष्य परमेश्वर के द्वारा सृजित था, और उसे परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए थी, परंतु मनुष्य ने वास्तव में परमेश्वर की ओर पीठ फेर दी और शैतान की आराधना की। शैतान मनुष्य के हृदय में प्रतिमा बन गया। इस प्रकार, परमेश्वर ने मनुष्य के हृदय में अपना स्थान खो दिया, जिसका मतलब है कि उसने मनुष्य के सृजन के अपने अर्थ को खो दिया, इसलिए मनुष्य के सृजन के अपने अर्थ को पुनर्स्थापित करने के लिए उसे अवश्य मनुष्य की मूल समानता को पुनर्स्थापित करना चाहिए, और मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से छुड़ाना चाहिए। शैतान से मनुष्य को वापस प्राप्त करने के लिए, उसे अवश्य मनुष्य को पाप से बचाना चाहिए। केवल इसी तरह से वह धीरे-धीरे मनुष्य की मूल समानता को पुनर्स्थापित कर सकता है और मनुष्य के मूल प्रकार्य को पुनर्स्थापित कर सकता है, और अंतः अपने राज्य को पुनर्स्थापित कर सकता है। अवज्ञा के उन पुत्रों को अंतिम रूप से इसलिए भी नष्ट किया जाएगा ताकि मनुष्य को बेहतर ढंग से परमेश्वर की आराधना करने दी जाए और पृथ्वी पर बेहतर ढंग से जीने दिया जाए। चूँकि परमेश्वर ने मानवों का सृजन किया है, इसलिए वह मनुष्य से अपनी आराधना करवाएगा: चूँकि वह मनुष्य के मूल प्रकार्य को पुनर्स्थापित करना चाहता है, इसलिए वह उसे पूर्ण रूप से और बिना किसी मिलावट के पुनर्स्थापित करेगा। अपना अधिकार पुनर्स्थापित करने का अर्थ है, मनुष्य से अपनी आराधना करवाना और मनुष्य से अपना आज्ञापालन करवाना; इसका अर्थ है कि वह अपनी वजह से मनुष्य को जीवित रखवाएगा, और अपने अधिकार की वजह से अपने शत्रुओं को नष्ट करवाएगा; इसका अर्थ है कि वह अपने हर अंतिम भाग को मानवजाति के बीच और मनुष्य द्वारा किसी भी प्रतिरोध के बिना बनाए रखेगा। जो राज्य वह स्थापित करना चाहता है, वह उसका स्वयं का राज्य है। जिस मानवजाति की वह इच्छा करता है वह है जो उसकी आराधना करती है, जो पूर्णतः उसकी आज्ञा का पालन करती है और उसकी महिमा रखती है। यदि वह भ्रष्ट मानवजाति को नहीं बचाता है, तो मनुष्य का सृजन करने का उसका अर्थ व्यर्थ हो जाएगा; मनुष्यों के बीच उसका अब और अधिकार नहीं रहेगा, और पृथ्वी पर उसके राज्य का अस्तित्व अब और नहीं रह पाएगा। यदि वह उन शत्रुओं का नाश नहीं करता है जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं, तो वह अपनी संपूर्ण महिमा को प्राप्त करने में असमर्थ होगा, न ही वह पृथ्वी पर अपने राज्य की स्थापना करने में समर्थ होगा। ये परमेश्वर का कार्य पूरा होने के प्रतीक हैं और उसकी महान उपलब्धियों की पूर्णता के प्रतीक हैं: मानवजाति में से उन सबको सर्वथा नष्ट करना जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं, और जो पूर्ण किए जा चुके हैं उन्हें विश्राम में लाना" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर और मनुष्य एक साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे" से)।
"तुम सिर्फ यह जानते हो कि यीशु अन्तिम दिनों के दौरान आयेगा, परन्तु वास्तव में वह कैसे आयेगा? तुम जैसा पापी, जिसे बस अभी अभी छुड़ाया गया है, और परिवर्तित नहीं किया गया है, या परमेश्वर के द्वारा सिद्ध नहीं किया गया है, क्या तुम परमेश्वर के हृदय के अनुसार हो सकते हो? तुम्हारे लिए, तुम जो अभी भी पुराने मनुष्यत्व के हो, यह सत्य है कि तुम्हें यीशु के द्वारा बचाया गया था, और यह कि परमेश्वर के उद्धार के कारण तुम्हें एक पापी के रूप में नहीं गिना जाता है, परन्तु इससे यह साबित नहीं होता है कि तुम पापपूर्ण नहीं हो, और अशुद्ध नहीं हो। यदि तुमने अपने आपको नहीं बदला है तो तुम संत के समान कैसे हो सकते हो? भीतर से, तुम अशुद्धता के द्वारा घिरे हुए हो, स्वार्थी एवं कुटिल हो, फिर भी तुम चाहते हो कि यीशु के साथ आओ – तुम्हें बहुत ही भाग्यशाली होना चाहिए! तुम परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में एक चरण में चूक गए हो: तुम्हें महज छुड़ाया गया है, परन्तु परिवर्तित नहीं किया गया है। तुम्हें परमेश्वर के हृदय के अनुसार होने के लिए, परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से तुम्हें बदलने एवं शुद्ध करने के कार्य को करना होगा; यदि तुम्हें सिर्फ छुड़ाया गया है, तो तुम शुद्धता को हासिल करने में असमर्थ होगे। इस रीति से तुम परमेश्वर की अच्छी आशिषों में भागी होने के लिए अयोग्य होगे, क्योंकि तुमने मनुष्य का प्रबंध करने के परमेश्वर के कार्य के एक चरण को पाने का ससुअवसर खो दिया है, जो बदलने एवं पूर्ण करने का मुख्य चरण है। और इस प्रकार तुम, एक पापी जिसे बस अभी अभी छुड़ाया गया है, परमेश्वर की विरासत को सीधे तौर पर उत्तराधिकार के रूप में पाने में असमर्थ हैं" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "पद नामों एवं पहचान के सम्बन्ध में" से)।
"तुझे जानना होगा कि मैं किस प्रकार के लोगों की इच्छा करता हूँ: ऐसे लोग जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई है ऐसे लोग जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को गंदा करने की अनुमति नहीं दी गई है। हालाँकि तूने शायद अधिक कार्य किया है, और कई सालों तक कार्य किया है फिर भी अन्त में तू दुखदाई रूप से मैला है—यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय है कि तू मेरे राज्य में प्रवेश करने की कामना करता है!" संसार की नींव से लेकर आज तक, मैंने कभी भी उन लोगों को अपने राज्य के लिए आसान मार्ग का प्रस्ताव नहीं दिया है जो अनुग्रह पाने के लिए मेरी खुशामद करते हैं। यह स्वर्गीय नियम है, और इसे कोई तोड़ नहीं सकता है! तुझे जीवन की खोज करनी ही होगी। आज, ऐसे लोग जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे पतरस के ही समान हैं: वे ऐसे लोग हैं जो अपने स्वयं के स्वभाव में परिवर्तनों की कोशिश करते हैं, और वे परमेश्वर के लिए गवाही देने, और परमेश्वर के प्राणी के रुप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार हैं। केवल ऐसे ही लोगों को पूर्ण बनाया जाएगा। यदि तू केवल प्रतिफलों की ओर ही देखता है, और अपने स्वयं के जीवन स्वभाव को परिवर्तित करने की कोशिश नहीं करता है तो तेरे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—और यह एक अटल सत्य है!" ("वचन देह में प्रकट होता है" से “सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है” से)।
राज्य के युग में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के कार्य के संबंध में, आइए अब सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कई अंशों को पढ़ते हैं।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अंत के दिनों में, मसीह मनुष्य को सिखाने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है, मनुष्य के सार को प्रकट करता है, और उसके वचनों और कर्मों का विश्लेषण करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्य शामिल हैं, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मानवता से, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धि और उसके स्वभाव इत्यादि को जीना चाहिए। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर केन्द्रित हैं। खासतौर पर, वे वचन जो यह प्रगट करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार से परमेश्वर का तिरस्कार करता है इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार से मनुष्य शैतान का अवतार और परमेश्वर के विरूद्ध दुश्मन की शक्ति है। जब परमेश्वर न्याय का कार्य करता है, तो वह केवल कुछ वचनों से ही मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता है; बल्कि लम्बे समय तक प्रकाशन, व्यवहार, और काँट-छाँट कार्यान्वित करता है। इस प्रकार का प्रकाशन, व्यवहार और काँट-छाँट साधारण वचनों से नहीं, बल्कि सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसे मनुष्य बिल्कुल भी धारण नहीं करता है। केवल इस तरीके का कार्य ही न्याय समझा जाता है, केवल इसी प्रकार के न्याय के द्वारा ही मनुष्य को अधीन किया जा सकता है, परमेश्वर के प्रति समर्पण में पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य परमेश्वर के असली चेहरे और उसके विद्रोहीशीलता के सत्य के बारे में मनुष्य में समझ उत्पन्न करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा की, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य की, और मनुष्य की समझ में न आ सकने वाले रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त करने देता है। यह मनुष्य को उसके भ्रष्ट सार तथा उसके भ्रष्टाचार के मूल को पहचानने और जानने, साथ ही मनुष्य की कुरूपता को खोजने देता है। ये सभी प्रभाव न्याय के कार्य के द्वारा निष्पादित होते हैं, क्योंकि इस तरह के कार्य का सार ही उन सभी के लिए वास्तव में परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया गया न्याय का कार्य है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है" से)।
"परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य करता है ताकि मनुष्य उसे जाने, और उसकी गवाही को जाने। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव पर परमेश्वर के न्याय के बिना, मनुष्य परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं जानेगा जो कोई भी अपराध की अनुमति नहीं देता है, और परमेश्वर के बारे में अपनी पुरानी जानकारी को नई जानकारी में बदल नहीं सकता है। परमेश्वर की गवाही के लिए, और परमेश्वर के प्रबंधन की ख़ातिर, परमेश्वर अपनी सम्पूर्णता को सार्वजनिक बनाता है, इस प्रकार से मनुष्य को परमेश्वर का ज्ञान हासिल करने, अपने स्वभाव को बदलने, और परमेश्वर के सार्वजनिक प्रकटन के माध्यम से परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम बनाता है। मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन परमेश्वर के विभिन्न कार्यों के द्वारा प्राप्त होता है; मनुष्य के स्वभाव में इस प्रकार के परिवर्तन के बिना, मनुष्य परमेश्वर की गवाही देने में असमर्थ होगा, और परमेश्वर के हृदय के अनुसार नहीं बन सकता है। मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन दर्शाता है कि मनुष्य ने स्वयं को शैतान के बंधनों से मुक्त करा लिया है, अंधकार के प्रभाव से मुक्त कर लिया है, और परमेश्वर के कार्य के लिए वास्तव में एक मॉडल और नमूना बन गया है, सचमुच परमेश्वर के लिए गवाह बन गया है और परमेश्वर के हृदय के अनुसार व्यक्ति बन गया है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल वही जो परमेश्वर को जानते हैं, उसकी गवाही दे सकते हैं" से)।
"युग का समापन करने के अपने अंतिम कार्य में, परमेश्वर का ताड़ना और न्याय का एक स्वभाव है, जो वह सब कुछ प्रकट करता है जो अधर्मी है सार्वजनिक रूप से सभी लोगों का न्याय करता है, और उन लोगों को पूर्ण करता है, जो वास्तव में उससे प्यार करते हैं। केवल इस तरह का एक स्वभाव ही युग का समापन कर सकता है। अंत के दिन पहले ही आ चुके हैं। सभी चीजों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा, और उनकी प्रकृति के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाएगा। यही वह समय है जब परमेश्वर लोगों के परिणाम और उनकी मंज़िल को प्रकट करता है। यदि लोग ताड़ना और न्याय से नहीं गुज़रते हैं, तो उनकी अवज्ञा और अधार्मिकता को प्रकट करने का कोई तरीका नहीं होगा। केवल ताड़ना और न्याय के माध्यम से ही सभी चीजों का अंत प्रकट हो सकता है। मनुष्य केवल तभी अपने वास्तविक रंगों को दिखाता है जब उसे ताड़ना दी जाती है और उसका न्याय किया जाता है। बुरा बुरे की ओर लौट जाएगा, अच्छा अच्छे की ओर लौट जाएगा, और लोगों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा। ताड़ना और न्याय के माध्यम से, सभी चीजों का अंत प्रकट होगा, ताकि बुराई को दंडित किया जाएगा और अच्छे को पुरस्कृत किया जाएगा, और सभी लोग परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन नागरिक बन जाएँगे। सभी कार्य धर्मी ताड़ना और न्याय के माध्यम से अवश्य प्राप्त किया जाना चाहिए। क्योंकि मनुष्य की भ्रष्टता अपने चरम पर पहुँच गई है और उसकी अवज्ञा अत्यंत गंभीर रही है, केवल परमेश्वर का धर्मी स्वभाव ही, जो मुख्यत: ताड़ना और न्याय का है और जो अंत के दिनों में प्रकट होता है, मनुष्य को रूपान्तरित और पूरा कर सकता है। केवल यह स्वभाव ही बुराई को उजागर कर सकता है और इस तरह सभी अधर्मियों को गंभीर रूप से दण्डित कर सकता है। …अंत के दिनों के दौरान, केवल धर्मी न्याय ही मनुष्य का वर्गीकरण कर सकता है और मनुष्य को एक नए राज्य में ला सकता है। इस तरह, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के धर्मी स्वभाव के माध्यम से समस्त युग का अंत किया जाता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से)।
"क्या अब तुम समझ गए कि न्याय क्या है और सत्य क्या है? यदि तुम अब समझ गए हो, तो मैं तुम्हें न्याय के प्रति समर्पित होने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ, अन्यथा तुम्हें कभी भी परमेश्वर की प्रशंसा पाने का या परमेश्वर द्वारा उसके राज्य में ले जाए जाने का अवसर नहीं मिलेगा। जो केवल न्याय को ग्रहण करते हैं परन्तु कभी भी शुद्ध नहीं हो सकते हैं, अर्थात्, जो न्याय के कार्य के मध्य ही भाग जाते हैं, वे हमेशा के लिए परमेश्वर द्वारा नफ़रत किए और अस्वीकार कर दिए जाएँगे। फरीसियों की तुलना में उनके पाप बहुत अधिक हैं, और अधिक दारुण हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया है और वे परमेश्वर के विरोधी हैं। इस प्रकार के लोग सेवा करने के योग्य भी नहीं है वे अधिक कठोर, अनन्त दण्ड भुगतेंगे। परमेश्वर किसी भी गद्दार को नहीं छोड़ेगा जिसने एक बार तो अपने वचनों के साथ वफादारी का दावा किया मगर फिर परमेश्वर को धोखा दिया। इस प्रकार के लोग आत्मा, प्राण और देह के दण्ड के माध्यम से प्रतिफल महसूस करेंगे। क्या यह परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को प्रकट नहीं करता है? क्या यही वास्तव में परमेश्वर के न्याय और मनुष्यों के प्रकाशन का उद्देश्य नहीं है? सभी प्रकार के दुष्ट कर्म करने वाले ऐसे सभी लोगों को परमेश्वर न्याय के समय ऐसे स्थान में रखेगा जहाँ दुष्टात्माएँ रहती हैं ताकि आत्माएँ अपनी इच्छानुसार उनके दैहिक शरीरों को नष्ट करें। उनके शरीरों से लाश की दुर्गंध आने लगेगी और ऐसा ही उनका उचित प्रतिफल होगा। परमेश्वर उन निष्ठाहीन झूठे विश्वासियों, झूठे प्रेरितों, और झूठे कार्यकर्ताओं के हर एक पाप को उनकी अभिलेख पुस्तक में लिखता है, फिर जब सही समय आता है, वह उन्हें गंदी आत्माओं के बीच में फेंक देता है ताकि आत्माएँ अपनी इच्छानुसार उनके सम्पूर्ण शरीरों को दूषित करें, और, परिणामस्वरूप, वे कभी भी पुनःदेहधारण नहीं कर पाएँगे और कभी भी रोशनी को नहीं देखेंगे। ऐसे पाखण्डी जो किसी समय सेवकाई किया करते थे परन्तु अंत तक वफादार बने रहने में सक्षम नहीं रहे उन्हें परमेश्वर द्वारा दुष्टों में मध्य गिना जाएगा, ताकि वे दुष्टों की सलाह पर चलें, एक उपद्रवी भीड़ का हिस्सा बनें। अंत में, परमेश्वर उन्हें ऩष्ट कर देगा। परमेश्वर उन लोगों को अलग फेंक देगा और उन पर कोई ध्यान नहीं देगा जो कभी भी मसीह के वफादार नहीं रहे हैं या जिन्होंने कोई भी प्रयास समर्पित नहीं किया है, और युगों के बदलने में उन सभी को नष्ट कर देगा। वे पृथ्वी पर अब और नहीं रहेंगे, परमेश्वर के राज्य में मार्ग तो बिल्कुल नहीं प्राप्त करेंगे। जो कभी भी परमेश्वर के प्रति सच्चे नहीं रहे हैं परन्तु परमेश्वर के साथ यंत्रवत ढंग से व्यवहार करने के लिए मजबूर किए जाते हैं उनकी गिनती परमेश्वर के लिए कार्य करने वालों के मध्य होगी। छोटी सी संख्या में केवल ऐसे ही कुछ लोग जीवित रह सकते हैं, जबकि बहुसंख्य उन लोगों के साथ समाप्त हो जाएँगे जो सेवा करने के लिए भी योग्य नहीं हैं। अंत में, परमेश्वर उन सभी को जिनका मन परमेश्वर के समान है, लोगों को और परमेश्वर के पुत्रों को और साथ ही पादरी बनाए जाने के लिए पूर्वनियत लोगों को, अपने राज्य में ले आएगा। यही प्रतिफल परमेश्वर द्वारा उसके कार्य के माध्यम के द्वारा उत्पन्न किया गया है। उनके लिए जो परमेश्वर द्वारा निर्धारित किसी भी श्रेणी में नहीं आ सकते हैं, वे अविश्वासियों के मध्य गिने जाएँगे। और तुम लोग निश्चय ही कल्पना कर सकते हो कि उनका परिणाम क्या होगा। मैं तुम सभी लोगों से पहले ही कह चुका हूँ जो मुझे कहना चाहिए था; तुम लोग जिस मार्ग को चुनते हो वह निर्णय तुम लोगों का लिया हुआ निर्णय होगा। तुम्हें जो समझने की आवश्यकता है वह है किः परमेश्वर का कार्य ऐसे किसी का भी इंतज़ार नहीं करता है जो परमेश्वर के साथ तालमेल बनाए नहीं रख सकता है, और परमेश्वर का धर्मी स्वभाव किसी भी व्यक्ति के प्रति कोई दया नहीं दिखाता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है" से)।
आइए राज्य के युग में सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा जारी प्रशासनिक आज्ञाओं का दो अंश पढ़ते हैं।
"दस प्रशासनिक आज्ञाएँ जिनका परमेश्वर के चयनित लोगों द्वारा राज्य के युग में पालन अवश्य किया जाना चाहिए
1.मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं ठहराना चाहिए, और न ही अपने आपको ऊँचा ठहराना चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए और परमेश्वर को ऊँचा ठहराना चाहिए।
2. तुम्हें ऐसा कुछ भी करना चाहिए जो परमेश्वर के कार्य के लिए लाभदायक हो, और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो परमेश्वर के कार्य के लिए हानिकारक हो। तुम्हें परमेश्वर के नाम, परमेश्वर की गवाही, और परमेश्वर के कार्य का समर्थन करना चाहिए।
3. परमेश्वर के घर में धन, भौतिक पदार्थ, और समस्त सम्पत्ति ऐसी भेंटें हैं जो मनुष्य के द्वारा दी जानी चाहिए। इन भेंटो का आनन्द याजक और परमेश्वर के अलावा अन्य कोई नहीं ले सकता है, क्योंकि मनुष्य की भेंटें परमेश्वर के आनन्द के लिए हैं, परमेश्वर इन भेंटो को केवल याजकों के साथ ही साझा करता है, और उनके किसी भी अंश का आनन्द उठाने के लिए अन्य कोई भी योग्य और पात्र नहीं है। मनुष्य की समस्त भेंटें (धन और चीजों सहित, जिनका भौतिक रूप से आनन्द लिया जा सकता है) परमेश्वर को दी जाती हैं, मनुष्य को नहीं। और इसलिए, इन चीज़ों का मनुष्य के द्वारा आनन्द नहीं लिया जाना चाहिए; यदि मनुष्य उनका आनन्द उठाता है, तो वह इन भेंटों को चुरा रहा होगा। जो कोई भी ऐसा करता है वह यहूदा है, क्योंकि, यहूदा एक ग़द्दार होने के अतिरिक्त, जो कुछ रूपयों की थैली में डाला जाता था, उससे स्वयं की भी सहायता करता था।
4. मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है और, इसके अतिरिक्त, उसमें भावनाएँ हैं। अपने आप में, परमेश्वर की सेवा करते समय विपरीत लिंग के दो सदस्यों को एक साथ मिलकर काम करना निषिद्ध है। जो भी ऐसा करते हुए पाए जाते हैं, उन्हें, बिना किसी अपवाद के, निष्कासित कर दिया जाएगा—किसी को भी छूट नहीं है।
5. तुम परमेश्वर की आलोचना नहीं करोगे, और न ही परमेश्वर से संबंधित बातों पर यूँ ही विचारविमर्श करोगे। तुम्हें वैसा ही करना चाहिए जैसा मनुष्य को करना चाहिए, और वैसे ही बोलना चाहिए जैसे मनुष्य को बोलना चाहिए, और तुम्हें अपनी सीमाओं को पार अवश्य नहीं करना चाहिए और न ही अपनी सीमाओं का उल्लंघन करना चाहिए। अपनी स्वयं की ज़ुबान पर लगाम लगाओ और अपने स्वयं के पदचिह्नों के बारे में सतर्क रहो। यह सब तुम्हें ऐसा कुछ भी करने से रोकेगा जो परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करता है।
6. तुम्हें वही करना चाहिए जो मनुष्य द्वारा किया जाना चाहिए, और अपने दायित्वों का पालन करना चाहिए, और अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करना चाहिए, और अपने कर्तव्य को धारण करना चाहिए। चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के कार्य में अपना योगदान देना चाहिए; यदि तुम नहीं देते हो, तो तुम परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के अयोग्य हो, और परमेश्वर के घर में रहने के अयोग्य हो।
7. कलीसिया के कार्यों और मामलों में, परमेश्वर की आज्ञा मानने के अलावा, हर चीज में तुम्हें उस व्यक्ति के निर्देशों का पालन करना चाहिए जो पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया जाता है। यहाँ तक कि जरा सा अतिक्रमण भी अस्वीकार्य है। तुम्हें अपनी आज्ञाकारिता में पूर्ण होना चाहिए, और सही या ग़लत का विश्लेषण अवश्य नहीं करना चाहिए; क्या सही या ग़लत है इससे तुम्हारा कोई लेनादेना नहीं है। तुम्हें स्वयं केवल सम्पूर्ण आज्ञाकारिता की चिंता अवश्य करनी चाहिए।
8. जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। तुम्हें किसी व्यक्ति को ऊँचा नहीं ठहराना चाहिए या किसी व्यक्ति पर श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए; तुम्हें पहला स्थान परमेश्वर को, दूसरा स्थान उन लोगों को जिनकी तुम श्रद्धा करते हो, और तीसरा स्थान अपने आपको नहीं देना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं लेना चाहिए, और तुम्हें लोगों को—विशेष रूप से उन्हें जिनका तुम सम्मान करते हो—परमेश्वर के समतुल्य, उसके बराबर नहीं मानना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए असहनीय है।
9. तुम्हारे विचार कलीसिया के कार्य के बारे में होने चाहिए। तुम्हें अपनी स्वंय की देह की संभावनाओं की उपेक्षा कर देनी चाहिए, पारिवारिक मामलों के बारे में निर्णायक होना चाहिए, स्वयं को पूरे हृदय से परमेश्वर के काम के लिए समर्पित करना चाहिए, और परमेश्वर के काम को पहले स्थान पर और अपने जीवन को दूसरे स्थान पर रखना चाहिए। यह एक सन्त की शालीनता है।
10. सगे-सम्बन्धी जो विश्वास नहीं रखते हैं (तुम्हारे बच्चे, तुम्हारा पति या तुम्हारी पत्नी, तुम्हारी बहनें या तुम्हारे माता-पिता, इत्यादि) उन्हें कलीसिया के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए। परमेश्वर के घर में सदस्यों की कमी नहीं है, और इसकी संख्या को ऐसे लोगों से पूरा करने की कोई आवश्यकता नहीं है जिनका कोई उपयोग नहीं है। वे सभी जो प्रसन्नतापूर्वक विश्वास नहीं करते हैं उन्हें कलीसिया के भीतर अवश्य नहीं ले जाना चाहिए। यह आज्ञा सब लोगों पर निर्देशित है। इस मामले में तुम लोगों को एक दूसरे की जाँच, निगरानी करनी चाहिए और एक दूसरे को स्मरण दिलाना चाहिए, और कोई भी इस का उल्लंघन नहीं कर सकता है। यहाँ तक कि जब सगे-सम्बन्धी जो विश्वास नहीं करते हैं अनिच्छा से कलीसिया में प्रवेश करते हैं, उन्हें अवश्य किताबें जारी नहीं की जानी चाहिए या नया नाम नहीं दिया जाना चाहिए; ऐसे लोग परमेश्वर के घर के नहीं हैं, और कलीसिया में उनके प्रवेश पर किसी भी आवश्यक तरीके से रोक अवश्य लगायी जानी चाहिए। यदि दुष्टात्माओं के आक्रमण के कारण कलीसिया में समस्या आती है, तो तुम स्वयं निर्वासित कर दिये जाओगे या तुम अपने ऊपर प्रतिबंध लगवा लोगे। संक्षेप में, इस मामले में हर किसी का एक उत्तरदायित्व है, किन्तु तुम्हें असावधान नहीं होना चाहिए, अथवा व्यक्तिगत बदला लेने के लिए इसका उपयोग नहीं करना चाहिए" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "दस प्रशासनिक आज्ञाएँ जिनका परमेश्वर के चयनित लोगों द्वारा राज्य के युग में पालन अवश्य किया जाना चाहिए" से)।
"मैं सारे विश्व में खुले तौर पर अपनी प्रशासनिक आज्ञाओं की घोषणा करते हुए, अपने प्रचण्ड प्रकोप को इनके राष्ट्रों के ऊपर तेजी से फेंकूँगा, और जो कोई उनका उल्लंघन करता है उनको ताड़ना दूँगा:
जैसे ही मैं बोलने के लिए विश्व की तरफ अपने चेहरे को घुमाता हूँ, सारी मानवजाति मेरी आवाज़ को सुनती है, और उसके बाद उन सभी कार्यों को देखती है जिसे मैंने समूचे ब्रह्माण्ड में गढ़ा है। वे जो मेरी इच्छा के विरूद्ध जाते हैं, अर्थात्, जो मनुष्य के कार्यों से मेरा विरोध करते हैं, वे मेरी ताड़ना के अधीन नीचे गिर जाएँगे। मैं स्वर्ग के असंख्य तारों को लूँगा और उन्हें फिर से नया कर दूँगा, और मेरे कारण सूर्य और चन्द्रमा को नया बना दिया जाएगा—आकाश अब और वैसा नहीं रहेगा जैसा वह था; पृथ्वी पर बेशुमार चीज़ों को फिर से नया बना दिया जाएगा। मेरे वचनों के माध्यम से सभी पूर्ण हो जाएँगे। विश्व के भीतर अनेक राष्ट्रों को नए सिरे से विभक्त कर दिया जाएगा और मेरे राष्ट्र के द्वारा बदल दिया जाएगा, जिसकी वजह से पृथ्वी के राष्ट्र हमेशा हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएँगे और एक राष्ट्र बन जाएँगे जो मेरी आराधना करता हो; पृथ्वी के सभी राष्ट्रों को नष्ट कर दिया जाएगा, और उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। विश्व के भीतर मनुष्यों में, वे सभी जो शैतान से संबंध रखते हैं उनका सर्वनाश कर दिया जाएगा; वे सभी जो शैतान की आराधना करते हैं उन्हें जलती हुई आग के द्वारा नीचा दिखाया जाएगा—अर्थात्, उनको छोड़कर जो अभी इस धारा के अन्तर्गत हैं, बाकियों को राख में बदल दिया जाएगा। जब मैं बहुत से लोगों को ताड़ना देता हूँ, तो वे जो, भिन्न-भिन्न अंशों में, धार्मिक संसार में हैं, मेरे कार्यों के द्वारा जीत लिए जा कर मेरे राज्य में लौट आएँगे, क्योंकि उन्होंने 'एक श्वेत बादल पर सवार पवित्र जन के आगमन को' देख लिया होगा। समस्त मानवता अपने-अपने स्वभाव का अनुसरण करेगी, और जो कुछ उसने किया है उससे भिन्न-भिन्न ताड़नाएँ प्राप्त करेगी। वे जो मेरे विरूद्ध खड़े हुए हैं सभी नष्ट हो जाएँगे; जहाँ तक उनकी बात है जिन्होंने पृथ्वी पर अपने कार्यों में मुझे शामिल नहीं किया है, वे, क्योंकि उन्होंने जिस प्रकार अपने आपको दोषमुक्त किया है, पृथ्वी पर मेरे पुत्रों और मेरे लोगों के शासन के अधीन निरन्तर बने रहेंगे। मैं अपने महान कार्य की समाप्ति की घोषणा करने के लिए पृथ्वी पर अपनी ध्वनि आगे करते हुए अपने आपको असंख्य लोगों और असंख्य राष्ट्रों के सामने प्रकट करूँगा, ताकि समस्त मानवजाति अपनी आँखों से देखे" (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये परमेश्वर के कथन "वचन देह में प्रकट होता है" के "छब्बीसवाँ कथन" से लिया गया)।
हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर की भविष्यवाणियों और मनुष्य के प्रति उसके वादे के कुछ और अंश पढ़ेंगे।
"राज्य में, सृष्टि की असंख्य चीज़ें पुनः जीवित होना और अपनी जीवन शक्ति फिर से प्राप्त करना आरम्भ करती हैं। पृथ्वी की अवस्था में परिवर्तनों के कारण, एक भूमि और दूसरी भूमि के बीच की सीमाएँ भी खिसकना शुरू करती हैं। पूर्व काल में, मैं भविष्यवाणी कर चुका हूँ: जब भूमि से भूमि विभाजित हो जाती है, और भूमि से भूमि संयुक्त हो जाती है, तो यही वह समय होगा जब मैं राष्ट्र को तोड़-फोड़ कर टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा। इस समय, मैं सारी सृष्टि को फिर से नया करूँगा और समस्त ब्रहमाण्ड को पुनः-विभक्त करूँगा, इस प्रकार पूरे विश्व को व्यवस्थित रूप से रखूँगा, और इसकी पुरानी अवस्था को नए में रूपान्तरित कर दूँगा। यह मेरी योजना है। ये मेरे कार्य हैं। जब संसार के सभी राष्ट्र और लोग मेरे सिंहासन के सामने लौटते हैं, तो उसके बाद मैं स्वर्ग के सारी उपहारों को लेकर उन्हें मानवीय संसार को दे दूँगा, ताकि, मेरे कारण, वह बेजोड़ उपहारों से लबालब भर जाएगा" (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये परमेश्वर के कथन "वचन देह में प्रकट होता है" के "छब्बीसवाँ कथन" से लिया गया)।
"मेरे वचनों के पूर्ण होने के बाद, राज्य धीरे-धीरे पृथ्वी पर आकार लेने लगता है और मनुष्य धीरे-धीरे सामान्य हो जाता, और इस प्रकार पृथ्वी पर मेरे हृदय में राज्य स्थापित हो जाता है। उस राज्य में, परमेश्वर के सभी लोगों को सामान्य मनुष्य का जीवन वापस मिल जाता है। बर्फीली शीत ऋतु चली गई है, उसका स्थान जल के सोतों के बहरों में संसार ने ले लिया है, जहाँ वे साल भर प्रस्फुटित होते रहते हैं। लोग आगे से मनुष्य के उदास और अभागे संसार का सामना नहीं करते हैं, और न ही वे आगे से मनुष्य के शांत ठण्डे संसार को सहते हैं। लोग एक दूसरे से लड़ाई नहीं करते हैं। एक दूसरे के विरूद्ध युद्ध नहीं करते हैं, वहाँ अब कोई नरसंहार नहीं होता है और न ही नरसंहार से लहू बहता है; पूरी ज़मीं प्रसन्नता से भर जाती है, और यह हर जगह मनुष्यों के बीच उत्साह को बढ़ाता है" (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये परमेश्वर के कथन "वचन देह में प्रकट होता है" के "बीसवाँ कथन" से लिया गया)।
"जब मनुष्यजाति को उसकी मूल समानता में पुनर्स्थापित कर दिया जाता है, जब मानवजाति अपने संबंधित कर्तव्यों को पूरा कर सकती है, अपने स्वयं के स्थान को सुरक्षित रख सकती है और परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं का पालन कर सकती है, तो परमेश्वर पृथ्वी पर लोगों के एक समूह को प्राप्त कर चुका होगा जो उसकी आराधना करते हैं, वह पृथ्वी पर एक राज्य स्थापित कर चुका होगा जो उसकी आराधना करता है। उसके पास पृथ्वी पर अनंत विजय होगी, और जो उसके विरोध में है वे अनंतकाल के लिए नष्ट हो जाएँगे। इससे मनुष्य का सृजन करने का उसका मूल अभिप्राय पुनर्स्थापित हो जाएगा; इससे सब चीजों के सृजन का उसका मूल अभिप्राय पुनर्स्थापित हो जाएगा, और इससे पृथ्वी पर उसका अधिकार, सभी चीजों के बीच उसका अधिकार और उसके शत्रुओं के बीच उसका अधिकार भी पुनर्स्थापित हो जाएगा। ये उसकी संपूर्ण विजय के प्रतीक हैं। इसके बाद से मानवजाति विश्राम में प्रवेश करेगी और ऐसे जीवन में प्रवेश करेगी जो सही मार्ग का अनुसरण करता है। मनुष्य के साथ परमेश्वर भी अनंत विश्राम में प्रवेश करेगा, और एक अनंत जीवन में प्रवेश करेगा जो परमेश्वर और मनुष्य द्वारा साझा किया जाता है। पृथ्वी पर से गंदगी और अवज्ञा ग़ायब हो जाएगी, वैसे ही पृथ्वी पर से विलाप ग़ायब हो जाएगा। उन सभी का अस्तित्व पृथ्वी पर नहीं रहेगा जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। केवल परमेश्वर और वे जिन्हें उसने बचाया है ही शेष बचेंगे; केवल उसकी सृष्टि ही बचेगी" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर और मनुष्य एक साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे" से)।
अब जबकि हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुन चुके हैं, हमने देख लिया है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर और प्रभु यीशु अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही हैं। वे दोनों ही ऊंचे पद पर बैठे और मानवजाति से संवाद कर रहे देहधारी परमेश्वर हैं। वे दोनों ही परमेश्वर के स्वभाव और उनके पवित्र सार को उजागर करते हैं। और इसमें, वे परमेश्वर के अधिकार एवं पहचान को आदर्श रूप से प्रदर्शित करते हैं। फरीसियों के आकलन और उन्हें उजागर करने वाले प्रभु यीशु के वचनों से, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के वचनों तथा भ्रष्ट मानवजाति को उजागर करने वाले वचनों से, हम देखते हैं कि परमेश्वर को पाप से घृणा है, और वे मानवजाति के भ्रष्ट होने से घृणा करते हैं। हम परमेश्वर के धर्मपरायण एवं पवित्र स्वभाव को देखते हैं, और इसके साथ ही यह भी कि परमेश्वर मनुष्य के हृदय की गहराई तक देखते हैं। वे हमारे भ्रष्टाचार से उतने ही परिचित हैं जैसे कोई माँ या पिता अपने बच्चे की रग-रग से परिचित होता है। प्रभु यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर की मानवजाति के भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियों और अपेक्षाओं से, हम मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएं देखते हैं, परमेश्वर उन्हें पसंद करते हैं जो ईमानदार होते हैं, और वे उन्हें आशीष देते हैं जो वास्तव में स्वयं को उन्हें समर्पित कर देते हैं। इससे हमें मानवजाति के प्रति और उसके उद्धार के प्रति परमेश्वर की चिंता का पता चलता है। मानवजाति से किए गए प्रभु यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वादों से, हम मानवजाति से परमेश्वर के प्रेम को देखते हैं, और इसके साथ ही, हम वह अधिकार एवं सामर्थ्य देखते हैं जिससे परमेश्वर मानवजाति की नियति का नियंत्रण करते हैं एवं सभी चीजों पर शासन करते हैं। लहजे और बोलने के ढंग को देखते हुए प्रभु यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कथन एक जैसे हैं, वे दोनों ही परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति हैं। यह आदर्श रूप से परमेश्वर की पहचान और उसके सार को दर्शाता है। भाइयों और बहनों, आइये सोचते हैं: सृष्टिकर्ता के अलावा और कौन, संपूर्ण मानवजाति के लिए वचन व्यक्त कर सकता है? कौन परमेश्वर की इच्छा को प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त कर सकता है और मानवजाति के सामने मांगें रख सकता है? कौन मनुष्य का अंत तय कर सकता है? कौन यह नियंत्रण कर सकता है कि वे जिएंगे या मरेंगे? कौन ब्रह्माण्ड के तारों को नियंत्रित कर सकता है, और सभी चीजों के ऊपर प्रभुत्व रख सकता है? परमेश्वर के अलावा और कौन भ्रष्ट मानवजाति के सार के सत्य के पार देख सकता है? और कौन हमारे हृदय की गहराई में छिपी शैतानी प्रकृति को उजागर कर सकता है? कौन परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय के कार्य को पूरा कर सकता है और हमें शैतान के प्रभाव से पूरी तरह बचा सकता है? केवल सृष्टिकर्ता के पास ही ऐसा अधिकार और सामर्थ्य है! सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन आदर्श रूप से परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार और पहचान को प्रदर्शित करते हैं। भाइयों और बहनों, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुनने के बाद, हम सभी को हमारे हृदय में ऐसी पुष्टि का एहसास होता है: ये सभी वचन परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए हैं, वे परमेश्वर की आवाज हैं। ये सभी अंत के दिनों के न्याय के कार्य के दौरान सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य हैं। हमारे हृदय में, परमेश्वर के लिए तुरंत वास्तविक श्रद्धा उत्पन्न हो गई है। भाइयों और बहनों, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुनने के बाद, क्या आपलोगों को भी ऐसा ही एहसास होता है? यह पर्याप्त रूप से सिद्ध करता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और प्रभु यीशु के वचन एक ही स्रोत से आए हैं। वे दोनों एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति हैं। अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर परमेश्वर के घर से आरंभ करते हुए न्याय का कार्य करते हैं। जो प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य की नींव के आधार पर होता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर मानवजाति के शुद्धिकरण और उद्धार के लिए सभी सत्य व्यक्त करते हैं, और मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना के सभी रहस्य उजागर करते हैं, और हमें सत्य के विभिन्न पहलुओं का सार साफ-साफ बताते हैं। वे हमारी आँखें खोलते हैं, और हमें पूरी तरह विश्वास दिला देते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और कार्य ने प्रभु यीशु की सभी भविष्यवाणियां पूरी कर दी हैं। अंत के दिनों के न्याय के कार्य के लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी वचनों में, हम परमेश्वर की आवाज पहचानते हैं, और यह निश्चित करते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही प्रभु यीशु की वापसी हैं, वे एक सत्य परमेश्वर हैं जिन्होंने स्वर्ग, पृथ्वी एवं सभी वस्तुओं की रचना की है, जो अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने आते हैं। वे पृथ्वी पर शैतान के शासन को, बुराई और अंधकार के युग को समाप्त करने के लिए, तथा पृथ्वी पर परमेश्वर के शासन, अर्थात सहस्त्राब्दि राज्य के युग का सूत्रपात करने आते हैं। और इससे हमारी स्वर्ग का राज्य में प्रवेश करने की सुंदर इच्छा साकार होती है। भाइयों और बहनों, आपलोग क्या कहते हैं, क्या अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य ने प्रभु यीशु की सभी भविष्यवाणियों को पूरा किया है?
"राज्य के सुसमाचार पर उत्कृष्ट प्रश्न और उत्तर संकलन" से
हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोर्इ फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास करते हुए, उनके कई वचन सुनकर हमें कैसा लगता है? हालांकि हमें प्रभु के वचनों का कोर्इ अनुभव या ज्ञान नहीं है, लेकिन उन्हें सुनते ही लगता है कि वे सत्य हैं, उनमें सामर्थ्य और अधिकार है। यह एहसास कैसे होता है? क्या ऐसा हमारे अनुभव के कारण होता है? ये प्रभाव है प्रेरणा और सहज बोध का। इससे साबित होता है कि सच्चे हृदय वाले लोग महसूस कर सकते हैं कि परमेश्वर के वचनों में सामर्थ्य और अधिकार होता है, ऐसा परमेश्वर की वाणी सुनने पर होता है। देखिए, परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ में सबसे बड़ा अंतर ये होता है कि परमेश्वर की वाणी सत्य है, उसमें सामर्थ्य और अधिकार है, और उसे सुनते ही हम उसे महसूस कर सकते हैं। हम इसे शब्दों में बयां कर पाएं या नहीं, इसका अनुभव स्पष्ट होता है। मनुष्य की आवाज़ को पहचानना आसान है। इसे सुनते ही लगता है कि हम इसे समझ सकते हैं। लेकिन मनुष्य की आवाज में हमें ज़रा सा भी सामर्थ्य या अधिकार महसूस नहीं होता, और उसमें सत्य की मात्रा तो और भी कम होती है। परमेश्वर के वचनों और मनुष्य के शब्दों के बीच सबसे बड़ा अंतर यही है। उदाहरण के लिए, हम देखते हैं कि प्रभु यीशु के वचनों में अधिकार भी है और सामर्थ्य भी, उसे सुनते ही हम कह सकते हैं कि ये सत्य है, उनका अर्थ गहरा, रहस्यमय और मनुष्य की क्षमता से बाहर है। सही कहा न? आइये, अब हम बाइबल में प्रेरितों के शब्दों पर नज़र डालें। ये प्रभु यीशु के वचनों से बहुत कम पड़ते हैं। हालांकि इनमें से ज़्यादातर पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से उत्पन्न हुए हैं, लेकिन इनमें कोर्इ अधिकार या सामर्थ्य नहीं हैं। ये सिर्फ सही शब्द हैं, लोगों को लाभ पहुंचाने वाले शब्दों के अतिरिक्त और कुछ नहीं। क्या यह प्रेरितों के वचनों और प्रभु यीशु के वचनों के बीच अंतर नहीं है? इस पर भी चर्चा करते हैं, प्रभु यीशु ने जो वचन बोले, क्या कोर्इ इंसान भी उन्हें बोल सकता है? उन्हें कोर्इ नहीं बोल सकता। यानी प्रभु यीशु के वचन परमेश्वर की वाणी है। क्या कोई भी जो प्रभु यीशु में विश्वास करता है वह उन वचनों को बोल सकता है जो प्रेरितों ने बोले थे? कुछ ऐसे हैं जो हम भी कह सकते थे। क्या वह उन्हें अलग नहीं बताता है? क्या परमेश्वर की आवाज़ और मनुष्य की आवाज़ के बीच अंतर करना आसान नहीं है?
…………
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़कर सबके मन में एक समान भावनाएं जागती हैं। सबको लगता है कि परमेश्वर इंसान से बात कर रहे हैं। परमेश्वर के अलावा, क्या हम सभी इंसानों से बात कर सकते हैं? मनुष्य को बचाने की परमेश्वर की इच्छा, मनुष्य को कौन बता सकता है? कौन मानवजाति को यह बता सकता है कि अंत के दिनों का कार्य करने की परमेश्वर की योजना क्या है, मानवजाति का परिणाम और मंज़िल क्या है? परमेश्वर की प्रबंधन योजना के बारे में पूरी दुनिया को भला कौन बता सकता है? परमेश्वर के अलावा कोर्इ नहीं बता सकता। सर्वशक्तिमान परमेश्वर पूरी मानव जाति से बात करते हैं, वे मनुष्य को परमेश्वर के वचनों के सामर्थ्य और अधिकार का अहसास कराते हैं, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन, परमेश्वर की सीधी अभिव्यक्ति हैं, ये परमेश्वर की वाणी हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा बोले गए सभी वचन, ऐसे हैं जैसे परमेश्वर तीसरे स्वर्ग में खड़े होकर पूरी मानव जाति से कह रहे हों, यहां सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक सर्जक के रूप में मनुष्य से बातचीत कर रहे हैं, वे अपनी धार्मिकता और महिमा के निरपराध स्वभाव को मानव के सामने प्रकट कर रहे हैं। जब परमेश्वर की भेड़ें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुनती हैं, तो वे शुरू में उसमें छिपे सत्य को नहीं पहचानती, उन्हें इसका अनुभव भी नहीं होता, लेकिन उन्हें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के हर वचन के सामर्थ्य और अधिकार का अहसास हो जाता है, वे पुष्टि कर सकती हैं कि ये परमेश्वर की वाणी है और परमेश्वर की आत्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को केवल परमेश्वर के वचन सुन कर उनकी पुष्टि, परमेश्वर की वाणी के रूप में करनी होती है। तो फिर धार्मिक पंथ के पादरी और एल्डर सर्वशक्तिमान परमेश्वर की निंदा क्यों करते हैं? जहां तक मसीह विरोधियों का सवाल है, जो परमेश्वर के देहधारण को नहीं पहचानते, और ये नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य कह सकते हैं, हालांकि उन्हें परमेश्वर के बोले सभी वचन सत्य दिखार्इ देते हैं, और उनके वचनों में सामर्थ्य और अधिकार का आभास होता है, फिर भी वे नहीं मानते कि परमेश्वर इस तरह बोल सकते हैं। वे ये भी नहीं मानते कि परमेश्वर सब कुछ सत्य ही बोलते हैं। ये समस्या क्या है? क्या आप बता सकती हैं? अंत के दिनों देहधारी सर्वशक्तिमान परमेश्वर समस्त मानव जाति से बात करते हैं, लेकिन हममें से कितने लोग परमेश्वर की वाणी सुन पाते हैं? वर्तमान में ऐसे बहुत से धार्मिक पंथ हैं जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर को बोलते देख पाते हैं, फिर भी सुन कर समझ नहीं पाते कि ये परमेश्वर की वाणी है, वे परमेश्वर के बोले वचनों को भी इंसान के शब्द समझते हैं, और इंसान के ही नजरिये से परमेश्वर से जुड़े निर्णय लेते हैं, उनका अपमान और उनकी निंदा करते हैं। क्या इनके दिलों में परमेश्वर का डर है? क्या ये अतीत के फरीसियों जैसे ही नहीं हैं? ये सभी सत्य से घृणा और परमेश्वर की निंदा करते हैं। परमेश्वर के वचनों में अधिकार है, सामर्थ्य है, और ऐसे लोगों को जरा भी आभास नहीं होता कि ये वचन परमेश्वर की वाणी हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर की भेड़ें हो सकते हैं? इनके हृदय भावनाहीन हैं, ये सुनते तो हैं, पर जानते नहीं, ये देखते हैं, पर समझते नहीं। ऐसे लोग स्वर्गारोहण की आशा कैसे कर सकते हैं? अंत के दिनों के देहधारी परमेश्वर ने सत्य को अभिव्यक्त किया है, धार्मिक मंडलियों के लोगों को उजागर किया है, सच्चे विश्वासी और झूठे विश्वासी, सत्य से प्रेम करने वाले, और सत्य से घृणा करने वाले, बुद्धिमान और मूर्ख कुंवारियां, ये सभी लोग स्वाभाविक रूप से, अलग-अलग समूहों में बंटे हुए हैं। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर के मुँह के वचनों से सभी दुष्ट लोगों को ताड़ित किया जाएगा, और सभी धर्मी लोग उसके मुँह के वचनों से धन्य हो जाएँग…" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "सहस्राब्दि राज्य आ चुका है" से)। इसलिए, जो लोग परमेश्वर की वाणी सुन सकते हैं, वे प्रभु के दूसरे आगमन के गवाह हैं, वे परमेश्वर के सिहांसन के आगे स्वर्गारोहित हो चुके हैं, और मेमने के विवाह भोज में शामिल हो रहे हैं। ये लोग बुद्धिमान कुंवारियां हैं, और सबसे भाग्यशाली मनुष्य हैं।
हमें परमेश्वर की वाणी अपने दिल और आत्मा की गहराइयों से सुननी चाहिए। परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उनमें सामर्थ्य और अधिकार होता है, दिल और आत्मा की गहराइयों से सुनाने वाले निश्चित ही इसे महसूस कर सकते हैं। जिन लोगों ने सिर्फ कुछ दिन ही सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ा है, वे भी यह पुष्टि कर सकते हैं कि ये परमेश्वर की वाणी और उनके वचन हैं। हर बार जब परमेश्वर देहधारण करते हैं, वे अपने कार्य का एक चरण पूरा करने आते हैं, पैगम्बरों के विपरीत, जो परमेश्वर के निर्देशानुसार सिर्फ एक खास संदर्भ में कुछ शब्द ही कहते हैं। जब परमेश्वर अपने कार्य का एक चरण पूरा करने के लिए देहधारण करते हैं, तो उन्हें अनेक वचन, अनेक सत्य बोलने होते हैं, उन्हें रहस्योंद्घाटन और भविष्यवाणियां करनी होती हैं। ऐसा होने में कर्इ वर्ष या दशक लग सकते हैं। उदाहरण के लिए, छुटकारे के कार्य में, प्रभु यीशु ने पहले उपदेश दिया था, "मन फिराओ, क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।" उन्होंने मनुष्य को अपराध स्वीकार करना, पश्चाताप करना, क्षमा करना, कष्ट सहना, अपनी तकलीफें खुद उठाना सिखाया, और वो सब सिखाया जिसका किसी मनुष्य को अनुग्रह के युग में पालन करना होगा। उन्होंने प्रेम और दया रूपी परमेश्वर के स्वभाव को प्रदर्शित किया, साथ ही, उन्होंने स्वर्ग के राज्य के रहस्यों और उसमें हमारे प्रवेश से जुड़ी शर्तों को उजागर किया। उनके सलीब पर चढ़ाए जाने, उनके पुर्नजन्म और उनके स्वर्ग में पहुंचने के बाद ही, परमेश्वर का छुटकारे का कार्य पूरा हुआ। प्रभु यीशु द्वारा बोले गए वचन सत्य हैं, जिन्हें परमेश्वर ने अपने छुटकारे के कार्य के दौरान मनुष्य को उपहार स्वरूप दिया है। अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर आए और उन्होंने मनुष्य को शुद्ध करने और बचाने वाले सभी सत्य बोले। उन्होंने न्याय के कार्य की शुरूआत परमेश्वर के लोगों से की, और मानव को अपने निहित स्वभाव से परिचित कराया, जिसका महत्वपूर्ण बिंदु धार्मिकता है। उन्होंने 6 हजार साल लम्बी अपनी प्रबंधन योजना के सभी रहस्यों को खोला है। उन्होंने राज्य के युग का आरंभ और अनुग्रह के युग का अंत किया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के जीवन का सार हैं, और उनके स्वभाव की अभिव्यक्ति हैं। यह परमेश्वर अंत के दिनों के कार्य का पूरा एक चरण है जो वे मानव जाति के शुद्धिकरण और बचाव के लिए कर रहे हैं। आइये अब हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ वचनों को पढ़ें, और सुनें कि क्या वह सत्य और परमेश्वर की वाणी हैं?
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब परमेश्वर इस बार देहधारी होता है, तो उसका कार्य, प्राथमिक रूप में ताड़ना और न्याय के द्वारा, अपने स्वभाव को व्यक्त करना है। इसे नींव के रूप में उपयोग करके वह मनुष्य तक अधिक सत्य को पहुँचाता है, अभ्यास करने के और अधिक मार्ग दिखाता है, और इस प्रकार मनुष्य को जीतने और मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से बचाने के अपने उद्देश्य को प्राप्त करता है। राज्य के युग में परमेश्वर के कार्य के पीछे यही निहित है" ("वचन देह में प्रकट होता है" के लिए प्रस्तावना से)।
"अंत के दिनों में, मसीह मनुष्य को सिखाने के लिए विविध सच्चाइयों का उपयोग करता है, मनुष्य के सार को उजागर करता है, और उसके वचनों और कर्मों का विश्लेषण करता है। इन वचनों में विभिन्न सच्चाइयों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर का आज्ञापालन करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मानवता से, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धि और उसके स्वभाव इत्यादि को जीना चाहिए। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खासतौर पर, वे वचन जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार से परमेश्वर का तिरस्कार करता है इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार से मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरूद्ध दुश्मन की शक्ति है। अपने न्याय का कार्य करने में, परमेश्वर केवल कुछ वचनों से ही मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता है; वह लम्बे समय तक इसे उजागर करता है, इससे निपटता है, और इसकी काँट-छाँट करता है। उजागर करने की इन विधियों, निपटने, और काँट-छाँट को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसे मनुष्य बिल्कुल भी धारण नहीं करता है। केवल इस तरीके की विधियाँ ही न्याय समझी जाती हैं; केवल इसी तरह के न्याय के माध्यम से ही मनुष्य को वश में किया जा सकता है और परमेश्वर के प्रति समर्पण में पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इसके अलावा मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य जिस चीज़ को उत्पन्न करता है वह है परमेश्वर के असली चेहरे और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता के सत्य के बारे में मनुष्य में समझ। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा की, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य की, और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त करने देता है जो उसके लिए अबोधगम्य हैं। यह मनुष्य को उसके भ्रष्ट सार तथा उसकी भ्रष्टता के मूल को पहचानने और जानने, साथ ही मनुष्य की कुरूपता को खोजने देता है। ये सभी प्रभाव न्याय के कार्य के द्वारा निष्पादित होते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया गया न्याय का कार्य है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है" से)।
"अंत के दिन पहले ही आ चुके हैं। सभी चीजों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा, और उनकी प्रकृति के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाएगा। यही वह समय है जब परमेश्वर लोगों के परिणाम और उनकी मंज़िल को प्रकट करता है। यदि लोग ताड़ना और न्याय से नहीं गुज़रते हैं, तो उनकी अवज्ञा और अधार्मिकता को प्रकट करने का कोई तरीका नहीं होगा। केवल ताड़ना और न्याय के माध्यम से ही सभी चीजों का अंत प्रकट हो सकता है। मनुष्य केवल तभी अपने वास्तविक रंगों को दिखाता है जब उसे ताड़ना दी जाती है और उसका न्याय किया जाता है। बुरा बुरे के साथ रखा जाएगा, अच्छा अच्छे के साथ रखा जाएगा, और लोगों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा। ताड़ना और न्याय के माध्यम से, सभी चीजों का अंत प्रकट होगा, ताकि बुराई को दंडित किया जाएग और अच्छे को पुरस्कृत किया जाएगा, और सभी लोग परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन नागरिक बन जाएँगे। सभी कार्य धर्मी ताड़ना और न्याय के माध्यम से अवश्य प्राप्त किया जाना चाहिए। क्योंकि मनुष्य की भ्रष्टता अपने चरम पर पहुँच गई है और उसकी अवज्ञा अत्यंत गंभीर रही है, केवल परमेश्वर का धर्मी स्वभाव ही, जो मुख्यत: ताड़ना और न्याय का है और जो अंत के दिनों दिनों में प्रकट होता है, मनुष्य को रूपान्तरित और पूरा कर सकता है। केवल यह स्वभाव ही बुराई को उजागर कर सकता है और इस तरह सभी अधर्मियों को गंभीर रूप से दण्डित कर सकता है। …अंत के दिनों के दौरान, केवल धर्मी न्याय ही मनुष्य का वर्गीकरण कर सकता है और मनुष्य को एक नए राज्य में ला सकता है। इस तरह, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के धर्मी स्वभाव के माध्यम से समस्त युग का अंत किया जाता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से)।
"क्या अब तुम समझ गए कि न्याय क्या है और सत्य क्या है? यदि तुम समझ गए हो, तो मैं तुम्हें न्याय किए जाने हेतु आज्ञाकारी ढंग से समर्पित होने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ, अन्यथा तुम्हें कभी भी परमेश्वर द्वारा प्रशंसा किए जाने या परमेश्वर द्वारा उसके राज्य में ले जाए जाने का अवसर नहीं मिलेगा। जो केवल न्याय को स्वीकार करते हैं परन्तु कभी भी शुद्ध नहीं किए जा सकते हैं, अर्थात्, जो न्याय के कार्य के बीच ही भाग जाते हैं, वे हमेशा के लिए परमेश्वर द्वारा नफ़रत किए जाएँगे और अस्वीकार कर दिए जाएँगे। फरीसियों के पापों की तुलना में उनके पाप बहुत अधिक हैं, और अधिक दारुण हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया है और वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोही हैं। इस प्रकार के लोग जो सेवा करने के योग्य भी नहीं है अधिक कठोर दण्ड प्राप्त करेंगे, ऐसा दण्ड जो इसके अतिरिक्त चिरस्थायी है। परमेश्वर किसी भी गद्दार को नहीं छोड़ेगा जिसने एक बार तो वचनों से वफादारी दिखायी मगर फिर परमेश्वर को धोखा दिया। इस तरह के लोग आत्मा, प्राण और शरीर के दण्ड के माध्यम से प्रतिफल प्राप्त करेंगे। क्या यह हूबहू परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को प्रकट नहीं करता है? क्या मनुष्य का न्याय करने, और उसे प्रकट करने में यह परमेश्वर का उद्देश्य नहीं है? परमेश्वर उन सभी को जो न्याय के समय के दौरान सभी प्रकार के दुष्ट कर्म करते हैं दुष्टात्माओं से पीड़ित स्थान में भेजता है, इन दुष्टात्माओं को इच्छानुसार उनके दैहिक शरीरों को नष्ट करने देता है। उनके शरीरों से लाश की दुर्गंध निकलती है, और ऐसा ही उनके लिए उचित दण्ड है। परमेश्वर उन निष्ठाहीन झूठे विश्वासियों, झूठे प्रेरितों, और झूठे कार्यकर्ताओं के हर एक पाप को उनकी अभिलेख पुस्तकों में लिखता है; फिर, जब सही समय आता है, वह उन्हें इच्छानुसार गंदी आत्माओं के बीच में फेंक देता है, इन अशुद्ध आत्माओं को अपनी इच्छानुसार उनके सम्पूर्ण शरीरों को दूषित करने देता है, ताकि वे कभी भी पुनः-देहधारण नहीं कर सकें और दोबारा कभी भी रोशनी को नहीं देख सकें। वे पाखण्डी जिन्होंने किसी समय सेवकाई की किन्तु अंत तक वफादार बने रहने में असमर्थ हैं परमेश्वर द्वारा दुष्टों में गिने जाते हैं, ताकि वे दुष्टों की सलाह पर चलें, और उनकी उपद्रवी भीड़ का हिस्सा बन जाएँ; अंत में, परमेश्वर उन्हें जड़ से मिटा देगा। परमेश्वर उन लोगों को अलग फेंक देता है और उन पर कोई ध्यान नहीं देता है जो कभी भी मसीह के प्रति वफादार नहीं रहे हैं या जिन्होंने कोई भी प्रयास समर्पित नहीं किया है, और युगों के बदलने पर उन सभी को जड़ से मिटा देगा। वे पृथ्वी पर अब और अस्तित्व में नहीं रहेंगे, परमेश्वर के राज्य में मार्ग तो बिल्कुल नहीं प्राप्त करेंगे। जो कभी भी परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं रहे हैं किन्तु परमेश्वर के साथ बेपरवाह ढंग से व्यवहार करने के लिए परिस्थितिवश मज़बूर किए जाते हैं उनकी गिनती ऐसे लोगों में होती है जो परमेश्वर के लोगों के लिए सेवा करते हैं। ऐसे लोगों की छोटी सी संख्या ही जीवित बचती है, जबकि बहुसंख्य उन लोगों के साथ तबाह हो जाएँगे जो सेवा करने के भी योग्य नहीं हैं। अंत में, परमेश्वर उन सभी को जिनका मन परमेश्वर के समान है, लोगों को और परमेश्वर के पुत्रों को और साथ ही पादरी बनाए जाने के लिए परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत लोगों को, अपने राज्य में ले आएगा। परमेश्वर द्वारा अपने कार्य के माध्यम से प्राप्त किया गया आसव ऐसा ही होता है। जहाँ तक उनका प्रश्न है जो परमेश्वर द्वारा निर्धारित किसी भी श्रेणी में पड़ने में असमर्थ हैं, वे अविश्वासियों में गिने जाएँगे। और तुम लोग निश्चित रूप से कल्पना कर सकते हो कि उनका परिणाम क्या होगा। मैं तुम सभी लोगों से पहले ही वह कह चुका हूँ जो मुझे कहना चाहिए; जिस मार्ग को तुम लोग चुनते हो वह तुम लोगों का लिया हुआ निर्णय होगा। तुम लोगों को जो समझना चाहिए वह है किः परमेश्वर का कार्य ऐसे किसी का भी इंतज़ार नहीं करता है जो उसके साथ तालमेल बनाए नहीं रख सकता है, और परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव किसी भी मनुष्य के प्रति कोई दया नहीं दिखाता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है" से)।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, क्या अब ज्यादा स्पष्ट नहीं हो गया कि अंत के दिनों में परमेश्वर अपना न्याय का कार्य कैसे करते हैं? अगर परमेश्वर इस बारे में स्वयं न बताते, तो हम ये सब कैसे समझ पाते? अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर सत्य को व्यक्त करते हैं और अपना न्याय कार्य करते हैं। उनके वचन मानवजाति में गहराई तक जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार का खुलासा करते हैं, उनमें परमेश्वर के प्रति इंसान के प्रतिरोध के हर पहलू को बताया गया है, साथ ही उसके शैतानी स्वभाव का भी वर्णन है, साथ ही उनमें इंसान को परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता वाले निरपराध स्वभाव का भी दर्शन मिलता है। हमने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के न्याय से यह पहचान कर ली है, हमने अपने दंभ, अपनी आत्ममुग्धता और अपनी धोखेबाजी को बखूबी जान लिया है, हम हर तरह से हमारे शैतानी स्वभाव को छोड़ने के लिए तैयार हैं। हालांकि शायद हम खुद को बेहतर बनाते हैं, मुश्किलें सहते हैं, परमेश्वर के लिए मूल्य चुकाते हैं, फिर भी हम परमेश्वर का शोषण कर रहे हैं और पुरस्कार तथा स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के लिए उसके साथ व्यापार कर रहे हैं; हम किसी विवेक या तर्क के बिना, यहाँ तक कि किंचित मात्र भी प्यार या आज्ञाकारिता के बिना, परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हैं। जब हम इस तरह से रहते हैं, तो क्या हम मनुष्यों के समान होते हैं? हम बस जीवित भूत, जानवर बन गए हैं; हमने अपनी खुद की घिनौनी कुरूपता को देखा है, और इसके लिए हमारे दिल में बहुत दर्द है और हमारे दिल शर्म से भरे हुए हैं। प्रकाशित वाक्य और परमेश्वर के वचनों के न्याय में हम देखते हैं कि परमेश्वर की नज़र हर चीज पर है। जब हम परमेश्वर की अपार पवित्रता, धार्मिकता और उनके निरपराध स्वभाव का अनुभव करते हैं, तो मन ही मन डरने और कांपने लगते हैं। हम अपने शैतानी स्वरूप को महसूस करके, परमेश्वर का सामना करने को लेकर शर्मिंदा होते हैं, हम उनके सामने खड़े होने लायक नहीं रह जाते, फिर हम जमीन पर गिर जाते हैं, पश्चाताप करते हुए रोते हैं, खुद को कोसते हैं, अपने चेहरों पर खुद थप्पड़ मारते हैं। प्रार्थना करते हैं कि परमेश्वर हमारा अधिक गंभीरता से न्याय करेगा, हमें शुद्ध करेगा और बदल देगा; हम शैतान के स्वभाव से अब और जीना नहीं चाहते हैं। हम सच्चाई का अभ्यास करना शुरू करते हैं, और सत्य की खोज करते हैं। हमारे ज्ञान में आए बिना ही हमने कई चीज़ों का अनुभव कर लिया है, और कुछ सच्चाइयों को समझ लिया है, और परमेश्वर के बारे में कुछ सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लिया है। चीज़ों को देखने के हमारे तरीके में एक बदलाव आता है। परिवर्तन हमारे जीवन स्वभाव में परिवर्तन होना आरंभ होता है, और हमारे हृदय में परमेश्वर का वास्तविक भय और उसके प्रति आज्ञाकारिता उत्पन्न होती है; हम पुनः परमेश्वर के साथ व्यापार करने का प्रयास नहीं करते हैं, हम परमेश्वर के प्यार का बदला चुकाने के लिए ईमानदारी से अपने हिस्से का कार्य कर सकते हैं और एक सच्चे मनुष्य के रूप में रहना शुरू कर सकते हैं। इस पथ की यात्रा करने के बाद, हम वास्तव में महसूस करते हैं कि अगर परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना न होती, तो हम अपने अंदर बसे शैतान के भ्रष्टाचार की सही तस्वीर कभी न देख पाते। हम पाप करने और परमेश्वर का विरोध करने के स्रोत को कभी न जान पाते। हम पाप की बेड़ियों से खुद को कैसे आजाद करें, हम ये भी न समझ पाते, और इसीलिए हम परमेश्वर के सच्चे आज्ञाकारी कभी न बन पाते। अगर परमेश्वर के वचनों का सख्त न्याय न होता, तो हम उनके धार्मिक, भव्य और निरपराध स्वभाव से परिचित न हो पाते, न ही हमारे हृदय में परमेश्वर का डर होता, न हम परमेश्वर से भयभीत होते, न बुराइयों को छोड़ पाते। ये एक तथ्य है। अगर परमेश्वर ने देहधारण न किया होता, तो अंत के दिनों में न्याय कार्य कौन करता? तब मनुष्य को परमेश्वर के पवित्र, धार्मिक और निरपराध स्वभाव के दर्शन कौन कराता? अगर परमेश्वर ने देहधारण न किया होता, तो किसके वचनों में इतना सामर्थ्य और अधिकार होता, कि वो हमारा न्याय कर सके, हमें शुद्ध कर सके, और हमें पाप की दलदल से बचा सके? सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और कार्य पूरी तरह से परमेश्वर के रूप में उनके रुतबे और पहचान को दिखाते हैं, ये बताते हैं कि वही सृष्टिकर्ता हैं, और वही इकलौते सच्चे परमेश्वर हैं। हमने सर्वशक्तिमान परमेश्वर की बोली में, परमेश्वर की वाणी को पहचान लिया है, और परमेश्वर के प्रकटन को भी देखा है।
"स्क्रीनप्ले प्रश्नों के उत्तर" से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें