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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

पद नामों एवं पहचान के सम्बन्ध में

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन, मसीह, अवतरण, प्रभु यीशु

पद नामों एवं पहचान के सम्बन्ध में


यदि आप परमेश्वर के उपयोग के लिए उपयुक्त होने की कामना करते हैं; तो आपको उस कार्य के बारे में जानना होगा जिसे उसने पहले किया था (नए एवं पुराने नियम में); और, इसके अतिरिक्त, आपको उसके वर्तमान कार्य को जानना होगा। कहने का तात्पर्य है, आपको 6,000 सालों से ऊपर के परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना होगा। यदि आपको सुसमाचार फैलाने के लिए कहा जाये, तो आप परमेश्वर के कार्य को जाने बिना ऐसा करने में सक्षम नहीं होंगे। लोग आप से बाईबिल, एवं पुराने नियम, एवं उस समय यीशु ने जो कुछ कहा और किया था उन सब के विषय में पूछेंगे। वे कहेंगे, "क्या आप लोगों के परमेश्वर ने आप लोगों को यह सब नहीं बताया है? यदि वह (परमेश्वर) आप लोगों को यह नहीं बता सकता है कि बाईबिल में वास्तव में क्या हो रहा है, तो वह परमेश्वर नहीं है; यदि वह बता सकता है, तो हम आश्वस्त हो गए हैं।" शुरुआत में, यीशु ने अपने चेलों के साथ पुराने नियम के बारे में बहुत बातचीत की थी। हर एक चीज़ जो उन्होंने पढ़ा था वह पुराने नियम से ही था; नया नियम तो यीशु के क्रूस पर चढ़ाये जाने के अनेक दशकों बाद लिखा गया था। सुसमाचार फैलाने के लिए, आप लोगों को सैद्धान्तिक रूप से बाईबिल के भीतर की सच्चाई का, एवं इस्राएल में परमेश्वर के कार्य का, कहने का तात्पर्य है यहोवा के द्वारा किये गए कार्य का आभास करना चाहिए। और आप लोगों को भी यीशु के द्वारा किये गए कार्य को समझना है। ये ऐसे मामले हैं जिनके बारे में सभी लोग चिन्तित होते हैं, और वे कार्य के इन दो चरणों की समझ(अ) को धारण नहीं करते हैं। सुसमाचार को फैलाते समय, पहले पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य की बातचीत को एक तरफ रख दें। कार्य का यह चरण उनकी पहुँच से परे है, क्योंकि जिसका आप लोग अनुसरण करते हैं वह ऐसा है जो सब से ऊँचा है: परमेश्वर का ज्ञान, एवं पवित्र आत्मा के कार्य का ज्ञान, और इन दोनों की अपेक्षा कोई भी चीज़ अधिक ऊँची नहीं है। यदि आप पहले उसके बारे में बात करें जो ऊँचा है, तो यह उनके लिए बहुत ज्यादा होगा, क्योंकि उनमें से किसी ने भी पवित्र आत्मा के द्वारा किये गए ऐसे कार्य का अनुभव नहीं किया है; इसकी कोई मिसाल नहीं है, और इसे स्वीकार करना मनुष्य के लिए आसान नहीं है। पवित्र आत्मा के द्वारा कभी कभार किये गये कुछ कार्य के साथ उनके अनुभव भूतकाल की पुरानी बातें हैं। जिसका वे अनुभव करते हैं वह पवित्र आत्मा का आज का कार्य, या आज परमेश्वर की इच्छा नहीं है। वे अभी भी नई ज्योति, या नई चीज़ों के बिना पुराने रीति व्यवहारों के अनुसार कार्य करते हैं।
यीशु के युग में, पवित्र आत्मा ने मुख्य रूप से अपना कार्य यीशु में किया था, जबकि ऐसे लोग जो मन्दिर में याजकीय पोशाक पहने हुए सेवा करते थे वे अटल वफादारी के साथ ऐसा करते थे। उनके पास भी पवित्र आत्मा का कार्य था, परन्तु वे परमेश्वर की वर्तमान इच्छा का एहसास करने में असमर्थ थे, और किसी नए मार्गदर्शन के बिना पुराने रीति व्यवहारों के अनुसार महज यहोवा के प्रति विश्वासयोग्य बने हुए थे। यीशु नया कार्य लेकर आया था। ऐसे लोग जो मन्दिर में थे उनके पास नया मार्गदर्शन नहीं था, न ही उनके पास नया कार्य था। मन्दिर में सेवा करते हुए वे महज पुराने रीति रिवाजों को ही थामे रह सकते थे; मन्दिर को छोड़े बिना, उनके पास कोई नया प्रवेश नहीं हो सकता था। यीशु के द्वारा नया कार्य लाया गया था, और यीशु अपने कार्य को करने के लिए मन्दिर में नहीं गया था। उसने अपना कार्य सिर्फ मन्दिर के बाहर ही किया था, क्योंकि बहुत पहले ही परमेश्वर के कार्य का दायरा बदल चुका था। उसने मन्दिर के भीतर कार्य नहीं किया था, और जब मनुष्य वहाँ उसकी सेवा करता था, तो यह चीज़ों को वैसे ही बनाये रख सकता था जैसे वे थे, और कोई नया कार्य नहीं ला सकता था। उसी प्रकार, धार्मिक लोग आज भी बाईबिल की आराधना करते हैं। यदि आपने उनमें सुसमाचार फैलाया होता, तो वे आपके साथ बाईबिल के बारे में वादविवाद करते; जब वे बाईबिल के बारे में बातचीत करते हैं, और यदि आपके पास वचनों की कमी होती, और आपके पास कहने के लिए कुछ भी नहीं होता, तो वे सोचते कि आप अपने विश्वास में मूर्ख हैं, कि आप बाईबिल, एवं परमेश्वर के वचन को भी जानते नहीं हैं, और आप कैसे कह सकते हैं कि आप परमेश्वर में विश्वास करते हैं। तब वे आपको तुच्छ जानेंगे, और कहेंगे, चूँकि वह ईश्वर जिस पर आप सब विश्वास करते हैं वह परमेश्वर है, तो वह आप लोगों को पुराने नियम एवं नए नियम के बारे में सब कुछ क्यों नहीं बताता है? चूँकि उसने अपनी महिमा को इस्राएल से पूर्व की ओर पहुंचाया है, तो वह इस्राएल में किये गए कार्य को क्यों नहीं जानेगा? वह यीशु के कार्य को क्यों नहीं जानेगा? यदि आप लोग नहीं जानते हैं, तो इससे साबित होता है कि आप सब को बताया नहीं गया है; चूँकि वह यीशु का दूसरा देहधारण है, तो वह कैसे इन चीज़ों को नहीं जान सकता है? यीशु यहोवा के द्वारा किये गए कार्य को जानता था; तो वह कैसे नहीं जान सकता था? जब समय आता है, तो वे सब आपसे ऐसे प्रश्न पूछेंगे? उनके सिर ऐसी चीज़ों से भरे हुए हैं; तो वे कैसे पूछ नहीं सकते हैं? ऐसे लोग जो इस धारा के भीतर हैं वे बाईबिल पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं, क्योंकि आप लोगों ने आज परमेश्वर के द्वारा किये गये कदम दर कदम कार्य को अगल बगल रखा है, आप लोगों ने अपनी अपनी आखों से इस कदम दर कदम कार्य को देखा है, आप सब ने कार्य के तीन चरणों को स्पष्ट रूप से देखा है, और इसलिए आप लोगों को बाईबल को नीचे रखना है और उसका अध्ययन करना बन्द करना है। परन्तु वे इसका अध्ययन नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास इस कदम दर कदम कार्य का कोई ज्ञान नहीं है। कुछ लोग पूछेंगे, "देहधारी परमेश्वर के द्वारा किये गए कार्य और बीते समयों में भविष्यवक्ताओं एवं प्रेरितों के द्वारा किये गए कार्य में क्या अन्तर है?" दाऊद को भी प्रभु कहकर पुकारा गया था, और इस प्रकार यीशु को भी; हालाँकि वह कार्य भिन्न था जो उन्होंने किया था, फिर भी उन्हें उसी नाम से पुकारा गया था। आप क्यों कहते हैं कि उनकी पहचान एक समान नहीं थी? जिसकी यूहन्ना ने गवाही दी थी वह एक दर्शन था, ऐसा दर्शन जो पवित्र आत्मा से आया था, और वह उन वचनों को कह सकता था जिसे पवित्र आत्मा ने कहने का इरादा किया था; तो यूहन्ना की पहचान यीशु की अपेक्षा भिन्न क्यों है? यीशु के द्वारा कहे गए वचन पूरी तरह से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम थे, और पूरी तरह से परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व किया था। जो यूहन्ना ने देखा वह एक दर्शन था, और वह परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ था। ऐसा क्यों है कि यूहन्ना, पतरस, और पौलुस ने बहुत सारे वचन कहे थे – जैसा यीशु ने कहा था - फिर भी उनके पास यीशु के समान पहचान नहीं थी? मुख्य रूप से ऐसा इसलिए है क्योंकि वह कार्य जो उन्होंने किया वह भिन्न था। यीशु ने परमेश्वर के आत्मा का प्रतिनिधित्व किया था, और वह परमेश्वर का आत्मा था जो सीधे तौर पर कार्य कर रहा था। उसने नये युग का कार्य किया था, ऐसा कार्य जिसे पहले कभी किसी ने नहीं किया था। उसने एक नया मार्ग खोला था, उसने यहोवा का प्रतिनिधित्व किया था, और उसने स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व किया था। जबकि पतरस, पौलुस और दाऊद, इसके बावजूद कि उन्हें क्या कहकर पुकारा जाता था, उन्होंने केवल परमेश्वर के एक प्राणी की पहचान का प्रतिनिधित्व किया था, या उन्हें सिर्फ यीशु या यहोवा के द्वारा भेजा गया था। अतः इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उन्होंने कितना अधिक कार्य किया था, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उन्होंने कितने बड़े बड़े चमत्कार किये थे, क्योंकि वे अभी भी बस परमेश्वर के प्राणी ही थे, और परमेश्वर के आत्मा का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ थे। उन्होंने परमेश्वर के नाम में या परमेश्वर के द्वारा भेजे जाने के बाद ही कार्य किया था; इससे बढ़कर, उन्होंने उन युगों में कार्य किया था जिन्हें यीशु या यहोवा के द्वारा शुरू किया गया था, और वह कार्य अलग नहीं था जो उन्होंने किया था। आख़िरकार, वे महज परमेश्वर के प्राणी ही थे। पुराने नियम में, बहुत सारे भविष्यवक्ताओं ने भविष्यवाणियाँ की थीं, या भविष्यवाणी की पुस्तकें लिखी थीं। किसी ने भी नहीं कहा था कि वे परमेश्वर थे, परन्तु जैसे ही यीशु प्रगट हुआ, इससे पहले कि उसने कोई वचन कहा, परमेश्वर के आत्मा ने उसकी गवाही दी कि वह परमेश्वर है। ऐसा क्यों है? इस बिन्दु पर आपको पहले से ही जान लेना चाहिए! इससे पहले, प्रेरितों और भविष्यवक्ताओं ने विभिन्न पत्रियाँ लिखीं, और बहुत सारी भविष्यवाणियां कीं। बाद में, लोगों ने बाईबिल में रखने के लिए उनमें से कुछ को चुन लिया, और कुछ खो गई थीं। जबकि ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि जो कुछ भी उनके द्वारा बोला गया था वह पवित्र आत्मा से आया था, तो ऐसा क्यों है कि इसमें से कुछ को अच्छा माना गया है, और इसमें से कुछ को खराब माना गया है? और क्यों कुछ को चुना गया था, और बाकियों को नहीं? यदि वे वाकई में पवित्र आत्मा के द्वारा कहे गए वचन थे, तो क्या यह लोगों के लिए ज़रूरी होता कि उनका चुनाव करते? क्यों यीशु के द्वारा बोले गए वचनों और उस कार्य का लेखा जोखा चारों सुसमाचारों में से प्रत्येक में अलग अलग है? क्या यह उन लोगों की गलती नहीं हैं जिन्होंने इसे दर्ज किया था? कुछ लोग पूछेंगे, "चूँकि नए नियम की पत्रियां जिन्हें पौलुस एवं नए नियम के अन्य लेखकों के द्वारा लिखा गया था और वह कार्य जिसे उन्होंने किया था वे कुछ कुछ मनुष्य की इच्छा से आये थे, और उन्हें मनुष्य की धारणाओं से मिश्रित कर दिया गया था, तो क्या उन वचनों में कोई मानवीय अशुद्धता नहीं है जिन्हें आज आप (परमेश्वर) बोलते हैं, क्या उनमें वास्तव में कोई भी मानवीय धारणा शामिल नहीं है?" कार्य का यह चारण जिसे परमेश्वर के द्वारा किया गया है वह पौलुस और अनेक प्रेरितों एवं भविष्यवक्ताओं के द्वारा किये गए कार्य से पूरी तरह से अलग है। न केवल पहचान में अन्तर है, बल्कि, मुख्य रूप से, उस कार्य में भी अन्तर है जिसे सम्पन्न किया गया था। जब पौलुस को नीचे गिराया गया और वह प्रभु के सामने गिर पड़ा उसके पश्चात्, कार्य करने के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा उसकी अगुवाई की गई थी, और वह भेजा हुआ प्रेरित बन गया था। और इस प्रकार उसने कलीसियाओं को पत्रियाँ लिखीं, और ये सभी पत्रियों यीशु की शिक्षाओं का अनुसरण करती हैं। पौलुस को प्रभु यीशु के नाम में कार्य करने के लिए प्रभु के द्वारा भेजा गया था, परन्तु जब स्वयं परमेश्वर आया, तो उसने किसी नाम में कार्य नहीं किया, तथा अपने कार्य में किसी और का नहीं सिर्फ परमेश्वर के आत्मा का प्रतिनिधित्व किया। परमेश्वर अपने कार्य को सीधे तौर पर करने के लिए आया था: उसे मनुष्य के द्वारा सिद्ध नहीं किया गया था, और उसके कार्य को किसी मनुष्य की शिक्षाओं के आधार पर सम्पन्न नहीं किया गया था। कार्य के इस चरण में परमेश्वर अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में बातचीत करने के द्वारा अगुवाई नहीं करता है, बल्कि इसके बजाए जो कुछ उसके पास है उसके अनुसार अपने कार्य को सीधे तौर पर क्रियान्वित करता है। उदाहरण के लिए, वह सेवा करनेवालों का कार्य, ताड़ना के समयों का कार्य, मृत्यु का कार्य, एवं परमेश्वर से प्रेम करने का कार्य करता है...। यह वह समस्त कार्य है जिसे पहले कभी नहीं किया गया है, और यह मनुष्य के अनुभवों की अपेक्षा ऐसा कार्य जो वर्तमान युग का है। उन वचनों में जिन्हें मैं ने कहा है, मनुष्य के अनुभव कौन कौन से हैं? क्या वे सब सीधे तौर पर आत्मा से नहीं आते हैं, क्या वे आत्मा के द्वारा जारी नहीं किये जाते हैं? यह तो बस ऐसा है कि आपकी योग्यता बहुत ही कम है कि आप सच्चाई के आर-पार देखने में असमर्थ हैं! जीवन का वह व्यावहारिक तरीका जिसके विषय में मैं ने कहा है वह उस पथ की अगुवाई के लिए है, और इसे किसी के द्वारा पहले कभी नहीं कहा गया है, न ही कभी किसी ने इस पथ का अनुभव किया है, या इस सच्चाई को जाना है। मैं ने इन वचनों को कहा उससे पहले, किसी ने कभी उन्हें नहीं कहा था। किसी ने कभी ऐसे अनुभवों की बात नहीं की थी, न ही उन्होंने कभी ऐसे विवरणों को कहा था, और, इसके अतिरिक्त, किसी ने भी इन चीज़ों को प्रगट करने के लिए ऐसे कथनों की ओर कभी संकेत नहीं किया था। किसी ने कभी भी उस पथ की अगुवाई नहीं की जिसकी अगुवाई आज मैं करता हूँ, और यदि इसकी अगुवाई मनुष्य के द्वारा की जाती, तो यह एक नया मार्ग नहीं होता। उदाहरण के लिए, पौलुस एवं पतरस को ही लीजिए। उनके पास उस पथ पर चलने के पहले जिसकी अगुवाई यीशु के द्वारा की गई थी अपने स्वयं के कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं थे। जब यीशु ने उस पथ की अगुवाई की केवल उसके बाद ही उन्होंने उन वचनों का अनुभव किया जिन्हें यीशु के द्वारा कहा गया था, और उस पथ का अनुभव किया था जिसकी अगुवाई उसके द्वारा की गई थी; इससे उन्होंने अनेक अनुभवों को अर्जित किया, और पत्रियों को लिखा था। और इस प्रकार, मनुष्य के अनुभव उसके समान नहीं हैं जैसा परमेश्वर का कार्य है, और परमेश्वर का कार्य उस ज्ञान के समान नहीं है जैसा मनुष्य की धारणाओं एवं अनुभवों के द्वारा वर्णन किया जाता है। मैं बार बार कह चुका हूँ, कि मैं एक नए पथ की अगुवाई कर रहा हूँ, एवं नया कार्य कर रहा हूँ, और मेरा कार्य एवं मेरे कथन यूहन्ना एवं अन्य सभी भविष्यवक्ताओं से अलग हैं। न तो मैं कभी पहले अनुभवों को प्राप्त करता हूँ और फिर उन्हें आप लोगों से कहता हूँ – ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है। यदि ऐसा होता, तो क्या इससे आप लोगों को बहुत पहले ही देर न हो जाती? भूतकाल में, वह ज्ञान जिसके विषय में बहुतों ने बात की थी उसे भी ऊँचा उठाया गया था, परन्तु उनके सभी वचनों को केवल उन जाने माने प्रसिद्ध आत्मिक व्यक्तियों के आधार पर बोला गया था। उन्होंने मार्ग का मार्गदर्शन नहीं किया था, परन्तु उनके अनुभवों से आये थे, जो कुछ उन्होंने देखा था उससे आये थे, और उनके ज्ञान से आये थे। कुछ तो उनकी धारणाएं थीं, और कुछ तो अनुभव थे जिनका उन्होंने संक्षेपण किया था। आज, मेरे कार्य का स्वभाव उनसे पूरी तरह से अलग है। मैं ने औरों के द्वारा अगुवाई किये जाने का अनुभव नहीं किया है, न ही मैं ने औरों के द्वारा सिद्ध किये जाने को स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त, वह सब जिसे मैं ने कहा है और संगति में विचार विमर्श किया है वह किसी अन्य के समान नहीं है, और किसी अन्य के द्वारा कभी बोला नहीं गया है। आज, इसके बावजूद कि आप कौन हैं, आप लोगों के कार्य को उन वचनों के आधार पर क्रियान्वित किया जाता है जिन्हें मैं कहता हूँ। इन कथनों एवं कार्य के बिना, कौन इन चीज़ों को अनुभव करने में सक्षम होता (सेवा करनेवालों की जाँच, ताड़ना के समय...), और कौन ऐसे ज्ञान को कहने के योग्य होगा? क्या आप सचमुच में इसे देखने में असमर्थ हैं? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कार्य का कौन सा चरण है, क्योंकि जैसे ही मेरे वचन कहे जाते हैं, आप लोग मेरे वचनों के अनुसार संगति करना शुरू कर देते हैं, और उनके अनुसार काम करते हैं, और यह ऐसा मार्ग नहीं है जिसके बारे में आप लोगों में से किसी ने सोचा है। इतनी दूर तक आने के बाद, क्या आप ऐसे स्पष्ट एवं सरल प्रश्न को देखने में असमर्थ हैं? यह कोई ऐसा मार्ग नहीं है जिसे किसी ने सोचा है, न ही यह किसी प्रसिद्ध आत्मिक व्यक्ति पर आधारित है। यह एक नया पथ है, और यहाँ तक कि बहुत सारे वचन भी जिन्हें किसी समय यीशु के द्वारा कहा गया था वे आगे से लागू नहीं होते हैं। जो मैं कहता हूँ वह एक नये युग को शुरू करने का कार्य है, और यह ऐसा कार्य है जो स्वतन्त्र रुप से कार्य करता है; वह कार्य जिसे मैं करता हूँ, और वे वचन जिन्हें मैं कहता हूँ, वे सब नए हैं। क्या यह आज का नया कार्य नहीं है? यीशु का कार्य भी इसके जैसा ही था। उसका कार्य भी मन्दिर के लोगों से अलग था, और इस प्रकार यह फरीसियों के कार्य से भी भिन्न था, और न ही यह उन कार्यों के सदृश्य था जिन्हें इस्राएल के सभी लोगों के द्वारा किया गया था। इसकी गवाही देने के बाद, लोग अपने मनों को नहीं बना सके: क्या इसे सचमुच में परमेश्वर के द्वारा किया गया था? यीशु ने यहोवा की व्यवस्था को नहीं थामा था; जब वह मनुष्य को सिखाने आया, तो वह सब जो उसने कहा था वह उससे नया एवं अलग था जिन्हें प्राचीन संतों एवं पुराने नियम के भविष्यवक्ताओं के द्वारा कहा गया था, और इस कारण से, लोग अनिश्चित बने रहे। यह वह बात है जिससे मनुष्य के साथ व्यवहार करना बहुत ही कठिन हो जाता है। कार्य के इस नये चरण को स्वीकार करने से पहले, वह पथ जिस पर आप में से अधिकतर लोग चलते थे वह उन प्रसिद्ध आत्मिक व्यक्तियों की उस नींव का अभ्यास करने एवं उसमें प्रवेश करने के लिए था। परन्तु आज, वह कार्य जिसे मैं करता हूँ वह बहुत ही अलग है, और इसलिए आप लोग यह निर्णय लेने में असमर्थ हैं कि यह सही है या नहीं। मैं परवाह नहीं करता हूँ कि पहले आप किस पथ पर चलते थे, न ही मैं इसमें रुचि लेता हूँ कि आपने किसका भोजन खाया था, या किसे आपने अपने "पिता" के रूप में माना था। चूँकि मैं आ गया हूँ और मनुष्य का मार्गदर्शन करने के लिए नया कार्य लाया हूँ, तो वे सभी जो मेरा अनुसरण करते हैं उन्हें जो कुछ मैं कहता हूँ उसके अनुसार कार्य करना होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह परिवार कितना सामर्थी है जहाँ से आप हाथ दिखाते हैं, आपको मेरा अनुसरण करना ही होगा, आपको अपने पुराने रीति व्यवहारों के अनुसार काम नहीं करना होगा, आपके "पालक पिता" को पीछे हटना चाहिए, और अपने न्यायोचित भाग को खोजने के लिए आपको अपने परमेश्वर के सामने आना चाहिए। आपकी सम्पूर्णता मेरे ही हाथों में है, और आपको अपने पालक पिता के प्रति बहुत अधिक अंध विश्वास नहीं दिखाना चाहिए; वह पूरी तरह से आपको नियन्त्रित नहीं कर सकता है। आज का कार्य स्वतन्त्र रूप से काम करता है। वह सब जो मैं आज कहता हूँ वह स्पष्ट रुप से भूतकाल की किसी नींव पर आधारित नहीं है; यह एक नई शुरुआत है, और यदि आप कहें कि इसे मनुष्य के हाथ से सृजा गया है, तो आप ऐसे व्यक्ति हैं जिसके लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपके अंधेपन का उपचार कर सकता है!
यशायाह, यहेजकेल, मूसा, दाऊद, इब्राहीम एवं दानिय्येल इस्राएल के चुने हुए लोगों के मध्य अगुवे या भविष्यवक्ता थे। उन्हें परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया था? क्यों पवित्र आत्मा ने उनकी गवाही नहीं दी थी? जैसे ही यीशु ने अपना कार्य प्रारम्भ किया तो क्यों पवित्र आत्मा ने यीशु की गवाही दी और उसके वचनों को बोलना शुरू किया? और क्यों पवित्र आत्मा ने औरों की गवाही नहीं दी? ऐसे मनुष्यों को जो हाड़-मांस के थे, उन्हें, "प्रभु" कहकर पुकारा जाता था। इसकी परवाह किये बिना कि उन्हें क्या कहकर पुकारा जाता था, उनके कार्य उनके अस्तित्व एवं मूल-तत्व को दर्शाते हैं, और उनका अस्तित्व एवं मूल-तत्व उनकी पहचान को दर्शाता है। उनका मूल-तत्व उनके पद नामों से सम्बंधित नहीं है; जो कुछ वे अभिव्यक्त करते थे, और जैसा जीवन वे जीते थे उसके द्वारा इसे दर्शाया जाता है। पुराने नियम में, प्रभु कहकर पुकारा जाना सामान्य बात से बढ़कर और कुछ नहीं था, और किसी व्यक्ति को किसी भी तरह से पुकारा जा सकता था, परन्तु उसका मूल-तत्व एवं अंतर्निहित पहचान अपरिवर्तनीय था। उन झूठे मसीहाओं, झूठे भविष्यवक्ताओं और धोखेबाजों के मध्य, क्या ऐसे लोग भी नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर कहा जाता है? और क्यों वे परमेश्वर नहीं हैं? क्योंकि वे परमेश्वर का कार्य करने में असमर्थ हैं। मूल में वे मनुष्य ही हैं, लोगों को धोखा देने वाले हैं, न कि परमेश्वर; और इस प्रकार उनके पास परमेश्वर की पहचान नहीं है। क्या बारह गोत्रों के मध्य दाऊद को भी प्रभु कहकर नहीं पुकारा गया था? यीशु को भी प्रभु कहकर पुकारा गया था; क्यों सिर्फ यीशु को ही देहधारी परमेश्वर कहकर पुकारा गया था? क्या यिर्मयाह को भी मनुष्य के पुत्र के रूप में नहीं जाना गया था? और क्या यीशु को मनुष्य के पुत्र के रूप में नहीं जाना गया था? क्यों यीशु को परमेश्वर के स्थान पर क्रूस पर चढ़ाया गया था? क्या यह इसलिए नहीं है क्योंकि उसका मूल-तत्व भिन्न था? क्या यह इसलिए नहीं है क्योंकि वह कार्य जो उसने किया वह भिन्न था? क्या पद नाम से फर्क पड़ता है? हालाँकि यीशु को मनुष्य का पुत्र भी कहा जाता था, फिर भी वह परमेश्वर का पहला देहधारण था, वह सामर्थ ग्रहण करने, एवं छुटकारे के कार्य को पूरा करने के लिए आया था। यह साबित करता है कि यीशु की पहचान एवं मूल-तत्व दूसरों से भिन्न थी जिन्हें भी मनुष्य का पुत्र कहा गया था। आज, आप लोगों में से कौन यह कहने की हिम्मत कर सकता है कि सभी वचन जिन्हें उन लोगों के द्वारा कहा गया था जिन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया था वे पवित्र आत्मा से आये थे? क्या किसी में ऐसी चीज़ें कहने की हिम्मत है? यदि आप ऐसी चीज़ें कहते हैं, तो फिर क्यों एज्रा की भविष्यवाणी की पुस्तक को अलग छोड़ दिया गया था, और क्यों यही चीज़ उन प्राचीन संतों एवं भविष्यवक्ताओं की पुस्तकों के साथ किया गया था? यदि वे सब पवित्र आत्मा से आये थे, तो आप लोगों ने क्यों ऐसे मनमाने ढंग से चुनाव करने की हिम्मत की है? क्या आप पवित्र आत्मा के कार्य को चुनने के योग्य हैं? इस्राएल की बहुत सारी कहानियों को भी अलग छोड़ दिया गया था। और यदि आप मानते हैं कि भूतकाल के ये लेख सब पवित्र आत्मा ही से आये थे, तो फिर क्यों कुछ पुस्तकों को अलग छोड़ दिया गया था? यदि वे सब पवित्र आत्मा से आये थे, तो उन सब को सुरक्षित रखना चाहिए, और पढ़ने के लिए कलीसियाओं के भाइयों एवं बहनों को भेजा जाना चाहिए। उन्हें मानवीय इच्छा के द्वारा चुना या अलग नहीं छोड़ा जाना चाहिए; ऐसा करना गलत है। यह कहना कि पौलुस एवं यूहन्ना के अनुभव उनके व्यक्तिगत अवलोकन के साथ घुल-मिल गए थे इसका यह मतलब नहीं है कि उनके अनुभव एवं ज्ञान शैतान से आये थे, परन्तु बात केवल यह है कि उनके पास ऐसी चीज़ें थीं जो उनके व्यक्तिगत अनुभवों एवं अवलोकन से आई थीं। उनका ज्ञान उस समय के वास्तविक अनुभवों की पृष्ठभूमि के अनुसार था, और कौन आत्म विश्वास के साथ कह सकता था कि यह सब पवित्र आत्मा ही से आया था। यदि चारों सुसमाचार पवित्र आत्मा से आये थे, तो ऐसा क्यों था कि मत्ती, मरकुस, लूका और यूहन्ना प्रत्येक ने यीशु के कार्य के बारे कुछ अलग कहा था? यदि आप लोग यह नहीं मानते हैं, तो फिर आप बाईबिल के लेखों में देखिये कि किस प्रकार पतरस ने यीशु का तीन बार इन्कार किया था: वे सब भिन्न हैं, और उनमें से प्रत्येक के पास उनकी अपनी विशेषताएं हैं। बहुत से लोग जो अनजान हैं वे कहते हैं, देहधारी परमेश्वर भी एक मनुष्य ही था, अतः क्या वे वचन जो उसने कहा था पवित्र आत्मा से आ सकते थे? यदि पौलुस एवं यूहन्ना के वचन मानवीय इच्छा के साथ घुल-मिल गए थे, तो क्या वे वचन जिन्हें देहधारी परमेश्वर ने कहा था वे वास्तव में मानवीय इच्छा के साथ नहीं घुले-मिले थे? ऐसे लोग जो ऐसी बातें करते हैं वे अन्धे एवं अनजान हैं! चारों सुसमाचारों को ध्यानपूर्वक पढ़ें; पढ़िए कि उन्होंने उन कार्यों के विषय में क्या दर्ज किया है जिन्हें यीशु ने किया था, और उन वचनों को पढ़िए जिन्हें उसने कहा था। प्रत्येक विवरण, एकदम सरल रूप में, अलग था, और प्रत्येक का अपना ही यथार्थ दृष्टिकोण था। यदि इन पुस्तकों के लेखकों के द्वारा जो कुछ लिखा गया था वह सब पवित्र आत्मा से आया होता, तो यह सब एक समान एवं सुसंगत होता। तो फिर क्यों इसमें भिन्नताएं हैं? क्या मनुष्य अत्यंत मूर्ख नहीं है, एवं इसे देखने में असमर्थ नहीं है? यदि आपको परमेश्वर की गवाही देने के लिए कहा जाता, तो आप किस प्रकार की गवाही प्रदान कर सकते हैं? क्या परमेश्वर को जानने का ऐसा तरीका उसकी गवाही दे सकता है? यदि अन्य लोग आपसे पूछें, "यदि यूहन्ना एवं लूका के लेख मानवीय इच्छा के साथ मिश्रित हो जाते, तो क्या आपके परमेश्वर के द्वारा कहे गए वचन मानवीय इच्छा से मिश्रित नहीं हो जाते?" क्या आप एक स्पष्ट उत्तर दे सकते हैं? लूका और मत्ती ने यीशु के वचनों को सुना, और यीशु के कार्यों को देखा उसके पश्चात्, उन्होंने यीशु के द्वारा किये गए कुछ तथ्यों के संस्मरणों का विवरण देने की रीति से अपने स्वयं के ज्ञान के विषय में कहा था। क्या आप कह सकते हैं कि उनके ज्ञान को पूरी तरह से पवित्र आत्मा के द्वारा प्रगट किया गया था? बाईबिल के बाहर, कई प्रसिद्ध आत्मिक व्यक्ति थे जिनके पास उनसे भी अधिक ज्ञान था; आनेवाली पीढ़ियों के द्वारा उनके वचनों को क्यों नहीं लिया गया था? क्या उनको भी पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग नहीं किया गया था? यह जानिए कि आज के कार्य में, मैं यीशु के कार्य की नींव के आधार पर अपने स्वयं के अवलोकन के विषय में नहीं बोल रहा हूँ, और न ही मैं यीशु के कार्य की पृष्ठभूमि के विरोध में अपने स्वयं के ज्ञान के विषय में बोल रहा हूँ। उस समय यीशु ने कौन सा कार्य किया था? और आज मैं कौन सा कार्य कर रहा हूँ? जो मैं करता और कहता हूँ उसकी कोई मिसाल नहीं है। वह पथ जिस पर मैं आज चलता हूँ उस पर इससे पहले कभी कदम नहीं रखा गया था, इस पर युगों युगों से लोगों और भूतकाल की पीढ़ियों के द्वारा कभी नहीं चला गया था। आज, इसे खोल दिया गया है, और क्या यह आत्मा का कार्य नहीं है? यद्यपि यह पवित्र आत्मा का कार्य था, फिर भी भूतकाल के सभी अगुवों ने अपने कार्य को औरों की नींव पर सम्पन्न किया था। परन्तु स्वयं परमेश्वर का कार्य भिन्न है, जैसे यीशु के कार्य का चरण था: उसने एक नया मार्ग खोला था। जब वह आया तब उसने स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया, एवं कहा कि मनुष्य को पश्चाताप, एवं अंगीकार करना चाहिए। जब यीशु ने अपना कार्य पूरा किया उसके बाद, पतरस एवं पौलुस और दूसरों ने यीशु के कार्य को करना प्रारम्भ किया था। जब यीशु को क्रूस पर चढ़ाया गया और उसे स्वर्ग में उठाया गया उसके बाद, उन्हें क्रूस के मार्ग का प्रचार करने के लिए आत्मा के द्वारा भेजा गया था। यद्यपि पौलुस के वचनों को ऊँचा उठाया गया था, फिर भी वे उस नींव पर भी आधारित थे जिसे यीशु ने डाला था, जैसे कि धीरज, प्रेम, कष्ट, सिर ढंकना, बपतिस्मा, या अन्य सिद्धान्त ताकि उनका पालन किया जाये। यह सब यीशु के वचनों की नींव पर था। वे एक नया मार्ग खोलने में असमर्थ थे, क्योंकि वे सब मनुष्य ही थे जिन्हें परमेश्वर के द्वारा उपयोग किया गया था।
उस समय यीशु के कथन एवं कार्य सिद्धान्त को थामे हुए नहीं थे, और उसने अपने कार्य को पुराने नियम की व्यवस्था के कार्य के अनुसार सम्पन्न नहीं किया था। यह उस कार्य के अनुसार था जिसे अनुग्रह के युग में किया जाना चाहिए। उसने उस कार्य के अनुसार, अपने स्वयं की योजनाओं के अनुसार, और अपने सेवकाई के अनुसार परिश्रम किया था जिसे वह आगे लाया था; उसने पुराने नियम की व्यवस्था के अनुसार कार्य नहीं किया था। उसने जो भी किया उसमें ऐसा कुछ नहीं था जो पुराने नियम की व्यवस्था के अनुसार था, और वह भविष्यवक्ताओं के वचनों को पूरा करने के कार्य को करने के लिए नहीं आया था। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण स्पष्ट रूप से प्राचीन भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणियों को पूरा करने के लिए नहीं था, वह सिद्धान्त में बने रहने या प्राचीन भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणियों का जान-बूझकर एहसास करने के लिए नहीं आया था। फिर भी उसके कार्यों ने प्राचीन भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणियों में अड़चन नहीं डाली थी, न ही उन्होंने उस कार्य में विघ्न डाला था जो उसने पहले किया था। उसके कार्य का प्रमुख बिन्दु किसी सिद्धान्त के द्वारा बने रहना, और उस कार्य को करना नहीं था जिसे उसे स्वयं करना चाहिए था। वह एक भविष्यवक्ता या दर्शी नहीं था, परन्तु कार्य करने वाला था, जो वास्तव में उस कार्य को करने आया था जिसे करने की अपेक्षा उससे की गई थी, और अपने नए युग को शुरू करने और अपने नये कार्य को सम्पन्न करने के लिए आया था। निश्चित रूप से, जब यीशु अपना कार्य करने के लिए आया, तो उसने पुराने नियम में प्राचीन भविष्यवक्ताओं के द्वारा कहे गए बहुत सारे वचनों को भी पूरा किया था। अतः आज के कार्य ने पुराने नियम के प्राचीन भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणियों को पूरा किया है। यह बस ऐसा है कि मैं उस "पीले पड़ चुके पुराने पंचांग" को पकड़े नहीं रहता हूँ, बस इतना ही। क्योंकि और भी अधिक कार्य हैं जिन्हें मुझे करना होगा, एवं और भी अधिक वचन हैं जिन्हें मुझे आप लोगों से कहना होगा; और यह कार्य एवं ये वचन बाईबिल के लेखांशों की व्याख्या करने की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ऐसे कार्य का आप लोगों के लिए कोई बड़ा महत्व एवं मूल्य नहीं है, और यह आप सब की सहायता नहीं कर सकता है, या आप लोगों को बदल नहीं सकता है। मैं नया कार्य करने का इरादा रखता हूँ किन्तु बाईबिल के किसी भी लेखांश को पूरा करने के लिए नहीं। यदि परमेश्वर सिर्फ बाईबिल के प्राचीन भविष्यवक्ताओं के वचनों को पूरा करने के लिए पृथ्वी पर आए, तो अधिक बड़ा कौन होता, देहधारी परमेश्वर या वे प्राचीन भविष्यवक्ता? आख़िरकार, क्या भविष्यवक्ताओं के पास परमेश्वर की ज़िम्मेदारी है, या परमेश्वर के पास भविष्यवक्ताओं की ज़िम्मेदारी है? आप इन वचनों की व्याख्या कैसे करते हैं?
शुरुआत में, जब यीशु ने आधिकारिक रूप से अपनी सेवकाई को क्रियान्वित नहीं किया था, उन चेलों के समान जिन्होंने उनका अनुसरण किया था, वह भी कई बार सभाओं में सम्मिलित हुआ, और आत्मिक भजनों को गाया, प्रशंसा की, और मन्दिर में पुराना नियम पढ़ा। जब उसने बपतिस्मा लिया और बाहर आया उसके बाद, आत्मा आधिकारिक रूप से उस पर उतरा और कार्य करना शुरू किया, और अपनी पहचान एवं उस सेवकाई को प्रकट किया जिसे वह शुरू करनेवाला था। इससे पहले, कोई उसकी पहचान को नहीं जानता था, और मरियम को छोड़कर, यहाँ तक कि यूहन्ना भी नहीं जानता था। यीशु 29 वर्ष का था जब उसने बपतिस्मा लिया। जब उसका बपतिस्मा पूरा हो गया उसके बाद, आकाश खुल गया और एक आवाज आई: "यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिस से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ।" जब एक बार यीशु को बपतिस्मा दे दिया गया, पवित्र आत्मा ने इस रीति से उसकी गवाही देना शुरू कर दिया। 29 वर्ष की आयु में बपतिस्मा दिए जाने से पहले, उसने एक साधारण मनुष्य का जीवन जीया था, उसने तब खाया जब उसे खाना चाहिए था, वह सामान्य रूप से सोता एवं कपड़े पहनता था, और उसके विषय में कोई भी चीज़ दूसरों से अलग नहीं थी। निश्चित रूप से यह सिर्फ मनुष्य की शारीरिक आँखों के लिए ही था। कई बार वह भी कमज़ोर हो जाता था, और कई बार वह भी चीज़ों को परख नही सकता था, ठीक वैसे ही जैसे यह बाईबिल में लिखा हुआ है: "उसकी बुद्धि उसकी आयु के साथ साथ बढ़ने लगी।" ये वचन महज यह दर्शाते हैं कि उसके पास एक साधारण एवं सामान्य मानवता थी, और वह विशेष रूप से अन्य सामान्य लोगों से कुछ अलग नहीं था। साथ ही वह एक सामान्य व्यक्ति के समान ही बड़ा हुआ था, और उसके विषय में कुछ भी खास नहीं था। फिर भी वह परमेश्वर की देखभाल एवं सुरक्षा के तले था। बपतिस्मा होने के बाद, उसकी परीक्षा होनी शुरू हो गई, जिसके बाद उसने अपनी सेवकाई एवं कार्य को करना शुरू किया, और वह सामर्थ, एवं बुद्धि, एवं अधिकार को धारण किये हुए था। ऐसा नहीं कह सकते हैं कि पवित्र आत्मा ने उसमें कार्य नहीं किया था, या उसके बपतिस्मे से पहले उसके भीतर नहीं था। उसके बपतिस्मे से पहले पवित्र आत्मा उसके भीतर में ही बसता था परन्तु उसने आधिकारिक रूप से कार्य करना शुरू नहीं किया था, क्योंकि इस बात की सीमाएं है कि कब परमेश्वर अपना कार्य करता है, और, इसके अतिरिक्त, सामान्य लोगों में विकसित होने की एक सामान्य प्रक्रिया होती है। पवित्र आत्मा हमेशा से ही उसके भीतर रहता था। जब यीशु का जन्म हुआ, वह दूसरों से भिन्न था, और एक भोर का तारा प्रगट हुआ था; उसके जन्म से पहले, एक स्वर्ग दूत यूसुफ के स्वप्न में प्रकट हुआ और उससे कहा कि मरियम एक बालक शिशु को जन्म देनेवाली है, और यह कि पवित्र आत्मा के द्वारा उस बालक को गर्भ में धारण किया गया था। यह यीशु के बपतिस्मे के तुरन्त बाद नहीं हुआ था, साथ ही यह तब हुआ था जब पवित्र आत्मा ने अपने कार्य को आधिकारिक रूप से करना शुरू किया था, कि पवित्र आत्मा उस पर उतरा आया था। यह कहना कि पवित्र आत्मा एक कबूतर के रूप में उस पर उतरा था यह उसकी सेवकाई की आधिकारिक शुरुआत के सन्दर्भ में है। परमेश्वर का आत्मा पहले से ही उसके भीतर था, परन्तु उसने कार्य करना शुरू नहीं किया था, क्योंकि अब तक समय नहीं पहुंचा था, और आत्मा उतावली से कार्य नहीं करता था। आत्मा ने बपतिस्मा के माध्यम से उसकी गवाही दी थी। जब वह पानी से बाहर आया, तो आत्मा ने आधिकारिक रूप से उसमें कार्य करना शुरू कर दिया, जो यह संकेत करता था कि परमेश्वर के देहधारी शरीर ने अपनी सेवकाई को पूरा करना शुरू कर दिया था, और छुटकारे का कार्य शुरू कर दिया था, अर्थात्, अनुग्रह का युग आधिकारिक रूप से शुरू हो गया था। और इस प्रकार, परमेश्वर के कार्य का एक समय होता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह क्या कार्य करता है। उसके बपतिस्मे के बाद, यीशु में कोई विशेष बदलाव नहीं हुए थे: वह अब भी अपनी मूल देह में ही था। यह बस ऐसा है कि उसने अपने कार्य को शुरू किया और अपनी पहचान को प्रगट किया था, और वह अधिकार एवं सामर्थ से भरपूर था। इस लिहाज से वह पहले से भिन्न था। उसकी पहचान भिन्न थी, कहने का तात्पर्य है कि उसकी हैसियत में एक महत्वपूर्ण बदलाव था; यह पवित्र आत्मा की गवाही थी, और ऐसा कार्य नहीं था जिसे मनुष्य के द्वारा किया गया था। शुरुआत में, लोग नहीं जानते थे, और वे सिर्फ थोड़ा सा ही जान पाए थे जब किसी समय पवित्र आत्मा ने इस रीति से यीशु की गवाही दी थी। यदि यीशु ने कोई बड़ा कार्य किया होता इससे पहले कि पवित्र आत्मा ने उसकी गवाही दी होती, किन्तु स्वयं परमेश्वर की गवाही के बिना किया होता, तो इसके बावजूद कि उसका कार्य कितना बड़ा है, लोग उसकी पहचान को कभी जान नहीं पाते, क्योंकि मानवीय आँख इसे देखने में असमर्थ होती। पवित्र आत्मा की गवाही के कदम के बिना, कोई भी उसे देहधारी परमेश्वर के रूप में नहीं पहचान सकता था। जब पवित्र आत्मा ने उसकी गवाही दी उसके पश्चात्, यदि यीशु उसी रीति से बिना किसी अन्तर के कार्य करना जारी रखता, तो इसका वैसा प्रभाव नहीं हुआ होता। और इसमें मुख्य रूप से पवित्र आत्मा के कार्य को भी प्रदर्शित किया गया है। जब पवित्र आत्मा ने गवाही दी उसके बाद, पवित्र आत्मा को स्वयं को दिखाना पड़ा था, ताकि आप स्पष्ट रूप से देख सकें कि वह परमेश्वर था, यह कि उसके भीतर परमेश्वर का आत्मा था; परमेश्वर की गवाही गलत नहीं थी, और यह साबित करता था कि उसकी गवाही सही थी। यदि पहले और बाद का कार्य एक ही समान होता, तो उसकी देहधारी सेवकाई, और पवित्र आत्मा के कार्य को अत्यंत सुस्पष्ट नहीं किया गया होता, और इस प्रकार मनुष्य पवित्र आत्मा के कार्य को पहचानने में असमर्थ होता, क्योंकि वहाँ कोई स्पष्ट अन्तर नहीं था। गवाही देने के बाद, पवित्र आत्मा को इस गवाही को थामे रखना था, और इस प्रकार उसे यीशु में अपनी बुद्धि एवं अधिकार को प्रदर्शित करना पड़ा था, जो बीते समयों से भिन्न था। निश्चित रूप से, यह बपतिस्मा का प्रभाव नहीं था; बपतिस्मा तो महज एक धार्मिक अनुष्ठान था, यह तो बस ऐसा है कि बपतिस्मा वह तरीका था ताकि यह दर्शाया जाए कि यह सेवकाई को क्रियान्वित करने का समय था। ऐसा कार्य परमेश्वर की बड़ी सामर्थ को सुस्पष्ट करने के लिए, और पवित्र आत्मा की गवाही को सुस्पष्ट करने के लिए था, और पवित्र आत्मा बिलकुल अन्त तक इस गवाही की ज़िम्मेदारी लेता। अपनी सेवकाई को क्रियान्वित करने से पहले, यीशु ने सन्देशों को भी सुना था, तथा विभिन्न स्थानों में सुसमाचार को प्रचार किया और उसे फैलाया था। उसने कोई बड़ा कार्य नहीं किया था क्योंकि उसके लिए सेवकाई को क्रियान्वित करने का समय नहीं आया था, और साथ ही इसलिए भी क्योंकि स्वयं परमेश्वर दीनता से देह में छिपा हुआ था, और जब तक समय नहीं आया तब तक कोई कार्य नहीं किया था। उसने दो कारणों से बपतिस्मे से पहले कार्य नहीं किया था: पहला, क्योंकि पवित्र आत्मा कार्य करने के लिए उस पर आधिकारिक रूप से नहीं उतरा था (कहने का तात्पर्य है, ऐसा कार्य करने के लिए पवित्र आत्मा ने यीशु को सामर्थ एवं अधिकार प्रदान नहीं किया था), और भले ही वह अपनी स्वयं की पहचान को जान लेता, फिर भी यीशु उस कार्य को करने में असमर्थ होता जिसे उसने बाद में करने का इरादा किया था, और उसे अपने बपतिस्मे के दिन तक इन्तज़ार करना पड़ता। यह परमेश्वर का समय था, और कोई भी इसका उल्लंघन करने में समर्थ नहीं था, यहाँ तक कि स्वयं यीशु भी; स्वयं यीशु भी अपने स्वयं के कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। निश्चित रूप से, यह परमेश्वर की नम्रता थी, और साथ ही परमेश्वर के कार्य की व्यवस्था भी थी; यदि परमेश्वर के आत्मा ने यह कार्य नहीं किया होता, तो कोई भी उसके कार्य को नहीं कर सकता था। दूसरा, उसको बपतिस्मा दिए जाने से पहले, वह बस एक बहुत ही साधारण एवं सामान्य मनुष्य था, और किसी अन्य आम एवं सामान्य लोगों से अलग नहीं था; यह एक पहलु है कि किस प्रकार देहधारी परमेश्वर अलौकिक नहीं था। देहधारी परमेश्वर ने परमेश्वर के आत्मा के प्रबंधों का उल्लंघन नहीं किया था; उसने एक क्रमबद्ध तरीके और बहुत ही सामान्य रूप से कार्य किया था। यह केवल बपतिस्मा के बाद ही हुआ था कि उसके कार्य के पास अधिकार एवं सामर्थ था। कहने का तात्पर्य है, यद्यपि वह देहधारी परमेश्वर था, फिर भी उसने किसी अलौकिक कार्य को अंजाम नहीं दिया था, और सामान्य लोगों के समान ही बड़ा हुआ था। यदि यीशु पहले से ही अपनी पहचान को जान गया होता, और अपने बपतिस्मा के पहले सारी धरती पर बड़ा कार्य किया होता, और सामान्य लोगों से भिन्न होता, अपने आप को असाधारण दिखाया होता, तो न केवल यूहन्ना के लिए अपने कार्य को करना असंभव होता, बल्कि परमेश्वर के लिए भी अपने कार्य के अगले चरण को शुरू करने के लिए कोई मार्ग नहीं होता। और इस प्रकार इससे प्रमाणित होता कि जो कुछ परमेश्वर ने किया था वह गलत हो गया, और मनुष्य को ऐसा प्रतीत होता कि परमेश्वर का आत्मा और परमेश्वर का देहधारी शरीर एक ही स्रोत से नहीं आए थे। अतः, यीशु का कार्य जो बाईबिल में दर्ज है वह ऐसा कार्य है जिसे उसके बपतिस्मे के बाद सम्पन्न किया गया था, वह ऐसा कार्य है जिसे तीन सालों के पथक्रम के दौरान किया गया था। बाईबिल इस बात को दर्ज नहीं करती है कि उसने बपतिस्मे से पहले क्या किया था क्योंकि उसने इस कार्य को बपतिस्मे से पहले नहीं किया था। वह महज एक साधारण मनुष्य ही था, और एक साधारण मनुष्य को ही दर्शाता था; इससे पहले कि यीशु ने अपनी सेवकाई को क्रियान्वित करना शुरू किया, वह साधारण लोगों से भिन्न नहीं था, और दूसरे उसमें कोई अन्तर नहीं देख सकते थे। जब वह 29 वर्ष का हुआ उसके बाद ही ऐसा हुआ कि यीशु ने जाना कि वह परमेश्वर के कार्य के एक चरण को पूरा करने के लिए आया था; इससे पहले, वह स्वयं नहीं जानता था, क्योंकि परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य अलौकिक नहीं था। जब बारह वर्ष की आयु में उसने आराधनालय में एक सभा में भाग लिया, तो मरियम उसकी तलाश कर रही थी, और उस समय उसने सिर्फ एक ही वाक्य कहा, किसी भी अन्य बच्चे के रुप में उसी रीति से: "माता! क्या आप नहीं जानती हैं कि मुझे अपने पिता की इच्छा को सभी चीज़ों के ऊपर रखना है?" निश्चित रूप से, जबकि वह पवित्र आत्मा के द्वारा गर्भ में आया था, तो क्या यीशु किसी रीति से विशेष नहीं हो सकता था? परन्तु उसकी विशेषता का अर्थ यह नहीं था कि वह अलौकिक था, परन्तु मात्र इतना कि वह किसी दूसरे बालक से बढ़कर परमेश्वर से प्रेम करता था। हालाँकि वह रंग-रूप में मनुष्य था, फिर भी उसका मूल-तत्व अभी भी विशेष एवं दूसरों से भिन्न था। परन्तु, यह केवल उसके बपतिस्मा के बाद ही था कि उसने वास्तव में एहसास किया कि पवित्र आत्मा उसमें कार्य कर रहा था, और यह एहसास किया कि वह स्वयं परमेश्वर था। यह सिर्फ तब हुआ जब वह 33 वर्ष की आयु में पहुंचा कि उसने सचमुच में जाना कि पवित्र आत्मा ने उसके जरिए क्रूसारोहण के कार्य को सम्पन्न करने का इरादा किया था। 32 वर्ष की आयु में, वह कुछ आन्तरिक सच्चाईयों को जान पाया था, जैसा मत्ती के सुसमाचार में लिखा हुआ है: "शमौन पतरस ने उत्तर दिया, कि तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है। ... उस समय से यीशु अपने चेलों को बताने लगा, कि मुझे अवश्य है, कि यरूशलेम को जाऊं, और पुरनियों और महायाजकों और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दुःख उठाऊं; और मार डाला जाऊं; और तीसरे दिन जी उठूं।" वह पहले से नहीं जानता था कि उसे क्या कार्य करना था, परन्तु एक विशेष समय को जानता था। जैसे ही उसका जन्म हुआ वह पूरी तरह से नहीं जानता था; पवित्र आत्मा ने धीरे धीरे उसमें कार्य किया था, और उस कार्य को करने की एक प्रक्रिया थी। यदि, बिलकुल शुरुआत में ही, उसे पता चल जाता कि वह परमेश्वर, एवं मसीह, एवं मनुष्य का देहधारी पुत्र है, यह कि उसे क्रूसारोहण के कार्य को पूरा करना है, तो उसने पहले कार्य क्यों नहीं किया था? ऐसा क्यों हुआ कि अपने चेलों को सेवकाई के बारे में बताने के बाद ही यीशु ने दुःख का एहसास किया, और इसके लिए यत्नपूर्वक प्रार्थना की? क्यों यूहन्ना ने उसके लिए मार्ग खोला और उसे बपतिस्मा दिया इससे पहले कि वह बहुत सी चीज़ों को समझ पाता जिन्हें उसने नहीं समझ था? जो कुछ यह साबित करता है वह यह है कि यह देह में देहधारी परमेश्वर का कार्य था, और इस प्रकार उसके लिए समझने, एवं हासिल करने हेतु एक प्रकिया थी, क्योंकि वह परमेश्वर का देहधारी शरीर था, जिसका कार्य आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किये गए कार्य से भिन्न था।
परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण एक एवं समान धारा का अनुसरण करता है, और इस प्रकार परमेश्वर की छह हज़ार सालों की प्रबंधकीय योजना में, संसार की नींव से लेकर ठीक आज तक, प्रत्येक चरण का अगले चरण के द्वारा नज़दीकी से अनुसरण किया गया है। यदि मार्ग प्रशस्त करने के लिए कोई न होता, तो उसके बाद आने के लिए कोई न होता; चूँकि ऐसे लोग हैं जो उसके बाद आते हैं, तो ऐसे लोग भी हैं जो मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस रीति से कदम दर कदम कार्य को आगे पहुंचया गया है। एक चरण दूसरे चरण का अनुसरण करता है, और मार्ग प्रशस्त करने वाले व्यक्ति के बिना, उस कार्य को करना असंभव हो गया होता, और परमेश्वर के पास अपने कार्य को आगे ले जाने के लिए कोई साधन नहीं होता। कोई भी चरण दूसरे चरण का खण्डन नहीं करता है, और एक धारा को बनाने के लिए प्रत्येक चरण दूसरे चरण का क्रम से अनुसरण करता है; यह सब एक ही आत्मा के द्वारा किया जाता है, परन्तु इसकी परवाह किये बगैर कि कोई व्यक्ति मार्ग खोलता है या नहीं, या दूसरे के कार्य को जारी रखता है या नहीं, यह उनकी पहचान को निर्धारित नहीं करता है। क्या यह सही नहीं है? यूहन्ना ने मार्ग खोला, और यीशु ने उसके कार्य को जारी रखा, अतः क्या यह साबित करता है कि यीशु की पहचान यूहन्ना से नीची थी? यीशु से पहले यहोवा ने अपने कार्य को सम्पन्न किया था, अतः क्या तुम कह सकते हो कि यहोवा यीशु से बड़ा है? यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उन्होंने मार्ग प्रशस्त किया थ या दूसरे के कार्य को जारी रखा था; जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वह उनके कार्य का सार-तत्व है, और वह पहचान है जिसे यह दर्शाता है। क्या यह सही नहीं है? चूँकि परमेश्वर ने मनुष्य के मध्य कार्य करने का इरादा किया था, उसे ऐसे लोगों को खड़ा करना था जो मार्ग प्रशस्त करने के कार्य को कर सकते थे। जब यूहन्ना ने प्रचार करना शुरू ही किया था, उसने कहा, "तुम लोग प्रभु का मार्ग तैयार करो, और उसकी सड़कें सीधी करो। तुम लोग मन फिराओ; क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट है।" उसने शुरु से इस प्रकार कहा था, और वह क्यों इन वचनों को कह सकता था? उस क्रम के सम्बन्ध मे जिसके अंतर्गत इन वचनों को कहा गया था, वह यूहन्ना ही था जिसने सबसे पहले स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार को कहा था, और वह यीशु था जो उसके बाद बोला था। मनुष्य की धारणाओं के अनुसार, यह यूहन्ना ही था जिसने नए पथ को खोला था, और निश्चित रूप से यूहन्ना यीशु से बड़ा था। परन्तु यूहन्ना ने नहीं कहा कि वह मसीह था, और परमेश्वर ने अपने प्रिय पुत्र के रूप में उसकी गवाही नहीं दी थी, परन्तु मार्ग को खोलने और प्रभु के लिए मार्ग तैयार करने के लिए मात्र उसका उपयोग किया था। उसने यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त किया था, परन्तु यीशु के बदले में कार्य नहीं कर सकता था। मनुष्य के समस्त कार्य को पवित्र आत्मा के द्वारा भी संभाला जाता है।
पुराने नियम के युग में, वह यहोवा ही था जो मार्ग की अगुवाई करता था, और यहोवा का कार्य पुराने नियम के सम्पूर्ण युग, और इस्राएल में किये गये सारे कार्य को दर्शाता था। मूसा ने तो मात्र इस कार्य को पृथ्वी पर थामा था, और उसके परिश्रम को मनुष्य के द्वारा प्रदान किया गया सहयोग माना गया था। उस समय, यह यहोवा ही था जो बोलता था, और उसने मूसा को बुलाया था, और उसे इस्राएल के लोगों के मध्य खड़ा किया था, और मूसा से कनान की ओर जंगल में उनकी अगुवाई करवाई थी। यह स्वयं मूसा का कार्य नहीं था, परन्तु ऐसा कार्य था जिसे यहोवा के द्वारा व्यक्तिगत रूप से निर्देशित किया गया था, और इस प्रकार मूसा को परमेश्वर नहीं कहा जा सकता। साथ ही मूसा ने व्यवस्था को स्थापित भी किया था, परन्तु इस व्यवस्था का आदेश यहोवा के द्वारा व्यक्तिगत रूप से दिया गया था, जिसने इसे मूसा के द्वारा बुलवाया था। यीशु ने भी आज्ञाएं बनाईं, और पुराने नियम की व्यवस्था का उन्मूलन किया और नये युग के लिए आज्ञएं निर्दिष्ट कीं। क्यों यीशु स्वयं परमेश्वर है? क्योंकि ये एक समान चीज़ें नहीं हैं। उस समय, मूसा के द्वारा किया गया कार्य उस युग को नहीं दर्शाता था, न ही इसने कोई नया मार्ग खोला था; उसे यहोवा के द्वारा आगे निर्देशित किया गया था, और वह महज ऐसा व्यक्ति था जिसे परमेश्वर के द्वारा उपयोग किया गया था। जब यीशु आया, तब यूहन्ना ने मार्ग प्रशस्त करने के कार्य के एक चरण को सम्पन्न कर लिया था, और स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार को फैलाना शुरू कर दिया था (पवित्र आत्मा ने इसे शुरू किया था)। जब यीशु प्रगट हुआ, तो उसने सीधे तौर पर अपना खुद का कार्य किया, परन्तु उसके कार्य और मूसा के कार्य एवं कथनों के बीच में एक बहुत बड़ा अन्तर था। यशायाह ने भी बहुत सारी भविष्यवाणियाँ कीं, फिर भी वह स्वयं परमेश्वर क्यों नहीं था? यीशु ने बहुत सारी भविष्यवाणियों को नहीं कहा था, फिर भी वह स्वयं परमेश्वर क्यों था? कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं करता है कि उस समय यीशु के सारे कार्य पवित्र आत्मा की ओर से आए थे, न ही वे यह कहने की हिम्मत करते हैं कि यह सब मनुष्य की इच्छा से आया था, या यह पूरी तरह स्वयं परमेश्वर का कार्य था। मनुष्य के पास ऐसी बातों का विश्लेषण करने का कोई तरीका नहीं है। यह कहा जा सकता है कि यशायाह ने ऐसा कार्य किया था, और ऐसी भविष्यवाणियों को कहा था, और वे सब पवित्र आत्मा से आये थे; वे सीधे तौर पर स्वयं यशायाह से नहीं आये थे, परन्तु यहोवा के प्रकाशन थे। यीशु ने बड़ी मात्रा में कार्य नहीं किया था, और बहुत सारे वचनों को नहीं कहा था, न ही उसने बहुत सारी भविष्यवाणियों को कहा था। मनुष्य के लिए, उसका प्रचार विशेष रूप से ऊँचा नहीं प्रतीत होता था, फिर भी वह स्वयं परमेश्वर था, और यह मनुष्य के लिए अवर्णनीय है। किसी ने कभी भी यूहन्ना, या यशायाह, या दाऊद पर विश्वास नहीं किया था; न ही किसी ने कभी उन्हें परमेश्वर कहा, या दाऊद परमेश्वर, या यूहन्ना परमेश्वर कहा था; किसी ने कभी भी ऐसा नहीं कहा, और केवल यीशु को ही हमेशा मसीह कहा गया है। परमेश्वर की गवाही, वह कार्य जिसका उसने उत्तरदायित्व लिया था, और वह सेवकाई जिसे उसने किया था, उनके अनुसार यह वर्गीकरण किया गया है। बाईबिल के महापुरुषों के लिहाज से – इब्राहीम, दाऊद, यहोशू, दानिय्येल, यशायाह, यूहन्ना एवं यीशु – उस कार्य के माध्यम से जिसे उन्होंने किया था, तुम कह सकते हो कि स्वयं परमेश्वर कौन है, और किस प्रकार के लोग भविष्यवक्ता हैं, और कौन प्रेरित हैं। परमेश्वर के द्वारा किसे उपयोग किया गया था, और कौन स्वयं परमेश्वर था, यह सार-तत्व और जिस प्रकार का कार्य उन्होंने किया था उसके द्वारा अलग एवं निर्धारित किया गया है। यदि तुम अन्तर को बताने में असमर्थ हो, तो यह साबित करता है कि तुम नहीं जानते हो कि परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ क्या होता है। यीशु परमेश्वर है क्योंकि उसने बहुत सारे वचन कहे थे, और बहुत अधिक कार्य किये थे, विशेषकर उसका अनेक चमत्कारों का प्रदर्शन। उसी प्रकार, यूहन्ना ने भी बहुत अधिक कार्य किया था, और मूसा ने भी ऐसा ही किया था; तो उन्हें परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया? आदम को सीधे तौर पर परमेश्वर के द्वारा बनाया गया था; सिर्फ एक प्राणी कहकर पुकारने के बजाए, उसे परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया था? यदि कोई तुमसे कहे, "आज, परमेश्वर ने बहुत अधिक कार्य किया है, और बहुत सारे वचन कहें हैं; वह स्वयं परमेश्वर है। तो, चूँकि मूसा ने बहुत सारे वचन कहे थे, वो भी स्वयं परमेश्वर होगा!" तुम्हें जवाब में उनसे पूछना चाहिए, "उस समय, क्यों परमेश्वर ने यीशु की गवाही दी, और स्वयं परमेश्वर के रूप में यूहन्ना की गवाही क्यों नहीं दी थी?" क्या यूहन्ना यीशु से पहले नहीं आया था? क्या महान था, यूहन्ना का कार्य या यीशु का कार्य? मनुष्य को यूहन्ना यीशु से अधिक महान प्रतीत होता है, परन्तु क्यों पवित्र आत्मा ने यीशु की गवाही दी, और यूहन्ना की नहीं?" आज भी वही काम हो रहा है! शुरुआत में, जब मूसा ने इस्राएल के लोगों की अगुवाई की थी, यहोवा ने बादलों के मध्य से उससे बात की थी। मूसा ने सीधे तौर पर बात नहीं की थी, परन्तु इसके बजाए यहोवा के द्वारा सीधे तौर पर उसका मार्गदर्शन किया गया था। यह पुराने नियम के इस्राएल का कार्य था। मूसा के भीतर आत्मा या परमेश्वर का अस्तित्व नहीं था। वह उस कार्य को नहीं कर सकता था, और इस प्रकार जो कुछ उसके द्वारा और जो कुछ यीशु के द्वारा किया गया था उसमें एक बड़ा अन्तर था। और यह इसलिए है क्योंकि वह कार्य जो उन्होंने किया था वह अलग है! चाहे किसी व्यक्ति को परमेश्वर के द्वारा उपयोग किया जाता है या नहीं, या चाहे वह एक भविष्यवक्ता है, या एक प्रेरित है, या स्वयं परमेश्वर है, उसे उसके कार्य के स्वभाव के द्वारा पहचाना जा सकता है, और यह तुम्हारे सन्देहों का अन्त कर देगा। बाईबिल में ऐसा लिखा हुआ है कि सिर्फ मेमना ही सात मुहरों को खोल सकता है। युगों के दौरान, उन महान व्यक्तियों के मध्य पवित्र शास्त्र के अनेक व्याख्याता हुए हैं, और इस प्रकार क्या तुम कह सकते हो कि वे सब मेमने हैं? क्या तुमकह सकते हो कि उनकी सब व्याख्यायें परमेश्वर से आई थीं? वे तो मात्र व्याख्याता ही हैं; उनके पास मेमने की पहचान नहीं है। वे कैसे सात मोहरों को खोलने के योग्य हो सकते हैं? यह सत्य है कि "सिर्फ मेमना ही सात मोहरों को खोल सकता है," परन्तु वह सिर्फ सात मोहरों को खोलने के लिए ही नहीं आता है; इस कार्य की कोई आवश्यकता नहीं है, इसे संयोगवश किया गया है। वह अपने स्वयं के कार्य के विषय में बिल्कुल स्पष्ट है; क्या यह उसके लिए आवश्यक है कि पवित्र शास्त्र का अनुवाद करने के लिए अधिक समय बिताए? क्या "पवित्र शास्त्र का अनुवाद करते मेमने के युग" को छह हज़ार सालों के कार्य में जोड़ना होगा? वह नया कार्य करने के लिए आता है, परन्तु वह साथ ही बीते समयों के कार्य के विषय में कुछ प्रकाशनों को भी प्रदान करता है, जिससे लोग छह हज़ार सालों के कार्य के सत्य को समझ सकें। बाईबिल के बहुत सारे लेखांशों की व्याख्या करने की कोई ज़रूरत नहीं है; यह आज का कार्य है जो मुख्य बिन्दु है, जो महत्वपूर्ण है। तुम्हें जानना चाहिए कि परमेश्वर विशेष रूप से सात मुहरों को तोड़ने के लिए नहीं आता है, परन्तु उद्धार के कार्य को करने के लिए आता है।
तुम सिर्फ यह जानते हो कि यीशु अन्तिम दिनों के दौरान आयेगा, परन्तु वास्तव में वह कैसे आयेगा? तुम जैसा पापी, जिसे बस अभी अभी छुड़ाया गया है, और परिवर्तित नहीं किया गया है, या परमेश्वर के द्वारा सिद् नहीं किया गया है, क्या तुम परमेश्वर के हृदय के अनुसार हो सकते हो? तुम्हारे लिए, तुम जो अभी भी पुराने मनुष्यत्व के हो, यह सत्य है कि तुम्हें यीशु के द्वारा बचाया गया था, और यह कि परमेश्वर के उद्धार के कारण तुम्हें एक पापी के रूप में नहीं गिना जाता है, परन्तु इससे यह साबित नहीं होता है कि तुम पापपूर्ण नहीं हो, और अशुद्ध नहीं हो। यदि तुमने अपने आपको नहीं बदला है तो तुम संत के समान कैसे हो सकते हो? भीतर से, तुम अशुद्धता के द्वारा घिरे हुए हो, स्वार्थी एवं कुटिल हो, फिर भी तुम चाहते हो कि यीशु के साथ आओ – तुम्हें बहुत ही भाग्यशाली होना चाहिए! तुम परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में एक चरण में चूक गए हो: तुम्हें महज छुड़ाया गया है, परन्तु परिवर्तित नहीं किया गया है। तुम्हें परमेश्वर के हृदय के अनुसार होने के लिए, परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से तुम्हें बदलने एवं शुद्ध करने के कार्य को करना होगा; यदि तुम्हें सिर्फ छुड़ाया गया है, तो तुम शुद्धता को हासिल करने में असमर्थ होगे। इस रीति से तुम परमेश्वर की अच्छी आशिषों में भागी होने के लिए अयोग्य होगे, क्योंकि तुमने मनुष्य का प्रबंध करने के परमेश्वर के कार्य के एक चरण को पाने का ससुअवसर खो दिया है, जो बदलने एवं सिद्ध करने का मुख्य चरण है। और इस प्रकार तुम, एक पापी जिसे बस अभी अभी छुड़ाया गया है, परमेश्वर की विरासत को सीधे तौर पर उत्तराधिकार के रूप में पाने में असमर्थ हैं।
कार्य के इस नए चरण की शुरुआत के बिना, कौन जानता है कि तुम सब सुसमाचार प्रचारक, वक्ता, व्याख्याता एवं तथाकथित बड़े आत्मिक मनुष्य कितनी दूर तक जाते! कार्य के इस नए चरण की शुरुआत के बिना, जिसके विषय में तुम लोग बात करते हो वह पुरानी अप्रचलित चीज़ है! यह या तो सिंहासन पर विराजमान होना है, या एक राजा बनने के डील-डौल को तैयार करना है; या तो स्वयं का इन्कार करना है या अपनी देह को वश में लाना है; या तो धीरजवान बनना है या सभी चीज़ों से शिक्षाएं लना है; या विनम्रता है या प्रेम। क्या यह उसी पुराने धुन को गाने के समान नहीं है? यह तो बस उसी चीज़ को अलग अलग नाम से पुकारने जैसा है! या तो अपने सिर को ढंकना और रोटी तोडना, या हाथ रखना और प्रार्थना करना, तथा बीमारों को चंगा करना और दुष्ट आत्माओं को निकलना। क्या कोई नया कार्य हो सकता है? क्या विकास की कोई संभावना हो सकती है? यदि तुम निरन्तर इस तरह से अगुवाई करते हो, तो तुम आँख मूंद कर सिद्धान्त का अनुसरण करोगे, या परम्परा में बने रहोगे। तुम लोग विश्वास करते हो कि तुम सब का कार्य बहुत ही ऊँचा है, परन्तु क्या तुम लोग नहीं जानते हो कि इन सब को प्राचीन समयों के उन "पुराने मनुष्यों" के द्वारा आगे बढ़ाया और सिखाया गया था? वह सब जो तुम लोग कहते और करते हो क्या ये उन पुराने मनुष्यों के अन्तिम वचन नहीं हैं? उनके गुज़र जाने से पहले क्या यह इन पुराने लोगों का कर्तव्य नहीं था? क्या तुम लोग सोचते हो कि तुम्हारे कार्य भूतकाल की पीढ़ियों के प्रेरितों एवं भविष्यवक्ताओं से बढ़कर हैं, और यहाँ तक कि सभी चीज़ों से भी बढ़कर हैं? इस चरण के कार्य की शुरुआत ने सिंहासन पर विराजमान होने और राजा बनने की विटनेस ली की खोज के विषय में तुम लोगों की प्रशंसा को समाप्ति पर पहुंचा दिया है, और तुम्हारे घमण्ड एवं डींग को रोक दिया है, ताकि तुम लोग कार्य के इस चरण में गड़बड़ी डालने में असमर्थ हो जाओ। इस चरण के कार्य के बिना, तुम लोग हमेशा के लिए निराशाजनक स्थिति में गहराई से डूब जाते। तुम लोगों के मध्य ऐसा बहुत कुछ है जो पुराना है! सौभाग्यवश, आज का कार्य तुम लोगों को वापस लेकर आ गया है; अन्यथा, कौन जानता है कि तुम लोग किस दिशा में जाते! चूँकि परमेश्वर एक ऐसा परमेश्वर है जो हमेशा से नया है और कभी पुराना नहीं होता है, तुम नई चीज़ों की तलाश क्यों नहीं करते हो? तुम सदैव पुरानी चीज़ों के साथ क्यों चिपके रहते हो? और इस प्रकार, आज पवित्र आत्मा के कार्य को जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

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